अफगानिस्तान- पाकिस्तान संघर्ष के सियासी रंग, भारत अमेरिकी प्रभाव के दूरगामी परिणाम।
भारतीय उपमहाद्वीप का यह त्रिकोण भारत, अफगानिस्तान और पाकिस्तान एशिया की भू-राजनीति का सबसे संवेदनशील और जटिल क्षेत्र है। यह केवल सीमाओं का नहीं बल्कि सभ्यताओं, संस्कृतियों और विचारधाराओं का संगम है। तीनों देशों के रिश्ते प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक काल तक निरंतर बदलते रहे हैं। कभी यह सांस्कृतिक सेतु रहा, तो कभी वैचारिक युद्ध का मैदान। और आज, यह क्षेत्र वैश्विक शक्तियों, विशेषकर अमेरिका और ब्रिटेन के प्रभावों से भी गहराई से प्रभावित है।
1947 में भारत के विभाजन ने इस त्रिकोण को निर्णायक रूप से बदल दिया। अफगानिस्तान ने पाकिस्तान को प्रारंभ में मान्यता नहीं दी क्योंकि उसे अपने पश्तून क्षेत्रों की चिंता थी। वहीं भारत ने अफगानिस्तान के साथ अपने ऐतिहासिक सांस्कृतिक संबंधों को बनाए रखा। पर ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा छोड़ी गई विभाजन की रेखाएँ दोनों के बीच अविश्वास के बीज बो गईं, जिनका असर आज तक है। इसके बाद शीतयुद्ध के काल में यह त्रिकोण वैश्विक शक्ति-संघर्ष का रणक्षेत्र बन गया। 1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान प्रवेश के साथ अमेरिका ने पाकिस्तान को “फ्रंटलाइन स्टेट” बनाकर अफगान मुजाहिदीनों को हथियार और प्रशिक्षण दिया।
पाकिस्तान की आई.एस.आई. को अमेरिकी डॉलर और सऊदी समर्थन मिला, जिससे आतंकवाद की वह संस्कृति पैदा हुई जिसने पूरे क्षेत्र को झुलसा दिया। भारत, जो सोवियत संघ का घनिष्ठ सहयोगी था, ने उस समय अफगानिस्तान की समाजवादी सरकार का समर्थन किया। इस प्रकार भारत-पाकिस्तान की प्रतिद्वंद्विता को एक नया आयाम मिला, और अफगानिस्तान की धरती शीतयुद्ध की प्रयोगशाला बन गई।
1989 में सोवियत सेनाओं की वापसी और उसके बाद की अस्थिरता ने पाकिस्तान को अल्पकालिक सामरिक लाभ तो दिया, पर दीर्घकाल में वही आग उसकी सीमाओं के भीतर फैल गई। 1990 के दशक में अमेरिका के समर्थन से पनपा तालिबान शासन पाकिस्तान के प्रभाव में तो आया, पर उसने अफगान समाज को मध्ययुगीन अंधकार में धकेल दिया। फिर 2001 में 9/11 के हमलों ने अमेरिका को एक बार फिर अफगानिस्तान खींच लिया। अमेरिका ने तालिबान शासन को समाप्त कर लोकतांत्रिक सरकार स्थापित की, और इस बार भारत को पुनर्निर्माण में सहयोग का अवसर मिला।
भारत ने अफगानिस्तान में सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों, और संसद भवन का निर्माण कर वहाँ के जनमानस में विश्वास अर्जित किया। यह भारत की सॉफ्ट पावर का सबसे प्रभावी प्रदर्शन था। परंतु अमेरिकी नीति दोधारी तलवार साबित हुई। वह विकास के बजाय आतंकवाद को समाप्त करने पर केंद्रित रही, और उसकी दृष्टि अफगान समाज की आंतरिक संरचना को समझने में असफल रही। पाकिस्तान ने अमेरिका को सहयोगी बनाकर अरबों डॉलर प्राप्त किए, पर उसी दौरान उसने तालिबान को भी गुप्त समर्थन दिया। यह द्वंद्व 2021 में अमेरिकी वापसी के साथ उजागर हो गया, जब तालिबान पुनः सत्ता में लौट आया।
अमेरिका की यह वापसी न केवल अफगानिस्तान के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए अनिश्चितता की वापसी थी। पाकिस्तान को लगा था कि नया तालिबान शासन उसके अनुकूल होगा, पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के बढ़ते हमलों ने उसकी नीति को उलझन में डाल दिया। अब पाकिस्तान उसी आतंकवाद का शिकार है, जिसे उसने कभी रणनीतिक संपत्ति कहा था। भारत ने इस दौर में अत्यंत संयम और व्यावहारिकता दिखाई। उसने तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी, पर मानवीय सहायता जारी रखी। भारत जानता है कि अफगानिस्तान की अस्थिरता का सीधा प्रभाव उसकी सुरक्षा पर पड़ेगा—विशेषतः कश्मीर और सीमा पार आतंकवाद के रूप में।
इस परिस्थिति में भारत का उद्देश्य विकास और स्थायित्व को प्राथमिकता देना है, न कि सत्ता परिवर्तन में हस्तक्षेप करना। दूसरी ओर, अमेरिका अब प्रत्यक्ष उपस्थिति के बजाय ‘नियंत्रित अस्थिरता’ की नीति अपनाए हुए है ताकि वह चीन और रूस के बढ़ते प्रभाव को सीमित रख सके। यही कारण है कि अफगानिस्तान आज भी वैश्विक शक्ति-संतुलन का केंद्र बना हुआ है।
ब्रिटिश औपनिवेशिक मानसिकता और उसकी छोड़ी हुई राजनीतिक रेखाएँ अब भी इस त्रिकोण की दिशा निर्धारित करती हैं। पाकिस्तान की सैन्य और नौकरशाही संरचना ब्रिटिश शासन की ही उपज है, जिसमें धर्म को राजनीति का औजार बनाया गया। वहीं अफगानिस्तान की आंतरिक अस्थिरता, ब्रिटिश और बाद में अमेरिकी प्रयोगों की देन है। भारत इस त्रिकोण में एकमात्र ऐसा देश है जिसने बिना किसी औपनिवेशिक मानसिकता के, केवल विकास और सांस्कृतिक संवाद की नीति अपनाई। वह न तो पश्चिम की कठपुतली बना, न किसी सामरिक गठबंधन का मोहरा।
वर्तमान में जब पाकिस्तान आर्थिक संकट और राजनीतिक अराजकता से जूझ रहा है, अफगानिस्तान तालिबान शासन के कठोर धार्मिक नियंत्रण में है, और अमेरिका इस पूरे क्षेत्र को अपने वैश्विक हितों की दृष्टि से देख रहा है, तब भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह शांति और विकास के माध्यम से इस क्षेत्र में स्थायित्व का संतुलन बनाए। भारत की कूटनीति आज “रणनीतिक स्वायत्तता” की दिशा में है—न तो शीतयुद्ध की गुटनिरपेक्षता, न ही किसी महाशक्ति की अधीनता।
यह त्रिकोणीय रिश्ता इतिहास की दृष्टि से जितना पुराना है, उतना ही जटिल भी। इसमें विश्वास और भय, संस्कृति और सत्ता, विकास और आतंकवाद—सब साथ-साथ चलते हैं। यदि तीनों देश यह समझ लें कि स्थायित्व और समृद्धि का मार्ग पारस्परिक सम्मान और सहयोग से ही निकलेगा, तो दक्षिण एशिया विश्व की नई शांति-भूमि बन सकता है। पर यह तभी संभव है जब पाकिस्तान अपनी “रणनीतिक गहराई” की नीति त्यागे, अफगानिस्तान अपने नागरिकों के लिए स्थिर शासन दे, अमेरिका अपने सामरिक प्रयोगों से पीछे हटे, और भारत अपने नेतृत्व को विकास और संवाद के माध्यम से सार्थक बनाए। तब यह त्रिकोण संघर्ष का नहीं, सहयोग का प्रतीक बनेगा और इतिहास का यह भू-भाग एक बार फिर सभ्यता, करुणा और स्थायित्व की भूमि कहलाएगा।
संजीव ठाकुर, चिंतक, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार

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