संजीव-नी।
On
कविता
मेरा अज़ीज़ निकला मेरा ही कातिल
कभी खँजर बदल गये कभी कातिल ।
शामिल मै किश्तों में तेरी जिंदगी में,
कभी ख़ारिज किया कभी शामिल।
बड़े दिनों बाद रौशनी लौटी है शहर में,
आज रूबरू हुआ यारों मेरा कातिल।
लहरे थक गई सागर में मचलते हुए,
तलाशती वो भी कहीं कोई शाहिल।
क़त्ल का इल्जाम न लगाना उस पर,
वो सिर्फ बेवफाई के जुर्म में है शामिल।
क़त्ल की आरजू इल्तजा भी मेरी ही थी,
बेहद है मासूम भला कैसे होगा कातिल।
संजीव ठाकुर
कभी खँजर बदल गये कभी कातिल ।
शामिल मै किश्तों में तेरी जिंदगी में,
कभी ख़ारिज किया कभी शामिल।
बड़े दिनों बाद रौशनी लौटी है शहर में,
आज रूबरू हुआ यारों मेरा कातिल।
लहरे थक गई सागर में मचलते हुए,
तलाशती वो भी कहीं कोई शाहिल।
क़त्ल का इल्जाम न लगाना उस पर,
वो सिर्फ बेवफाई के जुर्म में है शामिल।
क़त्ल की आरजू इल्तजा भी मेरी ही थी,
बेहद है मासूम भला कैसे होगा कातिल।
संजीव ठाकुर
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