मुफ्त की रेवड़ियों पर सुप्रीम टिप्पणी ज़रुरी
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देश में आज एक प्रचलन चलने लगा है कि चुनाव के समय कुछ ऐसी घोषणा की जाए जो जनता को सीधे जोड़े। क्यों कि पुराने चुनावी वादों पर राजनैतिक दल अपना विश्वास खो चुके हैं और जब वह चुनाव के समय बेरोजगारी, महंगाई कम करने शिक्षा अच्छी और सस्ती करने और विकास के वादे करते हैं तो जनता समझ जाती है कि चुनाव चल रहा है और चुनाव होने के बाद ये सब वादे फुस्स हो जाएंगे। इसलिए राजनैतिक दलों ने इसके लिए एक नया हथियार निकाला है कि जनता को नकद प्रलोभन दो, जैसे फ्री बस यात्रा, फ्री बिजली, खातों में बिना काम के सीधे रकम, फ्री खाद्यान्न इत्यादि इत्यादि। यह प्रचलन पिछले दो दशकों से काफी चल रहा है और शुरू में जिन लोगों ने इसका विरोध किया था आज वह लोग भी इसी पर चलते नजर आ रहे हैं।
इन सबके बीच सुप्रीम कोर्ट ने इस मुफ्त की रेवड़ियों को लेकर एक हिदायत देते हुए टिप्पणी की है कि इस पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह समाज के लिए बहुत ही घातक है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो लोग काम करना बंद कर देंगे। सुप्रीम कोर्ट ने उदाहरण पेश करते हुए कहा है कि महाराष्ट्र में किसानों को खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे हैं। जब व्यक्ति को बिना काम किए खाद्यान्न मिल रहा है। और घर की औरतों के खाते में पैसा ट्रांसफर हो रहा है तो वह काम क्यों करेगा।
काम वह करेगा जिसे अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए पैसे की आवश्यकता होगी और वह पैसा काम से ही मिलेगा। फ्री की इन योजनाओं का क्रम वैसे तो समय-समय पर राजनैतिक दल चलाते रहे हैं। लेकिन दिल्ली में केजरीवाल ने इसका उपयोग बहुत ही वृहद स्तर पर किया था। इसमें 200 यूनिट तक बिजली फ्री, पानी फ्री, महिलाओं को बस में यात्रा फ्री।
इसके बाद केंद्र सरकार ने भी कोरोना काल में एक योजना लागू की थी जो कि एक बहुत ही बड़ी योजना है और वह है गरीबों के लिए खाद्यान्न योजना इस योजना में सरकार गरीब परिवार को गेहूं, चावल, तेल,नमक,चना आदि मुफ्त उपलब्ध करा रही है। हालांकि इस योजना में कुछ अपात्र लोगों ने लाभ उठाया है लेकिन सरकार अब इस पर निगरानी रख रही है। यह योजना कोरोना के समय इसलिए लागू की गई थी क्योंकि उस समय रोज कमाने खाने वाले लोगों के पास काम नहीं बचा था और वह इधर-उधर भटक रहे थे।
लेकिन अब सवाल यह उठता है कि इतनी बड़ी योजना जिस पर केंद्र सरकार करोड़ों का बजट खर्च करती है यह अब बंद कैसे होगी। क्यों कि लोगों की आदत अब फ्री की बन चुकी है। और इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी चिंता जाहिर की है। किसी मुफ्त योजना को आसानी से लागू किया जा सकता है लेकिन उसको बंद करने का मतलब सीधे राजनैतिक नुकसान से जुड़ जाता है।
महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और दिल्ली में गरीब महिलाओं के खातों में सीधे धनराशि पहुंचाने की भी घोषणा की गई थी। यदि इतना बजट हम किसी कार्य योजना के लिए रखें और उसको रोजगार से सीधे जोड़ दें तो शायद समाज के लिए ज्यादा असरदार हो सकता है। लेकिन हमने अपने राजनैतिक लाभ साधने के लिए इस तरह के वादे करने शुरू कर दिए हैं। जो कि भविष्य के लिए ठीक नहीं हैं। ऐसा हम ही नहीं कह रहे वो सभी राजनैतिक दल भी पहले कहते थे जो इसका विरोध करते थे लेकिन आज सभी इसके पक्षधर हो गये हैं।
मुफ्त योजना पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता को हल्के में नहीं लिया जा सकता। क्यों कि यदि हमने इस पर लगाम नहीं लगाया तो इसके दूरगामी परिणाम भुगतने होंगे। क्यों कि इसमें सबसे बुरा असर मध्यम वर्ग पर पड़ता है। फ्री की योजनाओं का जितना बजट होता है उससे हम तमाम जन-उपयोगी योजनाओं को आगे बढ़ा सकते हैं। महंगाई पर काबू कर सकते हैं, लोगों को अच्छी शिक्षा अच्छी स्वास्थ्य सेवा दे सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने कहा था कि इन मुफ्त की योजनाओं से ज्यादा जरुरी है कि लोगों को काम मिले और अन्य ऐसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हों जो कि आवश्यक होती हैं। इस पर सरकार को अवश्य मंथन करना चाहिए। देश में तमाम ऐसे मुद्दे आज़ भी ज्वलंत समस्या बनकर खड़े हैं जिस पर काम होना चाहिए। बेरोजगारी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता, शिक्षा के क्षेत्र में अभी हमें और भी अधिक सुधार की आवश्यकता है, खासकर निचले स्तर पर।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमने बहुत तरक्की की है लेकिन हम सफल तब ही माने जाएंगे जब समाज के अंतिम पायदान के व्यक्ति को भी हम अच्छी स्वास्थ्य सेवा दे सकें। लोगों को पक्के आवास दिलाने में हमने पिछले समय में निसंदेह बहुत अच्छा कार्य किया है लेकिन अभी भी हमारे सामने एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो कि अपने मकान के लिए प्रयास कर रही है।
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