टूटती उम्मीदों का समाज और आत्महत्या का बढ़ता संकट, सभ्य समाज के लिए करुणाजनक स्थिति

टूटती उम्मीदों का समाज और आत्महत्या का बढ़ता संकट, सभ्य समाज के लिए करुणाजनक स्थिति

स्कूल के बच्चों से लेकर सुरक्षाबलों के जवानों तक आत्महत्या की घटनाएं आज भारतीय समाज की सबसे पीड़ादायक और चिंताजनक सच्चाइयों में शामिल हो चुकी हैं। यह केवल किसी एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती बल्कि पूरे परिवार के लिए ऐसा कुठाराघात बन जाती है, जिसकी भरपाई जीवन भर नहीं हो पाती। हाल के वर्षों में सामने आए आंकड़े बताते हैं कि यह समस्या अब किसी एक वर्ग या आयु समूह तक सीमित नहीं रही, बल्कि किशोरों, युवाओं, विवाहित महिलाओं, कर्मचारियों और देश की सुरक्षा में तैनात जवानों तक फैली हुई है।
 
गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार बीते तीन वर्षों में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों में 438 जवानों ने आत्महत्या की। हालांकि सरकार का कहना है कि आत्महत्या के मामलों में हाल के वर्षों में कमी आई है। 2023 में जहां 157 आत्महत्याएं दर्ज की गई थीं, वहीं 2025 में यह संख्या घटकर 133 रह गई। यह गिरावट राहत देने वाली लग सकती है, लेकिन समस्या की गंभीरता को कम नहीं करती। इसके साथ ही 2014 के बाद से अब तक 23,360 जवानों द्वारा इस्तीफा दिया जाना यह संकेत देता है कि सुरक्षाबलों के भीतर मानसिक दबाव, कार्यस्थल तनाव और पारिवारिक समस्याएं गहराई से मौजूद हैं।
 
इस्तीफों के आंकड़े भी चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं। सबसे अधिक इस्तीफे सीमा सुरक्षा बल और असम राइफल्स से जुड़े हैं। बीएसएफ में 7,493, सीआरपीएफ में 7,456 और सीआईएसएफ में 4,137 जवानों ने सेवा छोड़ी। केवल 2025 तक ही 3,077 इस्तीफे दर्ज किए गए जिनमें से 1,157 बीएसएफ से हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि अनुशासन, देशसेवा और सम्मान के बावजूद जवान भी इंसान हैं, जिनकी भावनाएं, पारिवारिक जिम्मेदारियां और मानसिक सीमाएं होती हैं। लगातार तनावपूर्ण ड्यूटी, लंबी तैनाती, परिवार से दूरी और पदोन्नति या छुट्टी से जुड़ी समस्याएं धीरे-धीरे उन्हें भीतर से तोड़ देती हैं।
 
आत्महत्या की समस्या केवल सुरक्षाबलों तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2023 में देशभर में 1,71,418 लोगों ने आत्महत्या की। यह संख्या हर दिन औसतन 470 से अधिक मौतों को दर्शाती है। इन आत्महत्याओं का एक बड़ा कारण शादी और वैवाहिक जीवन से जुड़ी परेशानियां बताई गई हैं। वैवाहिक कलह, दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, अवैध संबंधों का शक, तलाक की आशंका और सामाजिक दबाव कई लोगों को मानसिक रूप से इतना कमजोर बना देते हैं कि वे जीवन समाप्त करने जैसा कठोर कदम उठा लेते हैं।
 
महिलाओं के लिए यह दौर विशेष रूप से निराशाजनक बनता जा रहा है। पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर होने के बावजूद सामाजिक अपेक्षाएं, पारिवारिक दबाव और रिश्तों में सम्मान की कमी उन्हें भीतर से तोड़ देती है। कई मामलों में महिलाएं लंबे समय तक मानसिक पीड़ा सहती रहती हैं, लेकिन समाज और परिवार उनकी वेदना को गंभीरता से नहीं लेता। जब कोई रास्ता नहीं दिखता, तब आत्महत्या उन्हें एकमात्र समाधान प्रतीत होने लगती है। इसे केवल व्यक्तिगत कमजोरी कहना नैतिक, कानूनी और संस्थागत विफलता को छिपाने जैसा है।
सबसे अधिक चिंता का विषय किशोरावस्था में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति है।
 
स्कूल जाने वाले बच्चे और टीनेजर आज जिस मानसिक दबाव से गुजर रहे हैं, वह पहले कभी इतना गहरा नहीं था। पढ़ाई में प्रतिस्पर्धा, परीक्षा में अच्छे अंक लाने का दबाव, माता-पिता की अपेक्षाएं, सोशल मीडिया पर तुलना, साइबर बुलिंग और भावनात्मक अस्थिरता किशोरों को अंदर ही अंदर तोड़ रही है। इस उम्र में मस्तिष्क और भावनाएं दोनों विकास की अवस्था में होती हैं, इसलिए छोटी-छोटी असफलताएं भी उन्हें जीवन की सबसे बड़ी हार लगने लगती हैं।
 
कई किशोर अपने माता-पिता से खुलकर बात नहीं कर पाते। डर रहता है कि डांट पड़ेगी, तुलना होगी या उनकी बातों को हल्के में लिया जाएगा। स्कूलों में काउंसलिंग की व्यवस्था अब भी सीमित है और जहां है भी, वहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर झिझक बनी रहती है। परिणामस्वरूप बच्चे अपने दर्द को भीतर दबाते रहते हैं, जो किसी एक क्षण में विस्फोट बनकर आत्महत्या का कारण बन जाता है।
 
आत्महत्या के कारणों पर गौर करें तो यह साफ दिखता है कि यह किसी एक वजह से नहीं होती। आर्थिक तंगी, बेरोजगारी, कर्ज, पारिवारिक कलह, प्रेम संबंधों में असफलता, सामाजिक अपमान, अकेलापन, अवसाद और नशे की लत जैसे कई कारण मिलकर व्यक्ति को इस अंधेरे रास्ते की ओर धकेलते हैं। किशोरों के मामले में पहचान का संकट, अस्वीकृति का डर और भविष्य को लेकर अनिश्चितता प्रमुख कारण बनते हैं।
 
इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए केवल कानून बनाना या आंकड़े पेश करना पर्याप्त नहीं है। जरूरत है लोगों के मन की वेदना को समझने की। परिवार को पहला सहारा बनना होगा। माता-पिता को बच्चों की उपलब्धियों के साथ-साथ उनकी असफलताओं को भी स्वीकार करना सीखना होगा। तुलना की जगह संवाद को महत्व देना होगा। स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए ताकि बच्चे अपनी भावनाओं को पहचानना और व्यक्त करना सीख सकें।
 
सरकारी और निजी स्तर पर काउंसलिंग सेवाओं को सुलभ और सामान्य बनाना समय की मांग है। सुरक्षाबलों में नियमित मानसिक स्वास्थ्य जांच, तनाव प्रबंधन कार्यक्रम और परिवार से जुड़े मुद्दों पर संवेदनशील नीतियां अपनानी होंगी। जवानों को यह भरोसा दिया जाना चाहिए कि मानसिक परेशानी कमजोरी नहीं है, बल्कि एक मानवीय स्थिति है, जिसका समाधान संभव है।
 
महिलाओं के लिए मजबूत सामाजिक समर्थन तंत्र तैयार करना होगा। घरेलू हिंसा और वैवाहिक उत्पीड़न के मामलों में त्वरित न्याय और सुरक्षित वातावरण देना जरूरी है। समाज को यह समझना होगा कि आत्महत्या किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है।
 
आत्महत्या रोकथाम के उपाय तभी सफल हो सकते हैं जब हम संवेदनशीलता, संवाद और सहयोग को प्राथमिकता दें। जीवन की किसी भी कठिन घड़ी में यह संदेश हर व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए कि वह अकेला नहीं है और उसकी पीड़ा सुनी जाएगी। उम्मीद की एक किरण कई बार किसी की पूरी जिंदगी बचा सकती है। जब समाज यह जिम्मेदारी समझेगा, तभी टूटती उम्मीदों के इस दौर में जीवन को फिर से संबल मिल सकेगा।

About The Author

स्वतंत्र प्रभात मीडिया परिवार को आपके सहयोग की आवश्यकता है ।

Post Comment

Comment List

आपका शहर

अंतर्राष्ट्रीय

नेतन्याहू से मुलाकात के बाद जयशंकर का कड़ा संदेश, आतंकवाद पर भारत–इज़राइल एकजुट नेतन्याहू से मुलाकात के बाद जयशंकर का कड़ा संदेश, आतंकवाद पर भारत–इज़राइल एकजुट
International Desk  यरूशलम। भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने इज़राइल की आधिकारिक यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू...

Online Channel