हिंदी विरोध को बनाना चाहते हैं सत्ता बचाने का हथियार
राज्य सरकार हिंदी को लागू करने की अनुमति नहीं देगी और तमिल भाषा और संस्कृति की रक्षा करेगी। डीएमके सरकार का दावा है
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मनोज कुमार अग्रवाल
देश में नई शिक्षा नीति और त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर तमिलनाडु के नेता जिस प्रकार का बयान दे रहे हैं, वह सिर्फ भड़काऊ होने के साथ ही राजनीतिक स्वार्थ से ओत-प्रोत है। भाषा को लेकर संकीर्ण सोच से ऊपर उठने के बजाय राज्य के नेता इस मुद्दे पर राजनीति चमकाने में जुटे हैं, इसके पीछे उनका सिर्फ एक ही मकसद है वोट बैंक की राजनीति। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने इस विवाद को बड़ा फलक देते हुए यहां तक कह दिया है कि तमिलनाडु 'एक और भाषा युद्ध' के लिए तैयार है। उनके अनुसार केंद्र अगर तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति लागू करता है, तो उसे 2000 करोड़ रुपये मिलेंगे। लेकिन 2000 करोड़ क्या अगर केंद्र 10000 करोड़ रुपये भी देती है, तो हम नई शिक्षा नीति नहीं लागू करेंगे।
राज्य सरकार हिंदी को लागू करने की अनुमति नहीं देगी और तमिल भाषा और संस्कृति की रक्षा करेगी। डीएमके सरकार का दावा है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत तीन-भाषा फॉर्मूले के जरिए हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है। साथ ही स्टालिन ने आरोप लगाया कि 25 से अधिक उत्तर भारतीय भाषाओं को हिंदी और संस्कृत के प्रभुत्व के कारण नुकसान हुआ है। उनका दावा है कि यदि तमिलनाडु तीन-भाषा नीति को स्वीकार कर लेता है, तो तमिल को नजरअंदाज कर दिया जाएगा और भविष्य में संस्कृत का दबदबा रहेगा। हालांकि, केंद्र सरकार ने इन आरोपों को खारिज किया है। सीएम स्टालिन ने अपने पत्र में कहा कि बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मैथिली, ब्रजभाषा, बुंदेलखंडी और अवधी जैसी भाषाओं को हिंदी के प्रभुत्व ने खत्म कर दिया है। केंद्र का कहना है कि एनईपी के जरिये किसी राज्य पर कोई भाषा नहीं थोपी जा रही है। किसी भी राज्य या समुदाय पर कोई भी भाषा थोपने का सवाल ही नहीं उठता।
एनईपी 2020 भाषायी स्वतंत्रता के सिद्धांत को कायम रखता है और यह सुनिशित करता है कि छात्र अपनी पसंद की भाषा में सीखना जारी रखें। भाषा को लेकर संकीर्ण सोच से ऊपर उठने के बजाय राज्य के नेता इस मुद्दे पर राजनीति चमकाने में जुटे हैं। तमिलनाडु में हिंदी विरोध का लंबा इतिहास है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने दक्षिण भारत में वर्ष 1918 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की थी। वे हिंदी को भारतीयों को एकजुट करने वाली भाषा मानते थे। तब ही तमिलनाडु में हिंदी विरोध शुरू हो गया था। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में तमिलनाडु को मद्रास प्रेसिडेंसी कहा जाता था। तब 1937 में सी. राजगोपालाचारी की सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य किया, तो तमिलनाडु में इसके खिलाफ तीन साल तक आंदोलन चला।
फैसला वापस लेने पर आंदोलन तो खत्म हो गया, पर इसने राज्य में हिंदी विरोध के जो बीज बोए थे, वे जब-तब अंकुरित होने लगते हैं। क्षेत्रीय पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए इन्हें खाद-पानी मुहैया कराती रहती हैं। तमिलनाडु के स्कूलों में 1967 से दो-भाषा फॉर्मूले (तमिल और अंग्रेजी) का पालन किया जा रहा है। त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत हिंदी वहां क्षेत्रीय पार्टियों के लिए आंख की किरकिरी बनी हुई है। शिक्षा प्रणाली को आधुनिक बनाने के इस नीति के मकसद के बावजूद ये पार्टियां पुराना राग नहीं छोड़ना चाहतीं। द्रमुक की मौजूदा सरकार पर केंद्र की यह चेतावनी भी बेअसर रही कि जब तक तमिलनाडु एनईपी को पूरी तरह लागू नहीं करेगा, उसे समग्र शिक्षा निधि की 2952 करोड़ रुपए की राशि जारी नहीं की जाएगी।
तमिलनाडु सरकार हिंदी के पठन-पाठन के दरवाजे इसलिए बंद रखना चाहती है, क्योंकि उसे लगता है कि एक बार दरवाजे खुले तो राजनीति का रंग-रोगन बदल जाएगा। नई शिक्षा नीति हिंदी थोपने के बजाय विद्यार्थियों को एक अतिरिक्त भाषा सीखने का अवसर दे रही है। हकिकत यह है कि नई शिक्षा नीति में हमने क्षेत्रीय भाषाओं को महत्व दिया है। यह हर क्षेत्रीय भाषा के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। नई शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के उपयोग की सिफारिश को लागू किया गया है। इसमें मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा का विकल्प भी दिया गया है। भाषा नीति का मूल आधार त्रिभाषा फार्मूला है, जिसके अनुसार स्कूली विद्यार्थियों को तीन भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
इसके साथ ही तमिल, तेलगू, कनड़, फारसी, संस्कृत और शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन पर जोर दिया गया है। शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की वकालत करने वाला तबका जिसमें देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह फैले अंग्रेजी माध्यम के स्कूल भी हैं, शिक्षा नीति के उस प्रावधान का विरोध करता नजर आया, जिसमें प्राथमिक शिक्षा के लिए पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा में कराने की बात कही गई है। दुनिया भर के शिक्षाविद यह मानते हैं कि बच्चे का सर्वाधिक प्रारंभिक विकास और सौखने की प्रवृत्ति उसी भाषा में बढ़ती है, जो उसके घर में बोली जाने वाली भाषा होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी मानना था कि मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती, उनके अनुसार 'गाय का दूध भी मां का दूध नहीं हो सकता।'
केंद्र सरकार भी मातृ भाषा को ज्यादा महत्व दे रही है, मगर जिस प्रकार से हिंदी का विरोध किया जा रहा है, वह अनावश्यक है। ये हकीकत है कि तमिलनाडु की राजनीति हिंदी विरोध के आसपास घूमती रहती थी है। ये बहुत ही सस्ता और इंस्टैंट रिफ्रेशिंग पॉलिटिक्स है। मगर, दूसरे समाज की तरह तमिलनाडु के नौजवानों के लिए भाषा से ज्यादा जरूरत रोजी-रोजगार की है। शायद सत्ताधारी पार्टी के पास उसे लेकर कोई मजबूत ब्लूप्रिंट नहीं है। लिहाजा, भावनात्मक मुद्दों के सहारे 2026 का चुनाव साधने की कोशिशों में जुटी है। सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देकर ही हम देश की सांस्कृतिक एकता मजबूत कर सकते हैं। हिंदी बोलने वाले लोग देश के हर कोने में मिल जाते हैं। कोई राज्य अगर अपनी मातृभाषा को महत्व देता है, तो उसकी भावना का सम्मान किया जाना चाहिए।
मगर किसी राज्य विशेष का नागरिक दूसरे राज्यों में जाता है, तो हिंदी के बिना उसका काम नहीं चलता। भाषाएं तो एक दूसरे से जुड़ कर ही आगे बढ़ती हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले को लेकर चल रही सियासी बयानबाजी के बीच स्टालिन का विरोध नाहक ही है कि हिंदी से उनकी मातृभाषा नष्ट हो सकती है। दरअसल, उन्होंने अपने स्वर तीखे करते हुए साफ कर दिया है कि वे उन्हीं पुराने आंदोलनों के वशंज है, जिसमें हिंदी को लेकर उपेक्षा का गहरा भाव है।
स्टालिन यह भूल गए हैं कि हिंदी दिलों को जोड़ने की भाषा है। यह आज भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में समझी और बोली जाती है। इसलिए इस मुद्दे पर राजनीति की बजाय गंभीरता से विचार होना जरूरी है। क्योंकि यह मसला राजनीति से बहुत बड़ा है। आखिरकार यहां सवाल हमारे भविष्य का है, हमारी अगली पीढ़ी का है। और सवाल व्यक्तिगत पसंद नापसंद का भी है। बच्चों को भाषा चुनने की आजादी मिलनी चाहिए। लेकिन हमारे राजनीतिक लोगों को रोटी सेकने के लिए मुद्दे की तलाश रहती है फिर चाहे राष्ट्रभाषा हिंदी का विरोध करना ही क्यों न हो।
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