'पंच प्रण' को समर्पित रा. स्व. संघ का शताब्दी वर्ष
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दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्थापना काल विजयादशमी १९२५ से अबतक निरंतर कार्य करते हुए सौवें वर्ष में प्रवेश करने वाला है। आने वाली विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष मनाएगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी इस अबाध यात्रा में समाज जागरण, देशभक्ति के अप्रतिम कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आज देश जानता है कि नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्र व समाज की सेवा करने वाला एक मात्र संगठन यही है। संघ जातिभेद, प्रांत भेद, भाषा भेद, पंथभेद से ऊपर उठकर राष्ट्रधर्म के कार्य करता आ रहा है। संघ की प्रतिज्ञा में भी इसी बात का उल्लेख किया गया है कि पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण और हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीय उन्नति करने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं यहां हिन्दू शब्द का अर्थ सीमित नही है अपितु अति विस्तृत है। संघ अपने विस्तृत विचार दृष्टिकोण से मानता है कि हिन्दुत्व ही राष्ट्रीत्व है।
इसी विचार के साथ संघ भारतवर्ष की सम्पूर्ण उन्नति करने के लिए देशभक्त स्वयंसेवक तैयार करता है जो समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज कार्य करते हुए दिखते हैं। संघ ने अपनी इस यात्रा में समाज में कई सकारात्मक परिणाम स्थापित किया है उसमें से एक है सामाजिक समरसता। संघ के जन्मकाल से ही इस विषय को हम देखते हैं आज परिणाम यह है कि भारत में जातीय विभेदता कम हुई है फिर भी अभी और कार्य करने की आवश्यकता है। राष्ट्र कार्य की इसी शृंखला में संघ ने अपने इस शताब्दी वर्ष में समाज में गुणात्मक परिवर्तन की दृष्टि से पंच प्रण का आवाह्न किया है। इसी भावना को दृष्टिगत करते हुए संघ के पूजनीय सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत और माननीय सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने देश के समक्ष ‘पंच परिवर्तन’ की संकल्पना प्रस्तुत की है।
संघ ने अपने स्वयंसेवकों तथा अपने समविचारी विविध संगठनों से भी आग्रह किया है कि वे इन पांचों बिंदुओं के अनुसार कार्ययोजना बनाते हुए देश के सामाजिक परिवर्तन के सक्रिय संवाहक बनें। समाज में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए निर्धारित किए गए ये ‘पंच परिवर्तन’ हैं- सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, स्व का भाव, नागरिक कर्तव्यों का पालन और पर्यावरण संरक्षण। इन पांच आयामों को ‘पंच प्रण’ भी इसी अपेक्षा से कहा गया है कि भारत के उत्थान की कामना करने वाले सभी लोग संकल्पपूर्वक इनका पालन करें। उपरोक्त पांचों बिंदु भारत के उत्थान में नींव का पत्थर बनने वाले साबित होंगे। भारत को जिस परमवैभव पर ले जाने का जो स्वयंसेवकों का संकल्प है वह इसी से पूरा होने वाला है। यह पांचों बिंदु पर विस्तार से समाज के आम नागरिकों में पहुंचाने की आवश्यकता है। पंच परिवर्तन का प्रथम बिंदु है-
सामाजिक समरसता- आज भी भारत में यह समस्या यदा कदा - देखने को मिल जाती है विदेशी आक्रमणकारी मुगलों और अंग्रेजों ने जातीय भावना का विद्वेष पैदा किया था जिस कारण हमारी हानि हुई स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी यह समस्या बनी हुई है आज समाज को इस कुरीति को दूर करना होगा। विश्वहिंदू परिषद ने बहुत वर्षों पूर्व धर्म संसद में कहा था कि सभी हिन्दू सगे भाई है कोई भी ऊंच नीच नहीं है। कुटुंब प्रबोधन- समृद्ध भारत की सबसे छोटी इकाई है परिवार। भारत की परिवार व्यवस्था आज पाश्चात्य देशों का शोध का विषय बनी हुई है। परिवार हमारे संस्कारों की पहली पाठशाला है। कुटुंब या परिवार व्यक्ति और समाज के बीच की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। समाज का लघुतम स्वरूप हम परिवार में अनुभव करते हैं। जिसके आचार्य एवं शिक्षक-प्रशिक्षक, माता-पिता और परिवार के बड़े लोग होते हैं।
व्यक्ति के समाजगत आचार-विचार-व्यवहार का प्रशिक्षण और प्रबोधन परिवार के ही माध्यम से होता है। बाल्यकाल से ही अनुकूल संस्कारों के आधान और प्रतिकूल संस्कारों के विसर्जन में परिवार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। स्व का भाव - स्वाधीनता के ७५ वीं वर्षगांठ पर स्व के विषय को लेकर बहुत सारे जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए गए स्व हमारे स्वाभिमान को जागृत करता है। मनुष्य की चेतना का जागरण उसके भीतर स्थित, उसका ‘स्व’ है हमको अपने जीवन में स्व के मानबिन्दुओं को स्थापित करना चाहिए जैसे स्वभाषा, स्वदेशी, स्व संस्कृति इत्यादि। व्यक्ति की चेतना पर पड़े हुए औपनिवेशिक गुलामी के आवरण को स्वदेशी आचरण से ही दूर किया जा सकता है।
नागरिक कर्तव्य - एक सभ्य समाज का आचरण ही उसके नागरिक कर्तव्य का बोध करता है। एक अनुशासित और सभ्य समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों का पालना सुनिश्चित करे। यही राष्ट्रीय चेतना का मूल हेतु है। अपने-अपने कर्तव्यों के पालन में ही दूसरों के अधिकार संरक्षित होते हैं। राष्ट्र में सद्भावना, शांति और समृद्धि का यही मूलमंत्र है।
पर्यावरण संरक्षण - संपूर्ण दुनिया आज बदलते जलवायु परिवर्तन से परेशान और चिंतित है भारत की संस्कृति के मूल में ही पर्यावरण का संरक्षण निहित है इसी लिए हमारे मनीषियों ने पर्यावरण को संरक्षित करने के उद्देश्य से धार्मिक भाव पैदा किया जिससे हमारी संस्कृति में नदियों की पूजा, पशुओं की पूजा, पहाड़ों की पूजा का विधान किया है हमने वायु, जल, पृथ्वी, आकाश, अग्नि को देवता की संज्ञा दी है। हम प्रकृति का दोहन करें शोषण न करें यहीं हमारा दर्शन है।
शताब्दी वर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा चलाए जा रहे इस अभियान में सारे देशवासियों को मिलकर कार्य करने की आवश्यकता है। हम आप जहां कहीं हैं इसकी शुरुआत सर्वप्रथम अपने जीवन से करनी चाहिए और समाज को साथ लेकर जनजागरण के सार्थक प्रयास करें। वह दिन दूर नहीं भारत पुनः विश्वगुरु के स्थान को सुशोभित करेगा।
बालभास्कर मिश्र
स्तंभ लेखक,
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