सत्ता जब-जब निरंकुश होगी, कविता की प्रासंगिकता बढ़ती ही जाएगी – डाॅ माहेश्वर तिवारी
स्वतंत्र प्रभात चूँकि, आज विश्व कविता दिवस है और इस मौके पर मेरी स्मृति में यदि कविता को लेकर कोई तस्वीर स्पष्ट है तो वो डाॅ माहेश्वर तिवारी साहब की है 18 मार्च को मुरादाबाद के हिन्दू कॉलेज में हिन्दी परिषद् में आमंत्रित होकर डाॅ साहब ने अपने उद्बोधन में कहा -“कि जब भी सत्ता
डाॅ साहब ने अपने उद्बोधन में कहा -“कि जब भी सत्ता निरंकुश होगी, तब-तब ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना ‘ सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है ‘ गूंजेगी। माहेश्वर जी ने ऐसा समसामयिक मुद्दे पर केन्द्रित होकर कहा था, उन्होंने एक नवगीत लिखा था –
सोये हैं पेड़
कुहरे में
सोये हैं पेड़।
पत्ता-पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है
लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत-बहुत
रोये हैं पेड़।
जंगल का घर छूटा,
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनो में खोये हैं पेड़।
– माहेश्वर तिवारी
माहेश्वर जी का यह गीत आज के माहौल को बताने के लिए काफी है, फिर कोई कैसे सबूत मांग सकता है। आगे कहते हैं- कविता, सत्ता की निरंकुशता का पर्दाफाश करती है, आपातकाल लगने पर जैसे दुष्यंत कुमार की गजले मुंहजुबानी गायी जाती थी ,जरूरत पड़ने पर ऐसा दोहराया जा सकता है। कविता में कवित्व महाप्राण अंग है, जो उसकी नींव है। हर आदमी हथियार लेकर युद्ध नही करता। सच्चा रचनाकार कालजयी होता है,
एक तुम्हारा होना
क्या से क्या कर देता है,
बेजुबान छत दीवारों को
घर कर देता है ।
ख़ाली शब्दों में
आता है
ऐसे अर्थ पिरोना
गीत बन गया-सा
लगता है
घर का कोना-कोना
एक तुम्हारा होना
सपनों को स्वर देता है ।
आरोहों-अवरोहों
से
समझाने लगती हैं
तुमसे जुड़ कर
चीज़ें भी
बतियाने लगती हैं
एक तुम्हारा होना
अपनापन भर देता है ।

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