शिक्षा का संकट: नींव को बचाने की जंग
जब शिक्षक गायब, तो ज्ञान का दीपक कौन जलाएगा?
कल्पना करें—एक बच्चा सुबह-सुबह स्कूल की ओर चल पड़ता है, कंधे पर बस्ता, मन में सपने और आँखों में चमक। लेकिन स्कूल पहुँचते ही उसका दिल टूट जाता है—दरवाजे पर ताला, शिक्षक गायब, और चारों ओर सन्नाटा। यह कोई कहानी नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश के उमरिया जिले की हकीकत है, जो हाल ही में कलेक्टर के औचक निरीक्षण में सामने आई। शिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ होती है, लेकिन जब यह रीढ़ लापरवाही की मार से कमजोर पड़ने लगे, तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? उमरिया की यह घटना सिर्फ एक जिले का दर्द नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र के लिए एक जोरदार चेतावनी है।
मध्यप्रदेश में सरकारी स्कूलों को चमकाने के लिए सरकार ने ढेरों योजनाएँ शुरू कीं—नई इमारतें, मुफ्त किताबें, मिड-डे मील। लेकिन जब जमीनी हकीकत सामने आती है, तो सारा ढाँचा खोखला नजर आता है। शिक्षक समय पर नहीं आते, स्कूल प्रबंधन सोया रहता है, और शिक्षा विभाग की निगरानी बस कागजों तक सीमित है। प्रवेश उत्सव जैसे आयोजन, जो बच्चों को स्कूल से जोड़ने के लिए होते हैं, महज औपचारिकता बनकर रह जाते हैं। नतीजा सामने है—बच्चों की उपस्थिति गिर रही है, ड्रॉपआउट की दर बढ़ रही है, और शिक्षा की गुणवत्ता धूल चाट रही है। योजनाएँ तो हैं, पर जब तक शिक्षकों और प्रशासन की जवाबदेही तय नहीं होगी, ये सब बेकार हैं।
एक पल को रुकें और सोचें—वह बच्चा जो स्कूल के लिए मीलों पैदल चलता है, धूप-धूल में अपने सपनों को सींचता है, उसे क्या मिलता है? एक खाली कक्षा, एक अनुपस्थित शिक्षक और टूटती उम्मीदें। मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों पर ज्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे निर्भर हैं। उनके लिए स्कूल सिर्फ पढ़ाई की जगह नहीं, बल्कि जिंदगी बदलने का एकमात्र रास्ता है। लेकिन जब शिक्षक ही अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लें, तो ये बच्चे कहाँ जाएँ? यह सिर्फ शिक्षा का संकट नहीं, बल्कि लाखों मासूमों के भविष्य पर लगा ग्रहण है। हर गायब शिक्षक के साथ एक बच्चे का सपना मरता है—क्या हम इसे यूँ ही देखते रहेंगे?
अगर मध्यप्रदेश की शिक्षा को बचाना है, तो अब नरमी नहीं, सख्ती चाहिए। उमरिया में हुई कार्रवाई इसकी मिसाल है—जब कड़ा कदम उठाया गया, तो संदेश साफ गया कि लापरवाही अब बर्दाश्त नहीं होगी। लेकिन यह काफी नहीं है। हर जिले में नियमित औचक निरीक्षण होने चाहिए। डिजिटल मॉनिटरिंग जैसे बायोमेट्रिक सिस्टम से शिक्षकों की उपस्थिति पर नजर रखी जा सकती है। स्कूलों में बुनियादी सुविधाएँ—साफ पानी, शौचालय, बिजली—को अनिवार्य करना होगा। साथ ही, शिक्षकों को न सिर्फ सजा, बल्कि बेहतर प्रशिक्षण और प्रोत्साहन भी देना होगा, ताकि वे ड्यूटी को बोझ नहीं, बल्कि जुनून समझें। यह सिर्फ नियम लागू करने की बात नहीं, बल्कि बच्चों के भविष्य को प्राथमिकता देने का वादा है।
उमरिया की यह कार्रवाई एक चिंगारी है, जो पूरे प्रदेश में बदलाव की आग जला सकती है। अगर हर जिले में ऐसी सख्ती और पारदर्शिता आए, तो सरकारी स्कूल फिर से ज्ञान के मंदिर बन सकते हैं। यह सिर्फ प्रशासन का काम नहीं, बल्कि समाज की साझा जिम्मेदारी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी बच्चा स्कूल से खाली हाथ न लौटे। उमरिया ने एक मॉडल पेश किया है—अब इसे पूरे मध्यप्रदेश में लागू करने का वक्त है। जब हर स्कूल में शिक्षक मौजूद हों, हर कक्षा में ज्ञान की रोशनी हो, तभी हम कह सकेंगे कि हमने अपनी नींव बचा ली।
शिक्षा महज किताबों के पन्ने पलटना नहीं, बल्कि हर बच्चे के मन में छिपे सपनों को पंख देना है—उन सपनों को, जो आसमान छूने की हिम्मत रखते हैं। उमरिया की घटना ने हमें नींद से झटका देकर जगाया है—अब आँखें मूँदे रहने का वक्त नहीं, बल्कि उठ खड़े होने का समय है। सख्त अनुशासन की डोर, निगरानी का मजबूत जाल और बच्चों को दिल से प्राथमिकता देकर उठाया गया हर कदम ही इस डूबते तंत्र को बचा सकता है। आइए, आज एक पक्का इरादा करें—हर बच्चे को वह शिक्षा दें, जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, जो उसके सपनों को हकीकत में बदल सके। क्योंकि जब शिक्षा का किला अडिग होगा, तभी मध्यप्रदेश का भविष्य सुनहरे सूरज सा दमकेगा। यह एक जुनून भरी पुकार है—शिक्षा को जिंदा रखें, बच्चों के सपनों को उड़ने दें।

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