क्या पत्रकार तो कोरोना प्रूफ हैं…? —- उमेश सिंह (पत्रकार )

क्या पत्रकार तो कोरोना प्रूफ हैं…? —- उमेश सिंह (पत्रकार )

क्या पत्रकार तो कोरोना प्रूफ हैं…? —- उमेश सिंह (पत्रकार ) लोकतंत्र को लोकतंत्र के रूप में स्थापित करने में जितना पत्रकार और पत्रकारिता का योगदान रहा है उतना शायद ही किसी अन्य भाग का रहा है क्योंकि पत्रकार ही ऐसा शख्स है जो कि सिस्टम में ना रहते हुए भी लोकतंत्र और समाज के

क्या पत्रकार तो कोरोना प्रूफ हैं…? —- उमेश सिंह (पत्रकार )

लोकतंत्र को लोकतंत्र के रूप में स्थापित करने में जितना पत्रकार और पत्रकारिता का योगदान रहा है उतना शायद ही किसी अन्य भाग का रहा है क्योंकि पत्रकार ही ऐसा शख्स है जो कि सिस्टम में ना रहते हुए भी लोकतंत्र और समाज के लिए लगातार कार्य करता रहता है। यह बात अलग है कि पत्रकारों के ऊपर बाजारू होने और बिकने के कई आरोप लगते रहे लेकिन ना तो उनके काम के लिए वेतन और ना ही उनके खरीदने के लिए कोई राशि समाज या सरकार द्वारा निर्धारित की गई उनके हाथों सिर्फ ताने ही लगते हैं और उनकी स्थिति दिहाड़ी मजदूरों से भी बुरी है। जबकि सच्चाई यह है कि पत्रकारिता पर कितने भी लांछन लगे हो पर राजनीति से पीछे ही रहे है।
वर्तमान परिदृश्य में जब सारी दुनिया अपने घर में दुपक कर अपने जान की खैर मना रही है तबं डॉक्टर, पुलिस और प्रशासन के अधिकारी समाज की सेवा में सड़क पर हैं जिन्हें सभी लोग देख रहे हैं और उनकी पीठ थपथपा रहे हैं वही इन सभी के साथ बराबर से खड़ा इन सबकी की चौकीदारी कर रहा एक पत्रकार और छायाकार जिसे देख तो सब रहे हैं लेकिन आज भी उसकी स्थिति सिर्फ नजर रखने वाले और भोकने वाले से ज्यादा कुछ खास नहीं है कोई भी उनके काम को दृष्टिगत करते नजर नहीं आता। समाज के बाकी सभी जिम्मेदार तबके तो कोरोना बीर हैं जबकि पत्रकार सिर्फ अपने जिम्मेदारी निभाने में लगे हुए हैं कई लोग तो यह कहते सुने जाते हैं कि समाजसेवी ही पत्रकार हो सकता है। अब यह समझ नहीं आता कि यह पत्रकारों के लिए सम्मानजनक है या उन्हें उनकी बेवकूफ बनाने का मंत्र। क्योंकि समाज सद्भाव रखने के बाद भी ना तो समाज और ना ही सरकारों ने पत्रकारों को एक और पेट वाला मानव माना बल्कि उसे महामानव के रूप में प्रतिष्ठित किया जिसे ना तो भूख लगती है और ना ही उसके परिवार होता है कोरोना काल में तो जैसे कोरोना ने चिल्ला के कह दिया हो कि पत्रकार तो कोरोना प्रूफ है।

दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर पत्रकार ।

दिहाड़ी मजदूरों के लिए सरकार ने एक न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की है उस मजदूरी के आधार पर उसे वेतन दिया जाता है यदि उससे कम वेतन मिले तो उसके लिए श्रम कानून के तहत सजा का भी प्रावधान है। लेकिन पत्रकारों के लिए एक वेतन आयोग बने होने के बाद भी आज तक कोई निर्णायक पहल नहीं की गई क्योंकि पत्रकार सबसे सजग प्राणी हैं वह अपने मजबूर और परेशान होने की बात नहीं कर सकता क्योंकि पत्रकार लोगों को दिनभर आईना दिखाता है उनसे हाथ किस प्रकार जोड़ सकता है। रही बात अखबार चलाने वाले मालिकों की तो वे स्वयं अखबार के घाटे से इतना परेशान रहते हैं उनके लिए पत्रकारों को सम्मानजनक देना मुश्किल है क्योंकि या तो अखबार मालिक किसी अन्य संसाधन के द्वारा अखबार को पोषित करें या तो अपने ऊपर बाजारू होने का ठप्पा लगाकर जीवन व्यतीत करें। हालांकि कमोवेश पत्रकार जगत की सबसे बड़ी गाली पत्रकारों को खानी ही पड़ती है क्योंकि किसी भी खबर के दो पहलू होते हैं जिसमें से एक किसी को अच्छा लगता है और किसी को दूसरा। जिससे उसके लिए वह गाली तो शाश्वत ही है चाहे गाली कोई भी दे।

कोरोना काल में जीवन संकट में -फिर भी लगे अपने कर्तव्य पर

लोगों का जीवन बचाने के लिए शासन, प्रशासन और पुलिस ,डॉक्टर, समाज के लिए अपना योगदान दे रहे हैं। उनके कदम से कदम मिलाकर चलने वाले पत्रकार और छोटे अखबार भी चल रहे हैं जिन्हें सरकारी मदद तो दूर उनके कार्य की पहचान करने की भी कोई व्यवस्था ना तो प्रशासन के पास और ना ही समाज के पास है। सभी पत्रकार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ऐसा कह लें कि अपनी दिहाड़ी के लिए संक्रमित स्थानों पर लगातार भटकते हैं और इस भटकन में जाने कब संक्रमित हो जाएं उन्हें खुद भी नहीं मालूम। उन्हें देने के लिए सर्व समाज और ना ही सरकार के पास किसी प्रकार की सुरक्षा सामग्री है यहां तक कि सैनिटाइजर मास्क और ग्लव्स भी किसी ने उपलब्ध नहीं कराए। पत्रकारों ने अपनी दिहाड़ी में से ही अपने जान की थोड़ी बहुत व्यवस्था की है।

पत्रकारो, छायाकारो के साथ कोई ट्रेजडी हो जाये तो धेले की घोषणा नही ।

सरकार ने जहां सभी शासकीय अशासकीय संस्थानों को पूर्ण वेतन देने के लिए आदेश जारी किए हैं वही कोरोना बीर कहे जाने वाले डॉक्टर पुलिस अधिकारियों और अब प्रशासनिक अधिकारियों को भी 50 लाख का बीमा सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है लेकिन इन सब सूचनाओं को संकलित कर समाज और सरकार तक पहुंचाए जाने का कार्य कर रहे क्रांति वीर भी कोरोना वीरों की तरह ही कार्य कर रहे हैं लेकिन सरकार ने अपी जान जोखिम में डाल कर जगह- जगह जाकर कमियों सामने लाने वाले पत्रकारो और छायाकारों को कोई ट्रेजडी होने पर एक धेले की घोषण नहीे की गई है सिवाय उन्हें हर कहीं जाने की केवल छूट प्रदान की गई है। वे बेचारे तो यही अधिकार पाकर खुश हो रहे हैं।

जन – जन तक खबर पहुचाने का कार्य करता है पत्रकार ।

यह वही प्रेस और मीडिया है जिसमे अपना दर्द बयां करने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत आधी रात में प्रेस वार्ता बुला कर अपनी व्यथा सुनाई थी लेकिन उसी अदालत में जब न्याय के लिए पत्रकार जाता है तो अदालतों का व्यवहार बदल जाता है। शासन और प्रशासन तो पहले से ही प्रेस की गिद्ध निगाह से बचने के लिए परेशान रहता है। समाज के कई तबके जो इस विधा और समाज के संरक्षक सिपाहियों को मदद करने की हैसियत रखता है वह भी या तो आप पत्रकार नाम के प्राणी पर दबाव रखना चाहते हैं या उसे अपने रंग में रंगना चाहते हैं। कुल मिलाकर पत्रकारों के लिए भारतीय व्यवस्था में किसी भी प्रकार का संरक्षण समाज या सरकारों द्वारा नहीं है वह पूर्ण रूप से ऐसा महामानव है जो वास्तविक तौर पर न केवल अपने विचारों के लिए बल्कि अपने पेट और परिवार के लिए भी स्वायत्त है। इतनी बुरी स्थितियों में होने के बाद भी क्यों नई पीढ़ी पत्रकारिता के क्षेत्र पर आना चाहती है तो यह देखने में आया कि पत्रकार बनने की चाह सिर्फ तीन प्रकार के लोगों में होती है एक वह लोग जो वास्तविक पत्रकारिता और समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं दूसरे वे लोग जो उसकी चमक-दमक और दबदबा देखकर अपने आप को संतुष्टि करना चाहते हैं और तीसरे वे लोग जो उसे बेचने या अपनी सल्तनत को बरकरार रखना चाहते हैं। अखबार का बाजारीकरण होना गलत नहीं है लेकिन अखबार वालों का बाजारू होना समाज और प्रजातंत्र दोनों के लिए खतरनाक है। इसलिए यह चाहिए कि पत्रकारों को महामानव ना मानते हुए सिर्फ उन्हें मानव माना जाए और उन्हें पोषित करने के लिए एक निर्धारित वेतन के साथ ही जीवित रखने के लिए एक ऐसी स्वायत्त संस्था बनाई जाए जो इस बाजारीकरण के दौर पर बाजार के साथ कदम से कदम मिलाकर तो चल सके लेकिन बाजारू होंने का आरोप लगने से बच सकें।

Tags:

About The Author

Post Comment

Comment List

आपका शहर

अंतर्राष्ट्रीय

Online Channel