हरितालिका तीज : संयम, समर्पण और संतुलन का पर्व
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भारतीय संस्कृति में पर्व-त्योहार केवल धार्मिक विश्वासों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे मानवीय मूल्यों, सामाजिक संबंधों, स्वास्थ्य, पर्यावरण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पोषित करने वाले जीवन-आधार भी हैं। इन्हीं में से एक है हरितालिका तीज, जो उत्तर भारत, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड और नेपाल के अनेक क्षेत्रों में भाद्रपद शुक्ल तृतीया को विशेष श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्रत का संबंध देवी पार्वती और भगवान शिव से है। स्कंद पुराण सहित अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है कि माता पार्वती ने अपने पिता हिमालय द्वारा अनचाहे विवाह से बचने के लिए अपनी सखी के साथ वन में जाकर कठोर तप किया और अंततः भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया। यही कारण है कि इसका नाम "हरितालिका" पड़ा—जहाँ ‘हरि’ का अर्थ हरण और ‘तालिका’ का अर्थ सखी से है। यह कथा स्त्रियों को आत्मबल, दृढ़ निश्चय और समर्पण का संदेश देती है।
यह पर्व केवल दांपत्य सौभाग्य का प्रतीक नहीं है, बल्कि स्त्री-शक्ति, त्याग, धैर्य और आत्मसम्मान की पहचान भी है। महिलाएं इस दिन निर्जला उपवास रखती हैं, पारंपरिक वेशभूषा धारण करती हैं और शिव-पार्वती की पूजा करती हैं। सामूहिकता का यह स्वरूप स्त्री-सशक्तिकरण की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है।
हरितालिका तीज का महत्व केवल आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका वैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी पक्ष भी है। आधुनिक चिकित्सा शोध बताते हैं कि उपवास से शरीर डिटॉक्स होता है, पाचन तंत्र को विश्राम मिलता है और रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। वर्षा ऋतु के अंतिम चरण में यह उपवास संक्रमण और मौसमी रोगों से बचाव में सहायक होता है। पूजा और भजन-स्मरण के समय मस्तिष्क में सेरोटोनिन और डोपामिन जैसे ‘हैप्पी हार्मोन’ स्रावित होते हैं, जो मानसिक संतुलन और प्रसन्नता प्रदान करते हैं। वहीं सामूहिक उत्सव सामाजिक संबंधों को गहरा बनाते हैं।
आज के वैज्ञानिक युग के संदर्भ में इस पर्व का पर्यावरणीय पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। शिव-पार्वती की प्रतिमाओं को मिट्टी से बनाना, पूजा में स्थानीय फूल-पत्तियों और फलों का उपयोग करना, पीपल, बेल और तुलसी की आराधना करना आदि।ये सब प्रकृति-संरक्षण को बढ़ावा देते हैं। इससे न केवल रसायन और प्लास्टिक आधारित सजावट का उपयोग घटता है, बल्कि स्थानीय कारीगरों और किसानों को भी प्रोत्साहन मिलता है। पर्व के नाम में ही ‘हरित’ शब्द प्रकृति, हरित ऊर्जा,हरित निमार्ण और हरियाली को महत्व देने की ओर संकेत है। इस प्रकार, यह पर्व आज के समय में सतत विकास और ‘वोकल फॉर लोकल’ की भावना को भी बल देता है।
सांस्कृतिक दृष्टि से यह महिलाओं के सामूहिक उत्सव का पर्व है। इसमें लोकगीत, नृत्य, कथा-वाचन, झूला-झूलना और पारंपरिक श्रृंगार मिलकर सामाजिक एकता और पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करते हैं। समाज और पड़ोस में आपसी मेल-जोल और सहयोग की भावना को यह पर्व विशेष रूप से प्रोत्साहित करता है।
हरितालिका तीज संयम, समर्पण, स्वास्थ्य और पर्यावरण-संरक्षण का ऐसा अद्वितीय संगम है, जो केवल दांपत्य जीवन को सुदृढ़ करने तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संतुलन का संदेश भी देता है। यदि इसके मूल्यों को जीवन में उतारा जाए तो यह पर्व व्यक्तिगत, पारिवारिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और वैश्विक कल्याण का भी पथ प्रशस्त कर सकता है। यही इसकी विशिष्टता है कि यह भारतीय संस्कृति की उस महान परंपरा को जीवित रखता है, जिसमें तन, मन, प्रकृति और समाज, सभी का संतुलन साधा जाता है।
लेखक: डॉ. मनमोहन प्रकाश, स्वतंत्र पत्रकार
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