अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

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माँ

महान आशय की धनी, उच्चारण  मात्र से हर विघ्न बाधा का हरण करने वाली, क्लेशों, कष्टों को दूर कर अतिशय प्रेम बरसाने वाली, त्याग, सहयोग, दया, दान की असीम कोश "माँ" का जितना भी बखान किया जाय, वह कम है। दुनिया में जितने भी गम हैं, वे सब माँ के आँचल की छाँव पड़ते ही सदा सदा के लिए तिरोहित हो जाते हैं। महान पद-प्रतिष्ठा पूर्ण व्यक्तित्व की प्राप्ति का श्रेय आधारिक रूप से माँ को ही जाता है।

स्तन पान कराने वाली, गर्भ धारण करने वाली, भोजन देने वाली, गुरु पत्नी, इष्ट देवता की पत्नी, विमाता, पितृ कन्या, सहोदरा बहिन, पुत्र वधू, सासु, नानी, दादी, भाई की पत्नी, मौसी, बुआ और मामी, वेद में मानव के लिए ये सोलह प्रकार की माताएं बतलायी गईं हैं, किन्तु अखिल विश्व के मानवों को जन्म देने वाली, उनका भरण-पोषण करने वाली और अन्त में उन्हें स्वयं में समाहित करने वाली "पृथ्वी माता"तथा नौ माह तक गर्भ में धारण कर तमाम कष्टों को ममत्व की अभीप्सा में सहन करने वाली जन्मदात्री "माँ" का स्थान भगवान से भी बढ़कर है,क्योंकि भगवान को जन्म देने वाली माँ ही है।माँ सन्दर्भ में मेरे हृदय की पुकार है-

"माँ शब्द मिटाये भूख प्यास, माँ से जीने की बढ़ी आस। माँ का मतलब जो जान लिया, ख़ुद को वह पहचान लिया। माँ न होती, मैं न होता, मैं न होता तो क्या होता?भाई-बहना, पत्नी ललना,सब तभी मिले, जो माँ ने जना।

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ऐसी माँ जिसकी गोद में पल-बढ़कर आप अपनी तमाम तमन्नाओं, कामनाओं को पूरा होते देख फूले नहीं समाते,माँ के ममत्व बीच ही नसीब हुए। अमीर हो या गरीब, उच्च कुल हो या निम्न कुल, माँ अपने बच्चे को गर्भ धारण से लेकर मृत्यु पर्यन्त सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहती है।ऐसे लोग जिनकी माँ दुनिया में नहीं हैं, वे भी जब संकट व आफ़त काल में "माँ" की टेर लगाते हैं, 

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तब स्वर्गवासी माँ उनके दुःखों को दूर कर अपने प्रेम सुधा के प्रतीक स्वरूप उनकी आँखों में खुशी के आँसू छलका देती है। इसलिए विश्व जनों से मेरा कहना है कि- गर्भ में धारण कर असीम दुःखों का बोझ सहन कर, धरा पर अवतरित कराने एवं बचपन में गोद देने वाली माँ को बुढ़ापे में दगा देने वाला न बनना, क्योंकि ख़ुशनसीब हैं वे जिन्हें माँ का प्यार-दुलार नसीब है। 

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माँ के महात्म्य का एक परं सीख स्वरूप उदाहरण द्रष्टव्य है-"स्वामी विवेकानन्द जी से एक शिष्य जानना चाहा कि माँ का दर्ज़ा सर्वोपरि क्यों है?स्वामी जी बोले-"पाँच सेर का एक पत्थर ले आओ, अब इसे कपड़े से पेट में बाँध काम-काज करते हुए 24 घण्टे बाद मिलो।"24 घण्टे बाद वह व्यक्ति विवेकानन्द जी के पास पहुँच कर कहने लगा-"स्वामी जी यह बोझ मुझे बर्दाश्त नहीं।"स्वामी जी ने समझाया-"जब यह वजन तुम 24 घण्टे सहन नहीं कर सकते, तो माँ नौ माह तक गर्भ में बच्चे को धारण कर कैसे घर का सारा काम-काज निपटाती है और ख़ुश रहती है।

माँ जैसा सहनशील कोई दूजा नहीं।इसलिये माँ का स्थान दुनिया में सर्वोपरि है।" पूष-माघ की जाड़े की रात जब बच्चा बिछौना गीला कर देता है, तब माँ स्थान बदल गीले की तरफ़ स्वयं हो जाती है, स्वयं को ठंड के आगोश हो, बच्चे को बचाती है।तपती-जलती धूप में भी श्रमिक जीवन निर्वाह करने वाली माँ आँचल से बच्चे को हवा करती है।माँ के प्यार -दुलार, फ़टकार, लोरियों एवं मर्मस्पर्शी कहानियों द्वारा आज का बच्चा कल को विश्व विभूति बन जाता है, नर से नारायण हो जाता है।ज़रा सोचिए उन माताओं को जो ईंट के भट्ठों पर ईंट ढोने का कार्य करती हैं, पहाड़ों पर पत्थर तोड़ती हैं, 

इतना ही नहीं विक्षिप्तता (पागलपन) का जीवन जी रही,किन्तु पुरुष की अपराधी कुकृत्यों का शिकार हो बच्चे को जनी और ममत्व का अथाह प्रेम उमड़ने से नाना दुःख-जंजालों को झेलती हुई माँ बच्चे को दुःखों से दूर रखती है।असीम आसमाँ के समान असीम गुण गरिमा वाली जो "माँ" सन्तान को रोटी नहीं खिला पाने की दशा में आँसू बहाती थी, बच्चे के जीवन के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अपने जीवन का त्याग कर देती है,वही मानवीय मूल्यों के गिरावट के पोषी बच्चों द्वारा उत्पीड़ित हो रोटी और घर दोनों से दूर कर दी जाती है।

 यह मानव समाज के संदर्भ में परं दुःखदायी स्थिति है।ज्ञानी-विवेकी का दम्भ भरने वाले मानव के लिए प्रश्न चिह्न स्वरूप है।एक तरफ़ जहाँ विश्व महनीयता का वरण करने वाले सभी विश्व विभूतियों ने माँ से ही अपनी पहचान बताई है, वहीं दूसरी तरफ माँ के अनादर के एक से बढ़कर एक उदाहरण हमारे समक्ष प्रस्तुत हो मानव की मानवता को दाग़दार बनाते हैं।आख़िर यह सभ्य समाज का कौन सा रूप है?

 सम्प्रति देश- समाज एवं विश्व पटल पर जितनी भी समस्याएं विकराल रूप में उपस्थित हैं या स्थान ले रही हैं, उनका मूल कारण आदर्श नागरिक गुणों (आदर्श जीवन मूल्यों) के  प्रति बेपरवाही है। लोग भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में संवेदनशील नहीं हैं। जच्चा और बच्चा की स्वस्थ मनोशारीरिक दशाएं ही होनहार नागरिकों का विकास कर सकती हैं, जिसका कि विश्व मानव समाज को दरकार है।इसलिए माँ की महनीयता को समझते हुए उसके मान सम्मान के प्रति गम्भीर हों।इस प्रामाणिक तथ्य को अन्तस्थ करें कि-
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।"

स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित लेख सुरेश लाल श्रीवास्तव 
प्रधानाचार्य-राजकीय हाईस्कूल जहाँगीरगंज, अम्बेडकरनगर
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