कविता,
संजीवनी।।
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मोमिता हम शर्मिंदा है।
क्या हम कहीं खो गए हैं
क्या हम कहीं सो गए हैं
या नपुंसकता की हद तक
हम सब मजबूर हो गए हैं?
क्या ऐसा तो नहीं कि
हम हृदयहीन हो गए हैं
गुड़िया और चिड़िया खेलती थी
निर्बाध जिस आंगन में
तितलियों और चिड़ियों के साथ,
गुड़िया नहीं पहचानती थी
नरभक्षी परिंदों और दरिंदों को,
नन्हा परिंदा समझ के मुस्कुराई
पर दरिंदों ने उस पर कयामत बरसाई,
कोलकाता की बेटी मोमिता,
हम दुखी हैं शर्मिंदा हैं,
तुम्हारे साथ इस हैवानियत पर
लानत है हमारी इंसानियत पर।
ऐसी क्या मर्दानगी
ऐसी क्या हवस
भूल गए अपनी मां को,
बेटी को, बहन को और
सबसे छोटी छुटकी को
टूट पड़े दरिंदे चिड़िया सी गुड़िया पर
और छिन्न भिन्न कर दिया मानवता को,
स्त्रियों के साथ
यह दरिंदगी ठीक नहीं,
तुम्हारी कायरता है
तुम मानव नहीं दरिंदे थे,
हो और दरिंदे रहोगे ,
समाज का श्राप है
दरिंदे बलात्कारियों पर।
हम तभी शांत हो पाएंगे,
जब बलात्कारी को
फांसी पर लटका पाएंगे।
संजीव ठाकुर, कवि
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