कुर्सी का कोड: क्या ‘ऑपरेशन लोटस’ सत्ता की नई रणनीति है?
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भारतीय लोकतंत्र अपनी संरचनात्मक विविधता और राजनीतिक प्रक्रियाओं की जटिलता के लिए जाना जाता है। चुनावों के बाद गठबंधन, पुनर्गठन और सरकारों में परिवर्तन केवल वर्तमान की घटनाएं नहीं हैं बल्कि दशकों से भारतीय राजनीति की स्वाभाविक विशेषताएं रही हैं। इन्हीं परिवर्तनों के बीच एक शब्द समय-समय पर उभरता रहा है, वह है -'ऑपरेशन लोटस'। यह कोई संवैधानिक या आधिकारिक शब्द नहीं बल्कि मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक लोकप्रिय अभिव्यक्ति है जो उन परिस्थितियों को दर्शाती है जहां विधायकों की निष्ठा या इस्तीफों के कारण बहुमत का संतुलन बदल जाता है।
दलबदल का इतिहास भारत में पुराना है। 1960 और 1970 के दशक में कई बार ऐसा हुआ कि विधायकों के समूह परिवर्तन से राज्य सरकारें बदलीं और राजनीतिक स्थिरता बाधित हुई। इस अस्थिरता को रोकने के लिए 1985 में संविधान की दसवीं अनुसूची यानी दलबदल विरोधी कानून लागू किया गया। इसके बावजूद बदलते राजनीतिक समीकरणों की वास्तविकता यह है कि इस्तीफे, पुनर्निर्वाचन और नए राजनीतिक गठजोड़ अभी भी भारतीय राजनीति का हिस्सा बने हुए हैं। इससे यह समझने में मदद मिलती है कि कानूनी प्रावधानों के बावजूद लोकतांत्रिक ढांचे में प्रतिनिधियों की भूमिका और उनकी व्यक्तिगत-राजनीतिक मान्यताएं कई बार बड़े परिवर्तन का कारण बन जाती हैं।
भारत में कई राज्य ऐसे हैं जहां दलबदल या बड़े पैमाने पर इस्तीफों के कारण सरकारें बदलीं और इन उदाहरणों ने राजनीतिक विश्लेषण में 'ऑपरेशन' जैसे शब्दों को जन्म दिया। 2019 में कर्नाटक एक महत्वपूर्ण उदाहरण है जहां कुछ विधायकों के इस्तीफों से बहुमत का संतुलन बदल गया और राज्य की सरकार में परिवर्तन हुआ। यह घटना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है कि इससे दलबदल कानून, विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं पर विस्तृत चर्चा हुई। इसी तरह 2020 में मध्य प्रदेश में एक बड़े समूह के विधायकों के इस्तीफा देने के बाद राज्य का राजनीतिक परिदृश्य अचानक बदल गया और नई सरकार का गठन हुआ। इस घटना ने भी संवैधानिक प्रक्रियाओं और बहुमत परीक्षण पर नए प्रश्न खड़े किए।
महाराष्ट्र में 2022 की घटनाएं भी राजनीतिक पुनर्संरचना का एक उदाहरण बन गईं जहां विधायकों के समूहगत परिवर्तन और नए गठबंधन ने राज्य की सरकार को नया रूप दिया। यह मामला कई महीनों तक सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का केंद्र रहा और इसने दलबदल कानून, व्हिप की वैधता और पार्टी नेतृत्व संबंधी प्रश्नों को नई रोशनी में प्रस्तुत किया। इसके पहले, 2016 में अरुणाचल प्रदेश की घटनाएं भी चर्चा में रहीं, जब विधायकों के पुनर्संरेखण से सरकार बदली और केंद्र-राज्य संबंधों, राष्ट्रपति शासन और न्यायिक हस्तक्षेप पर महत्वपूर्ण निर्णय सामने आए।
इन घटनाओं को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता नहीं है बल्कि इन्हें संवैधानिक और प्रशासनिक स्थिरता के संदर्भ में समझना अधिक उचित है। सरकारी व्यवस्थाएं लगातार बदलते राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर होती हैं। जब सरकारें बार-बार बदलती हैं तो विकास परियोजनाओं, नीतियों के कार्यान्वयन और प्रशासनिक निरंतरता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। जनता अक्सर यह प्रश्न उठाती है कि ऐसे बदलाव उसके द्वारा दिए गए जनादेश की भावना को किस हद तक प्रभावित करते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की अपेक्षा होती है कि चुनी हुई सरकार स्थिर रूप से कार्य करे और उसकी नीतियां दीर्घकालिक दृष्टि से लागू हों।
कानूनी दृष्टि से देखा जाए तो इन सभी घटनाओं की जमीन संविधान और दलबदल विरोधी प्रावधानों में निहित है। दलबदल कानून विधायकों को मनमाने ढंग से पार्टी बदलने से रोकता है, लेकिन इसमें इस्तीफा देने और पुन: चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है। यही वह बिंदु है जहां अनेक बार राजनीतिक दल रणनीतिक रूप से कदम उठाते हैं और बहुमत का संतुलन प्रभावित होता है। यह प्रक्रिया पूरी तरह कानूनी दायरे में होती है लेकिन इसकी राजनीतिक व्याख्या अलग-अलग स्वरूपों में सामने आती है।
'ऑपरेशन लोटस' जैसे शब्द भारतीय लोकतंत्र की बदलती प्रकृति के संकेतक मात्र हैं। ये किसी एक दल या विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि वे परिस्थितियां दर्शाते हैं जब विधायकों के निर्णयों से सत्ता-संतुलन बदल जाता है। एक परिपक्व लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि इन घटनाओं को केवल राजनीतिक रंग में न देखा जाए बल्कि संवैधानिक प्रक्रियाओं, न्यायिक व्याख्याओं और प्रशासनिक परिणामों के व्यापक दृष्टिकोण से समझा जाए।
लोकतंत्र की शक्ति यही है कि वह परिवर्तन और स्थिरता दोनों को साथ लेकर चलता है। राजनीतिक पुनर्संरचना के ये उदाहरण हमें यह सीख देते हैं कि शासन की स्थिरता, विधायी निष्ठा और जनादेश के सम्मान के बीच संतुलन बनाए रखना भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी चुनौती और अनिवार्यता है।
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