इतिहास में गूंजता एक नाम: शहीदे आज़म भगत सिंह

इतिहास में गूंजता एक नाम: शहीदे आज़म भगत सिंह

इतिहास में गूंजता एक नाम: शहीदे आज़म भगत सिंह


                                                   : दीवान सुशील पुरी

     जालियांवाला बाग़ हत्याकांड के बाद भगत सिंह ने रक्त से रंगी धरती पर कसम खाई थी कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी का बिगुल फूकेंगे। इस हत्याकांड के बारे में सुनकर कई मील दूर स्थित स्कूल से पैदल चलकर घटना स्थल पर पहुंचे।  उनके घर के सभी सदस्य देश की आज़ादी के मतवाले थे। इनका जन्म 28 सितम्बर , 1907 को बांगा, जिला लायलपुर में हुआ था।

 उसी दिन इनके पिता सरदार किशन सिंह जेल से रिहा हुए थे। तीन दिन बाद दोनों चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह को जमानत पर रिहा कर दिया। इनकी दादी ने इनका नाम भगत सिंह रखा। इनके चाचा अजीत सिंह का देश निकाला हो गया था , वह विदेश में रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहे जैसे ही देश आजाद हुआ भारत की धरती पर पैर रखते ही उनका निधन हो गया। यह नियति का कैसा क्रूर मजाक था। चाचा अजीत सिंह ने  कृषि कानून आन्दोलन किया था जिसका नारा बना था “पगड़ी संभाल जट्टा”। 

क्रांतिकारी देश बंधू चितरंजन दास की पत्नी श्रीमती बसंती देवी ने कलकत्ता की विशाल जनसभा में कहा था हिन्दुस्तान के नौजवानों ने चूड़ियां पहन ली है। लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में निकल रहे जुलुस पर क्रूर सुप्रींटेंडेंट ए स्काट के आदेश पर लाला जी के सर पर लाठी लगने से मृत्यु हो गयी थी। इसका प्रभाव क्रांतिकारियों पर पड़ा। इसका बदला लेने का संकल्प लिया गया। थोड़ी सी चूक से जूनियर ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स को गोली मार दी , जबकि मारनी थी ए स्काट को। इसमें भगत सिंह के साथ राजगुरु , सुखदेव और शिरोमणि चंद्रशेखर आज़ाद भी थे। राजगुरु ने गोली उनके मस्तक पे मारी, भगत सिंह ने आगे बढ़कर और गोली दाग दी। अंगरक्षक ने पीछा किया तो आजाद जी ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया , लेकिन आजाद जी कभी पकडे नहीं गए। कुछ लोगों को लगता है कि भगत सिंह जी को फांसी असेम्बली में बम फेंकने से हुई , पर ऐसा नहीं है।

 वह असेम्बली से भागे नहीं , जबकि चाहते तो भाग सकते थे। उन्होंने 08 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली असेम्बली में पहुँचकर जन विरोधी ष्ट्रेंड बिल एवं पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में दो बम विस्फोट किये थे।(इनके विरोध के कारण एक वोट से बिल पारित नहीं हो सका) इंकलाब-जिन्दाबाद का नारा लगाया और और पुलिस के सामने अपने को आत्मसमर्पण कर दिया। इस मुक़दमे में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास का दंड मिला। दिल्ली में सजा देकर इन दोनों को लाहौर लाया गया। क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी का दौर शुरू हुआ। राजगुरु को पुणे से गिरफ्तार किया और सुखदेव लाहौर में गिरफ्तार कर लिए गए। भगत सिंह पहले से ही गिरफ्तार थे। अंग्रेजी सरकार ने भगत सिंह के पुराने केस खंघालना शुरू कर दिए थे। इन तीनों को जूनियर ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स को गोली मरने से फांसी की सजा हुई थी।

 क्रांतिकारियों के अंदर सांडर्स की हत्या की सफलता ने उबाल ला दिया था। ब्रिटिश सरकार डर रही थी की कहीं बवाल न हो जाए , इसलिए 23 मार्च को सायं काल भगत सिंह को फांसी के लिए लेने पहुँच गए (जब 24 मार्च 1931 को फांसी होनी थी )। उस समय भगत सिंह लेनिन की किताब ’स्टेट ऑफ़ रिवॉल्यूशन’ पढ़ रहे थे। उसी दिन राजगुरु और सुखदेव को भी फांसी हुई। फांसी के लिए जाते समय कैदियों के हाथ पीछे से बाँध देते थे।  राजगुरु और सुखदेव इसका विरोध कर रहे थे। बुजुर्ग वार्डर चमन सिंह कह रहे थे हम पर रहम कीजिये यह अंग्रेजी सरकार का हुक्म है। भगत सिंह जी के कहने पर राजगुरु और सुखदेव ने पीछे हाथ कर के हथकड़ी लगवा ली और तीनों भारत माता की जय , बन्दे मातरम और इंकलाब -जिंदाबाद का नारा लगाते हुए और मुस्कुराते हुए फांसी की फंदे की ओर चल दिए। 

उधर वटुकेश्वर दत्त जी को काला पानी की सजा हुई। (युवा पीढ़ी दिशा विहीन हो चुकी है , ’दे डोंट नो अबाउट कालापानी पनिशमेंट गिवेन बाई ब्रिटिशर्स टिल डेथ’। एक क्रान्तिकारी को दूसरे क्रांतिकारियों का मैला ढोना पड़ता था , कोल्हू का बैल बनना पड़ता था। हाथ की चक्की से आटा पीसना पड़ता था। जब किसी कैदी को पेशाब आता था तो एक घड़े में ही करना पड़ता था , जब घड़ा भर जाता था, जिस क्रान्तिकारी कैदी की बारी होती थी,उसे बाहर पेशाब बहाना पड़ता था और भी कई तरह की भयानक यातनाएं झेलनी पड़ती थी। 

कालापानी की सजा कोई साधारण सजा नहीं थी , कितने कैदी तो घबराकर आत्महत्या कर लेते थे।) ब्रिटिश सरकार ने जेल के पीछे की दीवार तोड़कर शवों को पुलिस की निगरानी में लाहौर से कई किलोमीटर दूर फ़िरोज़पुर के निकट सतलुज नदी के किनारे मिटटी का तेल डाल कर संस्कार कर दिया। इसकी खबर आग की तरह फ़ैल गयी। वहां पर हज़ारों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। उनके आधे जले शवों को निकाल कर सम्मान के साथ दाह संस्कार किया गया। भगत सिंह के फांसी के बाद पंजाब का शायद ही ऐसा कोई घर होगा जहाँ चूल्हा जला हो। 

       उनकी माँ विद्यावती कौर ने उनकी शादी के लिए सोची। लेकिन भगत सिंह ने मना कर दिया। भागकर कानपुर चले आये और महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के यहाँ पत्रकारिता की। क्रांतिकारी दुर्गा भाभी जी का भगत सिंह जी की पत्नी बनने का किस्सा आज भी चर्चित है। दरअसल अंग्रेजों के मिशन को विफल करने के लिए 18 दिसंबर 1928 को भेष बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। साथ में उनका पुत्र साची था और राजगुरु ने उनका नौकर बनकर यात्रा की थी। दुर्गा भाभी क्रांतिकारियों को हथियार जुटाया करती थी। शिरोमणि चंद्रशेखर आज़ाद जी ने जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी वह पिस्तौल दुर्गा भाभी ने ही उनको दी थी। दुर्गा भाभी ने आजादी के बाद लख़नऊ कैंट में में अपना स्कूल खोल लिया था और उसी में शहीदे आजम भगत सिंह सभागार बनाया। हमारी संस्था ’शहीद स्मृति समारोह समिति’के संस्थापक स्व.रामकृष्ण खत्री जी हैं,

जिन्हें काकोरी कांड में दस वर्ष की सजा हुई थी, जिसका उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष मैं (सुशील पुरी) हूँ और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र श्री सुनील शास्त्री जी अध्यक्ष हैं, तथा उदय खत्री जी महा मंत्री है। सुभाष चंद्र बोस , भगत सिंह एवं अन्य क्रांतिकारियों के साथी रहे क्रांतिकारी स्व. रामकृष्ण खत्री जी ने दुर्गा भाभी से मेरी मुलाकात करवाई  थी। कुछ दिनों बाद दुर्गा भाभी गाजियाबाद चली गई और 1999 में उनका निधन हो गया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय जी ने 14 फरवरी 1931 को लॉर्ड इरविन जो भारत में गवर्नर जनरल और वायसराय थे। इनका पूरा नाम लॉर्ड एडवर्ड फ्रेडरिक लिन्डले वुड इरविन था। भगत सिंह की फाँसी रोकने के लिए अपील की थी। लॉर्ड इरविन ने कहा था आप कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष हैं। आप नेहरू और गांधी जी के साथ कांग्रेस के 20 सदस्यों के पत्र लाने होंगे। जब मालवीय जी ने नेहरू और गाँधी जी से भगत सिंह जी की फाँसी रुकवाने की बात कही तो उन्होंने चुप्पी साध ली और अन्य सदस्यों ने भी सहमति नहीं दी।

 जैसा मैंने सुना है रिटायर होने के बाद लॉर्ड इरविन ने स्वयं लन्दन में कहा था कि अगर नेहरू और गाँधी एक बार भी भगत सिंह की फाँसी रुकवाने की अपील करते तो वास्तव में मैं उनकी फाँसी रद्द कर देता। लेकिन पता नहीं मुझे ऐसा क्यों महसूस हुआ कि गाँधी जी और नेहरू को हमसे ज्यादा जल्दी थी कि भगत सिंह को फाँसी हो जाए। भगत सिंह तेजी से भारत के लोगों में लोकप्रिय हो रहे थे जो इनको रास नहीं आ रहा था। लाहौर के जेलर ने गाँधी जी से पूछा था कि इन जवान लड़कों को फाँसी देना उचित रहेगा ? गाँधी जी ने कहा कि आप अपना काम करें।  

   शहीदे आज़म भगत सिंह 9 भाई-बहन थे। उनके सगे भाई कुलतार सिंह के बेटे किरणजीत सिंह और बहन अमरकौर के लड़के सरदार जगमोहन सिंह और उनके कई क्रांतिकारियों के साथी के पौत्र -पौत्री एवं वंशज 31 दिसंबर 2017 को स्व. रामकृष्ण खत्री जी के पौत्र-पौत्री के शादी समारोह में आये थे। उन सब से मेरी मुलाक़ात भी हुई थी। 


               

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