कौन थे असली धुरंधर मेजर मोहित शर्मा ?

कौन थे असली धुरंधर मेजर मोहित शर्मा ?

जब कोई सैनिक शहीद होता है, तो केवल एक जीवन नहीं जाता—एक दृष्टि, एक अनुशासन, एक आदर्श समाज के सामने प्रश्न बनकर खड़ा हो जाता है। मेजर मोहित शर्मा का नाम आज फिर चर्चा में है, फिल्मों और लोकप्रिय विमर्श के कारण, लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि वे किसी कथा के पात्र नहीं थे, बल्कि उस वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसे हम अक्सर पर्दे के पीछे छोड़ देते हैं। उनका जीवन और बलिदान यह सवाल पूछता है कि हम वीरता को केवल स्मारकों और फिल्मों तक सीमित क्यों कर देते हैं, जबकि वह हमारे नैतिक ढाँचे का आधार हो सकती है।

मेजर मोहित शर्मा उन विरले सैनिकों में थे जिनमें असाधारण साहस और गहरी मानवीय संवेदना एक साथ मौजूद थी। 13 जनवरी 1978 को हरियाणा के रोहतक में जन्मे मोहित का बचपन साधारण था, लेकिन सपने असाधारण। इंजीनियरिंग जैसे सुरक्षित और प्रतिष्ठित मार्ग को छोड़कर उन्होंने सेना को चुना, क्योंकि उनके लिए राष्ट्रसेवा कोई करियर विकल्प नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य थी। यह निर्णय आज के समय में विशेष अर्थ रखता है, जब युवाओं को सफलता के त्वरित और व्यक्तिगत रास्ते अधिक आकर्षित करते हैं।

एनडीए और आईएमए में उनका प्रशिक्षण केवल सैन्य दक्षता तक सीमित नहीं रहा। खेल, संगीत और नेतृत्व—हर क्षेत्र में उन्होंने यह सिद्ध किया कि एक सैनिक केवल हथियार चलाने वाला नहीं, बल्कि एक संपूर्ण व्यक्तित्व होता है। घुड़सवारी, बॉक्सिंग, तैराकी और संगीत के प्रति उनका प्रेम इस बात का प्रमाण था कि कठोर सैन्य जीवन के भीतर भी सौंदर्य और संवेदना के लिए स्थान होता है। यही संतुलन आगे चलकर उन्हें एक असाधारण कमांडो और भरोसेमंद नेता बनाता है।

कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियानों के दौरान मेजर मोहित शर्मा ने जो भूमिका निभाई, वह आधुनिक सैन्य इतिहास में दुर्लभ मानी जाती है। आतंकियों के बीच अपनी पहचान छिपाकर, जान जोखिम में डालकर उन्होंने ऐसे गुप्त अभियान चलाए, जिनमें गलती की कोई गुंजाइश नहीं थी। ‘इफ्तिखार भट्ट’ के रूप में महीनों तक दुश्मन के बीच रहना केवल साहस नहीं, बल्कि मानसिक दृढ़ता, धैर्य और अद्भुत आत्मसंयम की माँग करता है। यह वह क्षेत्र है जहाँ सैनिक केवल बंदूक से नहीं, बल्कि बुद्धि और मनोबल से लड़ता है।

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उन अभियानों में उन्होंने आतंक की जड़ों को हिलाया, लेकिन कभी इसका सार्वजनिक श्रेय नहीं चाहा। सेना मेडल और प्रशंसापत्र उनके लिए उपलब्धियाँ नहीं, बल्कि कर्तव्य के स्वाभाविक परिणाम थे। यही दृष्टि उन्हें भीड़ से अलग करती है—जहाँ वीरता प्रदर्शन नहीं, दायित्व बन जाती है।

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21 मार्च 2009 का दिन भारतीय सेना के इतिहास में एक और स्वर्णिम, लेकिन पीड़ादायक अध्याय जोड़ गया। कुपवाड़ा के हाफरुदा जंगल में जब गोलियों की बौछार हुई और उनके साथी घायल पड़े थे, तब मेजर मोहित शर्मा ने अपने जीवन से पहले अपने सैनिकों को चुना। घायल अवस्था में भी नेतृत्व करना, दिशा-निर्देश देना और अंतिम क्षण तक लड़ते रहना केवल युद्ध कौशल नहीं, बल्कि उस सैन्य संस्कृति का प्रमाण है, जहाँ अधिकारी अपने जवानों से आगे चलता है, पीछे नहीं।

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उनकी शहादत के बाद मिला अशोक चक्र केवल एक वीरता पुरस्कार नहीं, बल्कि उस मूल्य-व्यवस्था की पुष्टि है, जिसमें देश सर्वोपरि होता है। उनकी पत्नी मेजर ऋषिमा शर्मा का स्वयं सेना में सेवा करना इस बात का प्रतीक है कि बलिदान केवल एक व्यक्ति का नहीं होता, वह पूरे परिवार का साझा संकल्प होता है। यह तथ्य हमें याद दिलाता है कि हर शहीद के पीछे एक मौन साहस भी होता है, जो अक्सर सुर्खियों में नहीं आता।

आज जब उनकी कहानी फिल्मों के माध्यम से नई पीढ़ी तक पहुँच रही है, तो यह अवसर केवल गर्व करने का नहीं, बल्कि आत्ममंथन का भी है। क्या हम ऐसे सैनिकों को केवल युद्ध के समय याद करते हैं? क्या हमारी नागरिक चेतना में उनके बलिदान के प्रति वही गंभीरता है, जिसकी वे अपेक्षा करते थे? मेजर मोहित शर्मा का जीवन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि राष्ट्रभक्ति केवल नारों और प्रतीकों से नहीं, बल्कि ईमानदारी, अनुशासन और सामाजिक उत्तरदायित्व से बनती है।

उन्होंने एक बार कहा था—किसी चीज़ के लिए मरना, बिना मकसद जीने से बेहतर है। यह वाक्य आज के समय में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है, जब उद्देश्यहीनता और असंतोष तेजी से समाज में फैल रहा है। मेजर मोहित शर्मा की विरासत हमें बताती है कि जीवन की सार्थकता केवल उसकी अवधि में नहीं, बल्कि उसके उद्देश्य में निहित होती है।

वे अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कहानी किसी स्मारक में बंद नहीं होनी चाहिए। वह हमारे सार्वजनिक विमर्श, हमारी शिक्षा और हमारी नैतिक प्राथमिकताओं का हिस्सा बननी चाहिए। क्योंकि जब तक ऐसे नाम हमारे विवेक में जीवित हैं, तब तक यह देश केवल सुरक्षित ही नहीं, बल्कि संवेदनशील भी रहेगा।

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