वादों का अंत, जनशक्ति का आगाज
राजनीति के मंच पर एक अद्भुत दृश्य उभर रहा है—मौन का महासमर! चुनाव प्रचार के शोरगुल के थमते ही नेताओं की वाचालता पर विराम लग चुका है और जनता की उंगलियां संकल्पबद्ध मोड में आ चुकी हैं। यह परिदृश्य लोकतंत्र की असली शक्ति को दर्शाता है, जहां केवल शब्दों की गूंज नहीं, बल्कि जनमत की बुलंदी सुनाई दे रही है।
दिल्ली में चुनाव प्रचार के शोर के थमते ही नेताओं की चुप्पी और जनता की उंगलियों की सशक्त अभिव्यक्ति लोकतंत्र के एक नए युग का संकेत है। अब यह युग वादों और घोषणाओं का नहीं, बल्कि निर्णयों और कृत्यों का है। जब नेताओं के भाषण जनता को संतुष्ट करने में असफल रहे, तब जनता ने अपने मत से लोकतंत्र की वास्तविकता का उद्घोष किया।
यही वह शक्ति है जिसे वर्षों तक अनदेखा किया जाता रहा, लेकिन अब यही शक्ति परिवर्तन की गाथा लिखने के लिए प्रतिबद्ध है। यह केवल ‘वादा-बंदी’ का युग नहीं है, बल्कि ‘जनशक्ति संकल्प’ का युग है, जहां हर नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग कर लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति को अभिव्यक्त कर रहा है।
दिल्ली की सड़कों पर चुनावी प्रचार के दौरान लगे रंगीन पोस्टर अब धुंधले पड़ चुके हैं। ये पोस्टर हवा में लहराते हुए मानो स्वयं से प्रश्न कर रहे हैं—क्या वे फिर किसी दीवार पर चिपकाए जाएंगे, या फिर इतिहास के धूल-धूसरित पन्नों में समा जाएंगे? चुनाव प्रचार के माइक से गूंजने वाली उन्मादी चीखें अब थम चुकी हैं, नारों का शोर भी शांत हो गया है, और नेताओं के ऊंचे मंचों से उठने वाली उंगलियां अब स्थिर हो चुकी हैं। यह कोई संयोग मात्र नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सबसे निर्णायक घड़ी है—जहां अब भाषणों की बौछार नहीं होगी, बल्कि जनता अपने मतों से निर्णय सुनाएगी।
नेताओं की अप्रत्याशित चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। क्या यह चुनाव आयोग के निर्देशों का प्रभाव है, या फिर जनता की बढ़ती जागरूकता का संकेत? वे नेता जो कल तक आश्वासनों की गंगा बहा रहे थे, वे आज मौन की गहराइयों में समा गए हैं। लेकिन यह मौन पराजय का प्रतीक नहीं, बल्कि जनसत्ता के जागरण का उद्घोष है।
अब जनता की उंगली केवल मोबाइल स्क्रीन पर स्क्रॉल करने या सोशल मीडिया पर बहस छेड़ने तक सीमित नहीं रहेगी। यह उंगली इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर दबने वाली है, जो भविष्य की दिशा को स्पष्ट करेगी। यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का अवसर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की एक नई परिभाषा गढ़ने का भी समय है। अब देखना यह है कि परिवर्तन की यह लहर किसी नई सुबह की दस्तक लाएगी या फिर वही पुराने वादों का भार जनता के कंधों पर पुनः लाद दिया जाएगा।
लोकतंत्र में जनता की भूमिका अब केवल चुनावी प्रक्रिया में मतदान करने तक सीमित नहीं रही, बल्कि एक सजग प्रहरी की भांति सत्ता के हर कदम पर दृष्टि बनाए रखने की है। जनता ने अपने अधिकारों को पहचान लिया है, और अब वह केवल पांच वर्षों में एक बार मतदान कर मौन नहीं रहेगी, बल्कि निरंतर शासन पर निगरानी रखेगी। डिजिटल मीडिया और सूचना क्रांति के इस युग में कोई भी सरकार अब जनता को भ्रमित नहीं कर सकती। लोकतंत्र केवल मतों की गणना नहीं, बल्कि जनता की चेतना का विस्तार है।
फैसला जनता के हाथों में है और यही लोकतंत्र की असली ताकत है। अब जनता अपने मताधिकार का उपयोग केवल औपचारिकता निभाने के लिए नहीं करेगी, बल्कि एक निर्णायक शक्ति के रूप में करेगी। यही लोकतंत्र की असली विजय है।

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