पाकिस्तान: सेना के साये में सिसकता लोकतंत्र
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लेखक:डा मनमोहन प्रकाश
आतंकवाद, कट्टरता और आत्मवंचना में जकड़ा हमारा पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान आज बहुआयामी संकटों से घिरा हुआ है। वह आर्थिक रूप से लगभग दिवालिया, राजनीतिक रूप से अस्थिर, सामाजिक रूप से विखंडित और कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ चुका है। अब वह न तो आत्मविश्लेषण की दिशा में अग्रसर हो पा रहा है, न ही सुधार की कोई ठोस पहल कर पा रहा है। यह और भी विडंबनापूर्ण है कि उसके तथाकथित सहयोगी — जैसे चीन और तुर्की — भी स्वार्थ से प्रेरित उसे ऐसा दर्पण दिखाते हैं जिसमें असली चेहरा नहीं दिखाई देता बल्कि जैसा वह देखना चाहता है वही दिखता है। इस तरह पाकिस्तान को भारत विरोधी उत्तेजना से भरता रहता है। इसीलिए पाकिस्तान आत्मप्रवंचना से बाहर ही नहीं निकल पा रहा है।
पाकिस्तान केवल भारत-विरोध की आग में नहीं जल रहा, बल्कि वह भीतर से भी गंभीर सामाजिक और राजनीतिक दरारों से त्रस्त है। देश की बागडोर निर्वाचित सरकार के हाथों में नहीं, बल्कि रावलपिंडी स्थित सेना मुख्यालय के जनरलों के हाथों में है। प्रत्येक प्रधानमंत्री - चाहे इमरान खान हों या शाहबाज़ शरीफ - सेना की छाया से बाहर सोचने तक की स्वतंत्रता नहीं रखते।
वर्तमान में पाकिस्तान का शासन-तंत्र जनता और लोकतांत्रिक संस्थाओं में विश्वास की भारी कमी से जूझ रहा है। न्यायपालिका और मीडिया स्वतंत्रता की भावना से नहीं, भय और दबाव के वातावरण में कार्य कर रहे हैं। इमरान खान की गिरफ्तारी और उसके पश्चात फैली हिंसा यह स्पष्ट कर देती है कि देश में सत्ता का संघर्ष अब सड़कों पर उतर आया है।
बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा और सिंध जैसे प्रांतों में अलगाववादी आंदोलनों ने उग्र रूप ले लिया है। बलूच राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा पाकिस्तानी सेना पर लगातार हमले इस बात के प्रमाण हैं कि राष्ट्रीय एकता अब केवल एक औपचारिक अवधारणा बनकर रह गई है। इसके साथ ही, पंजाब और शेष पाकिस्तान के बीच का सामाजिक असंतुलन भी विभाजनकारी प्रवृत्तियों को हवा दे रहा है।
धार्मिक अल्पसंख्यकों - विशेष रूप से अहमदिया, हिंदू, ईसाई और शिया समुदायों - पर लगातार हो रहे हमले पाकिस्तान के सामाजिक ताने-बाने को भीतर से क्षत-विक्षत कर रहे हैं। वहाँ कट्टरपंथ का स्तर इतना बढ़ चुका है कि न्याय, सहिष्णुता और मानवाधिकार जैसे शब्द अब केवल भाषणों में सुनाई देते हैं, व्यवहार में नहीं।
आर्थिक दृष्टि से पाकिस्तान अत्यंत संकटग्रस्त है। विदेशी मुद्रा भंडार ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर पर पहुँच चुका है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की सख्त शर्तें आम नागरिकों पर महँगाई और करों का भारी बोझ बनकर टूट रही हैं। इसके बावजूद, पाक सरकार अपने सैन्य बजट में कटौती के बजाय वृद्धि कर रही है - यह दर्शाता है कि वह आज भी सैन्य प्रभुत्व और भारत-विरोध को प्राथमिकता देती है, भले ही उसके नागरिक भूख और बेरोजगारी से कराह रहे हों।
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम क्षेत्र में भारत विरोधी आतंकियों द्वारा किया गया हमला, जो पाकिस्तानी समर्थन से प्रेरित था, एक बार फिर उसकी आतंकी रणनीति की पोल खोल देता है। इसके प्रत्युत्तर में भारत द्वारा संचालित 'ऑपरेशन सिंदूर' न केवल एक निर्णायक सैन्य कार्यवाही थी, बल्कि यह पाकिस्तान को एक सख्त संदेश भी था - कि अब आतंक के हर प्रयास का कठोर और परिणामकारी उत्तर मिलेगा। इस ऑपरेशन में 100 से अधिक आतंकियों के मारे जाने और उनके ठिकानों के ध्वस्त किए जाने से स्पष्ट हो गया कि भारत अब सहनशील नहीं, निर्णायक है।
भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा और आर्थिक प्रगति को देखकर पाकिस्तान की बौखलाहट बढ़ रही है। 'कश्मीर' को लेकर उसका पुराना नैरेटिव अब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अस्वीकार हो चुका है। संयुक्त राष्ट्र, ओआईसी, अमेरिका और यूरोपीय संघ - किसी भी मंच पर उसे वह समर्थन नहीं मिल रहा जो वह दशकों तक पाने की कोशिश करता रहा है। इसके बावजूद, वह आतंकी संगठनों को अपनी 'रणनीतिक संपत्ति' मानने की भूल लगातार करता जा रहा है।
यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पाकिस्तान अब एक 'चेतना-शून्य राष्ट्र' बन चुका है - उसमें मानवीय संवेदना का कोई स्थान नहीं है। उसे न अपने नागरिकों की दुर्दशा की चिंता है, न अपने पड़ोसियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों की इच्छा। उसके नीति-निर्माता नफरत और कट्टरता के मोहजाल में इस कदर फँसे हैं कि देश की तरक्की की सोच भी अपराध प्रतीत होती है।
स्पष्ट है - जब कोई राष्ट्र अपने ही बच्चों को शिक्षा के स्थान पर नफरत का पाठ पढ़ाता है, जब वह युद्ध को राष्ट्र गौरव मानता है और जब वह अपने नागरिकों की भूख के बदले हथियार खरीदने को प्राथमिकता देता है, तो वह स्वयं को तो डुबोता ही है, साथ ही पूरे उपमहाद्वीप की शांति और स्थिरता के लिए भी गंभीर खतरा बन जाता है।
यदि पाकिस्तान को इतिहास के कूड़ेदान में जाने से बचना है, तो उसे सर्वप्रथम भारत-विरोध, आतंकवाद और कट्टरपंथ से बाहर आकर आत्ममंथन करना होगा। अन्यथा, "विफल राष्ट्र", "आतंकवादी राष्ट्र" और "आर्थिक भिखारी" जैसे उपनाम उसकी वैश्विक पहचान बन जाएंगे — स्थायी और अपमानजनक।
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