परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी कंपनियों के प्रवेश का फैसला क्यों ? 

परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी कंपनियों के प्रवेश का फैसला क्यों ? 

केंद्र की मोदी सरकार ने सोमवार (15 दिसंबर) को लोकसभा में एक नया विधेयक पेश किया, जो परमाणु दुर्घटनाओं की स्थिति में आपूर्तिकर्ताओं के लिए भारत के सख्त कानून को खत्म करने के साथ ही निजी कंपनियों को उस क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति देता है जो अब तक विशेष सार्वजनिक उद्यमों के लिए आरक्षित था.इस विधेयक के एक बार पारित होने के बाद निजी कंपनियों को परमाणु ऊर्जा संयंत्र या रिएक्टर के निर्माण, स्वामित्व, संचालन या बंद करने, परमाणु ईंधन के निर्माण (जिसमें यूरेनियम-235 का रूपांतरण, शोधन और संवर्धन शामिल है) या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किसी अन्य निर्धारित पदार्थ के उत्पादन, उपयोग, प्रसंस्करण या निपटान के लिए लाइसेंस प्रदान किए जाएंगे.परमाणु उर्जा का क्षेत्र देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है इस लिए इस पर बहुत सोच विचार कर निर्णय लेने की जरूरत है। अभी यह भी समीक्षा का विषय है कि सरकार यह फैसला बिना किसी दबाव के जरूरत में ले रही है या इसके पीछे कोई मजबूरी छिपी है। 
 
आपको बता दें कि लोकसभा में सिविल न्यूक्लियर कानून में बदलाव का प्रस्ताव रखा है। इसके जरिए सरकार अब परमाणु ऊर्जा पर सरकार का एकाधिकार खत्म करने की तैयारी कर रही है। अगर मौजूदा कानून को बदलने के लिए लाया गया विधेयक स्वीकार होता है तो आने वाले दिनों में भारत में निजी कंपनियां और यहां तक कि आम आदमी भी परमाणु संयंत्र के निर्माण और इसके संचालन जैसी गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं। केंद्रीय विज्ञान-तकनीक मामलों के राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में इससे जुडा विधेयक पेश किया। बुधवार को इस पर चर्चा शुरू हुई।
 
बताया गया है कि इस विधेयक को कानून बनवाकर सरकार 2047 तक कुल 100 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा पैदा करने के लक्ष्य को पूरा करने का प्रयास कर रही है। ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर इस विधेयक में क्या प्रस्ताव हैं, जिन्हें लेकर देशभर में चर्चाएं जारी हैं? इससे परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल के नियम किस तरह बदल जाएंगे? अगर निजी और आम लोगों को परमाणु उपकरण के इस्तेमाल की इजाजत होगी तो इसकी सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी? अगर ऐसे में कोई हादसा हो जाता है तो इससे कैसे निपटा जाएगा? इसके अलावा सरकार का यह कदम महत्वपूर्ण क्यों है? सिविल न्यूक्लियर कानून में बदलाव के लिए जो विधेयक लाया गया है, उसे सस्टेनेबल हानेंसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (एसएचएएनटीआई यानि शांति), 2025 नाम दिया गया है।
 
इसके जरिए सरकार परमाणु ऊर्जा कानून (एटॉमिक एनर्जी एक्ट), 1962 और परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 को वापस ले लेगी। मौजूदा समय में भारत में परमाणु पदार्थों, ऊर्जा और उपकरणों के इस्तेमाल को लेकर यही दोनों कानून दिशा-निर्देश तय करते हैं। शांति, 2025 विधेयक में परमाणु ऊर्जा के उत्पादन, इस्तेमाल और नियमन के लिए एक नया वैध ढांचा तैयार करने का प्रस्ताव है। इसके अलावा रेडिएशन के मानकों को लेकर भी इस विधेयक में कई नियम शामिल किए गए हैं। विधेयक में कहा गया है कि परमाणु ऊर्जा भारत की स्वच्छ ऊर्जा जरूरतों के लिए काफी अहम है। खासकर जैसे-जैसे ऊर्जा की मांग वाली तकनीक जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), डाटा सेंटर्स और उत्पादन की मांग बढ़ती जा रही है। विधेयक में कहा गया है कि सभी परमाणु और इससे होने वाले उत्सर्जन से जुड़ी गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार और परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (एईआरबी) से सुरक्षा मंजूरियां लेनी होंगी।
 
इस विधेयक के जरिए परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड की शक्तियां बदल दी गई हैं। अब एईआरबी सुरक्षा, रेडिएशन, परमाणु कचरे के प्रबंधन, जांच और आपात स्थिति को लेकर ज्यादा शक्तिशाली होगा। सरकार के पास रेडियोएक्टिव पदार्थों या रेडिएशन से जुड़े उपकरणों के नियंत्रण का भी अधिकार होगा, ताकि किसी सुरक्षा खतरे की स्थिति में सरकार खुद व्यवस्था को अपने हाथ में ले सके। परमाणु ऊर्जा अगर भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में सहायक है तो इसका गलत प्रबंधन हादसों को भी बुलावा दे सकता है। ऐसे में सरकार ने विधेयक में परमाणु हादसों को ध्यान में रखते हुए कुछ नियम बनाए हैं। इसके तहत किसी भी दुर्घटना की स्थिति में परमाणु ऊर्जा से जुड़े केंद्र के संचालक को सबसे पहले घटना के लिए जिम्मेदार माना जाएगा और उसे नुकसान की भरपाई करनी होगी।
 
इसमें कहा गया है कि परमाणु केंद्र का संचालक हर तरह के नुकसान और तबाही के लिए जिम्मेदार होगा, सिवाय किसी खतरनाक प्राकृक्तिक आपदा से हुई तबाही के। यानी अगर कोई प्राकृतिक आपदा ऐसी है, जिसमें तमाम सुरक्षा मानकों का पालन करने के बावजूद नुकसान को नहीं रोका जा सकता, उस स्थिति में संचालक की जिम्मेदारी सीमित या नहीं होगी। इसके अलावा सशस्त्र संघर्ष, गृह युद्ध, आतंकवाद की घटना या विद्रोह की स्थिति में भी परमाणु इंस्टॉलेशन के संचालक की जिम्मेदारी सीमित या तय होगी। विधेयक में यह भी कहा गया है कि अगर नुकसान का मुआवजा संचालक की तय जिम्मेदारी से ज्यादा है तो अतिरिक्त मुआवजे के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार होगी।
 
सरकार ने साफ किया किया है है कि परमाणु ऊर्जा के लिए इससे जुड़े पदार्थ और उपकरणों का इस्तेमाल करने वाली निजी कंपनियों लोगों को बीमा और वित्तीय सुरक्षा का प्रबंधन करना जरूरी होगा, ताकि किसी संभावित नुकसान की स्थिति में उसकी भरपाई की जा सके। विधेयक में कहा गया है कि किसी हादसे की स्थिति में परमाणु नुकसान के दावों से जुड़े आयोग का गठन किया जाएगा, जो कि मुआवजे को लेकर फैसला करेगा। मौजूदा समय में भारत का परमाणु बीमा पूल (आईएनआईपी) किसी परमाणु संचालक और सप्लायर को परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 के तहत 1500 करोड़ का कवरेज मुहैया कराता है। इस विधेयक की एक खास बात यह है कि इसमें कंपनियों को लाइसेंस पाने के लिए अनुसंधान और नवाचार से जुड़ी गतिविधियां दिखाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
 
हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े संस्थानों को लाइसेंस के लिए इन दोनों ही मानकों को दिखाना होगा। भारत के परमाणु ऊर्जा से सशक बनने के बाद से ही इस पर सरकार का एकाधिकार रहा है। सरकार के नियंत्रण में भारत का परमाणु ऊर्जा बेस काफी संतुलित रहा है। देश में 23 परमाणु रिएक्टर हैं, जिन्हें सरकार ही प्रबंधित करती है और इनकी पूरी जिम्मेदारी न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के पास है। इन सभी के जरिए भारत हर वर्ष करीब 8.8 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा पैदा करता है। हालांकि, सरकार ने 2032 तक 22 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रखा है, जिसे 2047 तक बढ़ाकर 100 गीगवॉट पहुंचाने की मंशा जताई गई है। ऐसे में सरकार निजी कंपनियों के लिए भी परमाणु ऊर्जा क्षेत्र को खोलने के लिए तैयार है, ताकि इन लक्ष्यों को जल्द हासिल किया जा सके।
 
विधेयक में सरकार ने निजी कंपनियों के लिए न सिर्फ रास्ते खोले हैं, बल्कि विदेशी निवेशकों के लिए भी नियमों को आसान बनाया है। खासकर किसी हादसे की स्थिति में उनकी जिम्मेदारी का नियम हटाकर। रिपोर्ट्स की मानें तो पूरे विधेयक में कहीं भी परमाणु पदार्थों या इससे जुड़े उपकरणों को भेजने वाली कंपनियों को हादसे के लिए उत्तरदायी ठहराने का जिक्र नहीं है। ऐसे में उनके पदार्थों या उपकरण की गड़‌बड़ी से हुए हादसे के लिए सप्लायर जिम्मेदार नहीं होंगे। बीते कई वर्षों से परमाणु पदार्थ और उपकरण भेजने वाली विदेशी कंपनियां भारत से इसी तरह की छूट की मांग भी कर रही थीं।
 
गौरतलब है कि इससे पहले परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 में सप्लायर्स को उत्तरदायी बनाने का भी जिक्र था। इसे तब भाजपा के दबाव में कांग्रेस ने ही कानून में शामिल किया था। इसके तहत कुछ मामलों में भारत की सिविल कोर्ट में सप्लायर्स के खिलाफ भी वाद दाखिल किया जा सकता है। हालांकि, तब फ्रांस की अरेवा कंपनी और अमेरिका की वेस्टिंग हाउस ने इसका विरोध किया था और भारत के साथ परमाणु संयंत्र बनाने का ज्ञापन समझौता होने के बावजूद दोनों ही कंपनियां इससे पीछे हट गई थीं।
 
विपक्षी सदस्यों ने प्रस्तावन चरण के दौरान ही आपत्तियां उठाईं.कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने कहा, ‘अत्यधिक खतरनाक परमाणु गतिविधियों में लाभ कमाने वाली निजी भागीदारी की अनुमति देना, साथ ही दायित्व को सीमित करना, वैधानिक छूट प्रदान करना और न्यायिक उपायों को प्रतिबंधित करना, जीवन, स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति राज्य के अप्रतिनिधित्व योग्य सार्वजनिक विश्वास दायित्वों को कमजोर करता है.’प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि पिछले विधेयक कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में सदन में लाए गए थे. यह विधेयक उसी नियामक संरचना को बनाए रखता है।
 
एक परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड जो सुरक्षा प्राधिकरण प्रदान करेगा। लेकिन विवादों के निवारण के लिए एक परमाणु ऊर्जा निवारण सलाहकार परिषद को भी शामिल करता है बहरहाल यह राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है इस के परिणाम कोई अमंगलकारी हालात भी पैदा कर सकते हैं इस लिए विशेष सतर्कता और परिणामों  पर बिना राजनीतिक दुराग्रह पूर्वाग्रह के विचार करना चाहिए।

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