क्या हिंदी भाषी राज्यों को बोलियों के आधार पर बांटने की कोशिश की जा रही है?
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भारत एक विशाल देश है जहां विभिन्न जाति, धर्म, समुदाय, भाषा और बोलियां आज भी प्रचलन में हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में 19,500 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती रही हैं (2011 की जनगणना के अनुसार)। इनमें से लगभग 121 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें 10,000 से अधिक लोग बोलते हैं जबकि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में केवल 22 भाषाएँ मान्यता प्राप्त हैं। यूनेस्को की "एटलस आफ दी वर्ड लेग्यूजेज इन डेंजर" रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 197 भाषाएँ विलुप्तप्राय हैं।
इनमें से पिछले कुछ दशकों में विलुप्त हुई भारतीय बोलियों/भाषाओं में प्रमुख रूप से नाम आता है अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की अका-कोरा, अका-बो(2010 में अंतिम ज्ञात व्यक्ति का निधन), अका-जेरी, अका-बेया का; उत्तर प्रदेश की मोरी का ;उत्तर भारत की सारास्वती की, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की
रंगबोल का; झारखंड और पश्चिम बंगाल के आदिवासी समूह में बोली जाने वाली माल्टो;पश्चिम बंगाल के टोटो समुदाय द्वारा बोली जाने वाली टोटो का ;अरुणाचल प्रदेश में बोली जाने वाली कुछ मोनपा उपबोलियां का।जबकि हिमाचल प्रदेश में प्रचलित कुमार भाषा,कर्नाटक में बोली जाने वाली तोड़ो, कोडागु , तमिलनाडु की टोडा, झारखंड की माल्तो अरुणाचल प्रदेश में बोली जाने वाली सिअंग भाषा आदि विलुप्तीकरण की कगार पर हैं।
कुछ व्यक्तियों द्वारा समय समय पर हिंदी के राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए तथा अंग्रेजी के प्रभाव को बनाए रखने के लिए कुछ भाषाओं और बोलियों के कम उपयोग में आने के कारणों में हिन्दी को जिम्मेदार ठहरा कर राष्ट्र भाषा बनने से रोकने की कोशिश समय समय पर की जाती रही है । वस्तुत: किसी भाषा या बोली का विलुप्त होना एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें कई कारक शामिल होते हैं।
जैसे शिक्षा और रोजगार के लिए मुख्य भाषाओं की ओर झुकाव,गाँवों से शहरों की ओर तथा भारत से विदेशों की ओर पलायन,युवा पीढ़ी का अपनी पारंपरिक बोलियों को बोलने में रुचि नहीं लेना, टेलीविजन, इंटरनेट, और सोशल मीडिया का मुख्यधारा की भाषाओं को बढ़ावा देना तथा बोलियों पर ध्यान न देना, छोटे समूह की बोलियों को पिछड़ापन का प्रतीक समझना।
कई बार संस्कृतिकरण और भाषाई मिश्रण के कारण भी एक भाषा या बोली दूसरी भाषा में घुलमिल जाती है और अपनी मौलिक पहचान खो देती है। वहीं कई बोलियों को जानने वाले, प्रयोग में लाने वालों की आबादी बहुत ही कम होती और बहुत ही संकुचित और दुर्गम क्षेत्र में फैली रहती है (कुछ आदिवासी समुदाय आदि),इनकी आबादी के घटने से, समाप्त होने से भी बोलियां समाप्त हो जाती है।आजकल देश में अंतरजातीय के साथ अंतर-भाषायी विवाह ज्यादा होने लगे हैं जहां एक कॉमन भाषा (जैसे हिंदी या अंग्रेज़ी) को आपसी वार्तालाप का माध्यम बनाने के प्रयास में बोलियां चलन से बाहर हो रही हैं। भाषाविदों का यहां तक मानना है कि भाषा सामान्यतः विलुप्त नहीं होती है क्योंकि इनकी अपनी लिपि होती है, समृद्ध व्याकरण होता है और अपना लिखित साहित्य होता है जबकि बोलियों में इन तीनों का अभाव होता है, इसलिए विलुप्त होने की संभावना भी सबसे ज्यादा।
ऐसे में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री द्वारा यह कहना कि उत्तर प्रदेश और बिहार कभी हिन्दी हार्ट लैण्ड नहीं थे,हिंदी ने क्षेत्रिय भाषाओं को निगल लिया तथा हिन्दी के चलते कई क्षेत्रीय भाषाएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तथा एक अखंड हिंदी की पहचान की कोशिश ही प्राचीन भारतीय भाषाओं को खत्म कर रही है जैसे भोजपुरी,मैथली, अवधी,ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली,कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी,मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका,हो, खड़िया, खोरठा, कुरमाली,कुरुख, मुंडारी आदि।
क्या इस तरह का बयान निकट भविष्य में बिहार और उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा के चुनाव को ध्यान में रख कर दिया गया है?या गैर हिंदी भाषी लोगों के वोट को आकषिर्त करने की कोशिश है। क्या इस तरह के बयान समाज को बोलियों के आधार पर बांटने का काम नहीं करते? जबकि पहले से ही हमारा देश विविध जाति, धर्म, संप्रदाय और क्षेत्रीय भाषाओं में बटा हुआ है। क्या इस तरह के बयान राष्ट्र भाषा हिंदी का सोची समझी राजनीति के तहत किया गया अपमान नहीं है? यहां एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि दक्षिण की कुछ बोलियां जो अंतिम सांसें ले रही है उसके लिए भी क्या हिंदी जिम्मेदार है? जबकि वहां हिंदी का उपयोग तो स्थानीय लोगों द्वारा न के बराबर किया जाता है।
भारतीय भाषाओं के बोलने वालों को विभाजित करने,आपस में लड़ाने की पहली बार कोशिश हो रही है ऐसा नहीं है पहले भी अंग्रेजों के प्रशासन में(1757 में प्लासी की लड़ाई से 1947 में स्वतंत्रता तक) अंग्रेजी को बढ़ावा देने के लिए के लिए तथा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को हांसिए पर लाने के, उनके प्रभाव को कम करने के लिए दमनकारी नीतियां अपनाई गई। 'मैकाले मिनट'(1835) के तहत अंग्रेजी को सरकारी कामकाज और शिक्षा की भाषा बना दिया गया, उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया गया, आदालतों के काम काज में अंग्रेजी को प्राथमिकता दी गई, अंग्रेजी जानने वालों को उच्च पदों पर बैठाया गया।
इतना ही नहीं हिंदी बोलने वालों को कमतर समझा गया,हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। इसे हिन्दी की स्वीकार्यता ही कहेंगे कि अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के बाबजूद न सिर्फ हिंदी आपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रही अपितु स्वतंत्रता आंदोलन में आंदोलनकारियों को एकजुटता रखने की भाषा बनी। एक बार पुनः विदेशी भाषा (अंग्रेजी) के मोह में अपने देश में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तथा राजभाषा का सम्मान प्राप्त हिंदी को उसकी अपनी बोलियां के विरुद्ध खड़ा करने का षडयंत्र रचा जा रहा है, बोलियों के जानने वालों की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।
यहां यह समझना आवश्यक है कि भारत ही नहीं पूरा विश्व अपने यहां की कई बोलियों के विलुप्त होने से या जानने वालों की घटती संख्या से परेशान हैं। एक अनुमान के अनुसार मानव इतिहास के प्रारंभ से आज तक लगभग 30,000 भाषाएं विलुप्त हो चुकी है। दुनिया में आज 7000 जीवित भाषाएं है जिनमें से 3000 लुप्त प्रायः है। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार 780 भाषाएं बोलियां हैं जिनमें से 400 भाषाओं को आगामी 50 सालों में विलुप्त होने का खतरा है।भारत में ही पिछले 50 वर्षों में 250 भाषाएं जिन्हें हम बोलियां भी कह सकते हैं, विलुप्त हो गई हैं।
इस सदी के प्रारंभ में ही अंडमान की अका-जेरु (2009) , अका-बो (2010) , अका-कारी (2020) बोलियां विलुप्त हो गई है। इतना ही नहीं भारत की 19569 मातृ भाषाओं में से आज केवल 121 बोलियां ही बची हैं, जो आज संकटापन्न नहीं है( हम संकटापन्न उन भाषाओं को कहते हैं जिनके बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो गई है)।भारत के लगभग सभी शिक्षाविदों का यह मानना है कि भारत की भाषाई विविधता अद्वितीय है, और इसे संरक्षित करना हमारी सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए आवश्यक है।
सभी भाषाओं और बोलियों के महत्व को समझते हुए केन्द्र और राज्य सरकारें हमेशा से ही विलुप्तीकरण की कगार पर खड़ी बोलियों/भाषाओं के संरक्षण के प्रयास में लगी हुई है। भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी यही उद्देश्य है। इसलिए उसमें क्षेत्रीय भाषाओं को स्कूली शिक्षा में शामिल करने पर जोर है, विश्वविद्यालय और शोध संस्थानों द्वारा दुर्लभ भाषाओं का डॉक्यूमेंटेशन करने का प्रयास है,ऑनलाइन और डिजिटल माध्यमों में इन भाषाओं को प्रमोट करने पर काम हो रहा है।इन सबसे महत्वपूर्ण है स्थानीय समुदाय अपनी भाषा/बोली में गर्व महसूस करें, अपने बच्चों से अपनी बोली/भाषा में बात करें।
ऐसा करके न सिर्फ हम अपनी हिन्दी, क्षेत्रीय भाषाओं, स्थानीय बोलियों को सम्मान दे सकते हैं अपितु संरक्षित करने में भी सहयोग दे सकते हैं।बोलियों के संरक्षण के लिए - स्कूलों में स्थानीय बोलियों को पढ़ाने की व्यवस्था हो, स्थानीय बोलियों को पंचायत, तहसील स्तर पर गीत-संगीत, नाटक आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से बढ़ावा दिया जाए, स्थानीय फिल्मों के संवाद में इन्हें स्थान मिले।
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