पुस्तक समीक्षा......"संघर्ष का सुख।"

 


        बड़ा और  भला होने में बड़ा फर्क है ।
बड़ा तो चतुराई से तिकड़म से बना जा सकता हैं । लोग बने भी हैं , बन भी रहे हैं ।
पर भला बनना  तपस्या है , जो सबके बूते का नहीं ।
बड़ा और भला एक साथ होना किसी तिलिस्म से कम नहीं ।
         इसी तिलिस्म कि कहानी  ”संघर्ष का सुख" ---  में है।

भाषा में द्वैत अनिवार्य ............ निश्चित रूप से है।क्योंकि जीवन में भी द्वैत हैं । 
       ये मेरा सौभाग्य रहा की इस महान शख्सियत से लगभग तीन दशक पुरानी मेरी नजदीकी रही ।इनके श्वसुर श्री लाल शुक्ल जी ने राग दरबारी उपन्यास जो हिंदी साहित्य का व्यंग्य से बुझे हुए नश्तर का कल्ट बना दिया तो उनके जमाता डॉ उदय शंकर ने विश्व के रासायनिक उवर्रक क्षेत्र का कल्ट इफ्को को बना दिया ।
      समानता , स्वतंत्रता , बंधुत्व का भाव इफ्को कर्मी मे डा. अवस्थी ने परिपक्व किया । वे स्वयं अत्याचार , धूर्तता , लालच , स्वार्थ से गहरी नफरत करते हैं और ऐसा करनेवाले को कभी क्षमा नहीं करते ।
     आश्चर्य है ! एक रासायनिक कारखाना 56 वर्षों से अनवरत मुनाफे के साथ । यह कैफियत किस तरह से पैदा हुई कि इफ्को चलता हुआ जादू बन गई ।
 इस जादू को जानने के लिए 
 एक कालखंड को जानने के लिए !
 तथा डा. उदय शंकर के व्यक्तित्व को जानने के लिए !
     अभिषेक सौरभ की किताब संघर्ष का सुख पढ़ें । पुस्तक सरल शब्दों में प्रवाहमय भाषा के साथ लिखी गई है ।
                 

                    दया शंकर त्रिपाठी
                    ब्यूरो चीफ
                   स्वतंत्र प्रभात

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