कविता-कब तक रहोगे हमेशा बेखबर से।

कविता-कब तक रहोगे हमेशा बेखबर से।

संजीव-नी। 
 
कब तक रहोगे हमेशा बेखबर से। 
 
यहां गिरा हर कोई शाखे सिफर से
मैं वाकिफ हूं गुमनामी के कहर से। 
 
मोहब्बत का इजहार जोर से कीजै
ये इशारा किया है किसी ने उधर से। 
 
मिला जब न दीदार का कोई रास्ता
मैं मायूस होकर लौटा तेरे शहर से । 
 
मेरे हर रास्ते में मोहब्बत है यारों
हिमायत मैं चाहूंगा सारे बशर से।
बशर- व्यक्ति,हिमायत-तरफदारी, 
 
तुम कभी खुदकी हालत भी देखो
कब तक रहोगे हमेशा बेखबर से। 
 
फकीरी रास आ गई मुझ में संजीव
शायद हुआ तेरी सोहबते-असर से। 
 
संजीव ठाकुर,

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