वैश्विक संदर्भ में राष्ट्रवाद बनाम धार्मिक कट्टरता

 विचार विमर्श आवश्यक। राष्ट्र के निर्माण और वैश्विक एकीकरण के संदर्भ में नागरिकों की निष्ठा, समर्पण और संवेदनशीलता अनिवार्य है।

वैश्विक संदर्भ में राष्ट्रवाद बनाम धार्मिक कट्टरता

 
 
वास्तविक राष्ट्रवाद के संदर्भ में धार्मिक कट्टरता राष्ट्रवाद किसी भी राष्ट्र की आत्मा होता है और वैश्विक संदर्भ में राष्ट्रवाद बनाम धार्मिक कट्टरता पर बौद्धिक विमर्श की परम आवश्यकता है l यह केवल राजनीतिक नारा या भीड़ संचालित भाव नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का वह केंद्र है जो देश की एकता, अखंडता और गरिमा को अभिव्यक्त करता है। यह वह सार्वभौमिक सत्य है, जिसने युगों से सभ्यताओं को स्थायित्व दिया और समाजों को अनुशासन एवं उद्देश्य की दिशा में अग्रसर किया। किंतु जब यही राष्ट्रवाद धार्मिक कट्टरता, संकीर्ण विचारधारा अथवा अवसरवादी राजनीति के मोहपाश में बंध जाता है, तब वह अपनी दिव्यता खो बैठता है।
 
राष्ट्र के निर्माण और वैश्विक एकीकरण के संदर्भ में नागरिकों की निष्ठा, समर्पण और संवेदनशीलता अनिवार्य है। परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि सत्ता-लोलुप राजनीतिक दल राष्ट्रवाद को धर्म, जाति या संप्रदाय से जोड़कर इसे सत्ता प्राप्ति का अस्त्र बना लें। ऐसा करने से न केवल राष्ट्रीय भावना आहत होती है, बल्कि सामाजिक ताने-बाने में विभाजन और अविश्वास की दीवारें खड़ी हो जाती हैं। इतिहास साक्षी है कि जब-जब सत्ता पर बने रहने की अंधी चाह बढ़ी है, तब-तब साम्राज्यों की जड़ें खोखली हुई हैं। वर्तमान भारतीय राजनीति भी इस प्रपंच से मुक्त नहीं — जहां राष्ट्रवाद कई बार धर्म का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया जाता है, ताकि भावनात्मक उन्माद के सहारे सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ी जा सकें।
 
              लोकतंत्र में सत्ता का परिवर्तनशील रहना ही उसकी प्राणवायु है। निरंतर सत्ता एक व्यक्ति या दल को अधिनायकवादी बनाकर लोकतांत्रिक संस्थाओं की जड़ों को कमजोर कर देती है। अवसरवादी राजनीति, जातिगत समीकरणों की गणना, और तुष्टीकरण की नीति ये सब मिलकर जनकल्याण की मूल भावना को धूमिल करते हैं। जनता के दीर्घकालिक हितों के स्थान पर तात्कालिक लाभों की घोषणाएँ लोकतंत्र को सस्ती लोकप्रियता की ओर ढकेल देती हैं। इससे न केवल राष्ट्रीय चरित्र का ह्रास होता है, बल्कि सामाजिक अनुशासन भी दरकने लगता है।
 
राजनीति में पदलोलुपता, अवसरवाद और जातिवादी समीकरणों की राजनीति लोकतांत्रिक आदर्शों को विकृत करती जा रही है। संविधान में निहित समानता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांत जब तुष्टीकरण की नीति से प्रभावित होते हैं, तब लोकतंत्र का स्वरूप विकृत होकर सामंतवादी प्रवृत्तियों को जन्म देता है। जातिवादी मतदान, अवतारवाद और निरंकुश सत्ता की चाह,ये सब लोकतंत्र के भीतर अधिनायकवाद के बीज बोने वाले तत्व हैं।भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद संतुलन, समरसता और विचारशीलता पर टिकी है। किंतु जब धर्म को राजनीतिक औज़ार बना दिया जाता है, तब न केवल आस्था का अपमान होता है बल्कि नागरिकता की समानता पर भी गहरी चोट पहुँचती है। पशु व्यापार पर एकतरफा प्रतिबंध, सांप्रदायिक नीतियों के संरक्षण या धार्मिक प्रतीकों के राजनीतिक प्रयोग ये सभी लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर प्रश्नचिह्न बन जाते हैं।
 
       आज के वैश्विक संदर्भ में देखा जाए तो राष्ट्रवाद और धार्मिक कट्टरता के बीच की रेखा अत्यंत सूक्ष्म हो चली है। बीसवीं सदी के जर्मनी, इटली, म्यांमार या पाकिस्तान के उदाहरण हमें बताते हैं कि जब राष्ट्रवाद सैनिक या संप्रदायिक रूप ले लेता है, तो वह फासीवाद या सैन्य तानाशाही का पूर्वरूप बन जाता है। भारत जैसे प्राचीन सांस्कृतिक राष्ट्र के लिए यह और भी चिंताजनक है, क्योंकि यहाँ लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का हिस्सा है।
 
लोकतंत्र का मर्म जनता के विचारों की स्वतंत्रता और उनकी विवेकशीलता में निहित है। जब राजनीतिक दल शासकीय संसाधनों का दुरुपयोग कर सस्ती लोकप्रियता के लिए उपहारों, योजनाओं और प्रलोभनों की बाढ़ लाते हैं, तब यह नैतिक पतन का संकेत है। इससे जनता की कर प्रणाली पर बोझ तो बढ़ता ही है, साथ ही वास्तविक जनहितकारी योजनाओं का प्रवाह भी बाधित होता है। 
 
ऐसे संक्रमणकाल में देश के प्रबुद्ध वर्ग विद्वान, चिंतक, शिक्षक, मीडिया कर्मी और सामाजिक संस्थाएँ सभी को सजग होकर आगे आना होगा। लोकतंत्र की असल शक्ति सत्ता में नहीं, बल्कि नागरिक चेतना में निहित है। यदि विचारशीलता, तर्कशीलता और संतुलन नहीं रहेगा, तो राष्ट्रवाद भी कट्टरता में परिवर्तित हो जाएगा और लोकतंत्र अपनी आत्मा खो देगा।
इसलिए आज आवश्यकता है — राष्ट्रवाद को धार्मिक या राजनीतिक संकीर्णता से मुक्त कर बौद्धिक संतुलन के पथ पर ले जाने की। क्योंकि सच्चा राष्ट्रवाद न मंदिर में है, न संसद में, वह उस विचार में है, जो हर नागरिक को समान अधिकार, समान अवसर और समान सम्मान देता है। जब हम इस विचार को जीना सीख लेंगे, तभी राष्ट्र वास्तव में शक्तिशाली, संवेदनशील और आत्मनिर्भर बन सकेगा। 
 
संजीव ठाकुर, चिंतक

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