मजबूत नेताओं से कमजोर होता विपक्ष 

मजबूत नेताओं से कमजोर होता विपक्ष 

किसी भी दल व संगठन की मजबूती के लिए उसके नेतृत्व का मजबूत होना जरूरी है। यहां हम विपक्ष की बात कर रहे हैं जो मजबूत घटक दलों के होने के बाद भी कमजोर नजर आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में जो एनडीए का गठबंधन है उसमें भाजपा बहुत ही मजबूत दल है और उसके सहयोगी दल छोटे हैं लेकिन जब उन छोटे दलों को भाजपा का साथ मिलता है तो वह मजबूत बन जाते हैं।
 
वहीं यदि हम देश के विपक्ष को देखें तो इसमें सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस पार्टी है लेकिन उसके साथ जो सहयोगी दल हैं वो अपने क्षेत्र में मजबूत हैं और यही कारण है कि वह न तो किसी से झुकना पसंद करते हैं और न ही किसी का आगे बढ़ना पसंद करते हैं और यहां बात उठती है विपक्षी संगठन के नेतृत्व की इसमें न तो कांग्रेस पीछे रहना चाहती और न ही अन्य दल।
 
कांग्रेस चाहती है कि जिन क्षेत्रों में वह कमजोर है वहां सहयोगियों के द्वारा उसे बढ़ने का मौका मिले जब कि अन्य क्षेत्रीय दल चाहते हैं कि उन्हें अपने क्षेत्र से बाहर निकल कर अन्य राज्यों में बढ़ने का मौका मिले। बस इसी खींचतान में विपक्ष चुनाव दर चुनाव पीछे होता जा रहा है। कांग्रेस का जनाधार हिंदीभाषी राज्यों से लगभग खिसक चुका है।
 
यदि हम बात करें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड की तो यहां कांग्रेस बैशाखियों पर निर्भर है। जब कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी ने उसको बहुत पीछे कर दिया है। कुल मिलाकर विपक्ष में सब अपना अपना हित साधने में लगे हैं लेकिन किसी भी हित होता नहीं दिख रहा है। यहीं यदि थोड़ा सा विचार परिवर्तन हो जिसमें सब एक दूसरे का हित साधते दिखें तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।
 
कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए वीपी सिंह के नेतृत्व में जब जनता दल बना था तब उसका केवल एक उद्देश्य था और वह था कांग्रेस को सत्ता से दूर करना। इसके अलावा किसी नेता या किसी क्षेत्रीय दल का कोई दूसरा उद्देश्य नहीं था। जनता दल में अपने अपने क्षेत्र के सभी कद्दावर नेता थे जो किसी पहचान के मोहताज नहीं थे।
 
सभी ने मेहनत थी किसी को नहीं पता था कि कौन क्या बनेगा, किसका क्या भविष्य होगा। और जब परिणाम सामने आया तो कांग्रेस के पसीने छूट गए। जनता दल से कांग्रेस को पूरे देश में चारों खाने चित कर दिया। जब कांग्रेस सरकार से हट गई और जनता दल को जब सरकार बनाने का मौका मिला उसके बाद तय हुआ कि कौन क्या पद सम्हालेगा। लेकिन आज की विपक्ष की स्थिति अलग है कोई भी किसी को बढ़ना नहीं देखना चाहता।
 
विपक्षी खेमे में चाहे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी हो, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल हो, बंगाल में ममता बनर्जी हों या महाराष्ट्र में एनसीपी, शिवसेना उद्धव गुट का गठबंधन हो या दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी हो सभी अपने क्षेत्र के भारी भरकम दल हैं। और ये ऐसे राजनैतिक दल बन चुके हैं जो कम कीमत पर कांग्रेस से समझौता नहीं कर सकते जब कि कांग्रेस अकेले कुछ भी नहीं कर सकती। दिल्ली का चुनाव देखने के बाद तो स्थिति यह बन चुकी है कि विपक्ष भारतीय जनता पार्टी से नहीं अपने आप से ही लड़ रहा है।
 
किसी को किसी पर विश्वास नहीं है। सब केवल अपनी पार्टी का विस्तार करना चाहते हैं। सरकार बने न बने पार्टी रुपी दुकान तो चल ही रही है। केजरीवाल पूरे देश में राजनीति करना चाहते हैं। समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में विस्तार करना चाहती है।
 
 दिल्ली के मतदाताओं ने इस चुनाव में जो निर्णय दिया है उसमें एक बहुत गहरी सोच छिपी है। लेकिन शायद इस सोच को राजनैतिक दल न समझ सकें। केजरीवाल सत्ता से दूर क्यों हुए ? इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन प्रमुख कारण है कि आप जनता को बेवकूफ समझना बंद कीजिए। आप पूरे देश में कांग्रेस से गठबंधन कर रहे हैं और जब दिल्ली और पंजाब की बात आती है तो आप अकेले चुनाव में चले जाते हैं। यह क्या संदेश देता है, क्या जनता आपके मतलब को नहीं समझ पायेगी। गठबंधन करना है तो पूरी तरह से कीजिए अन्यथा गठबंधन का नाटक बंद कीजिए।
 
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सर्वाधिक सीट सौंपी और वहीं उपचुनाव में जनता ने सब कुछ भारतीय जनता पार्टी को दे दिया। ऐसा क्यों इसके उत्तर भी समाजवादी पार्टी को खोजने होंगे। एक अयोध्या की जीत को आप देश की जीत नहीं मान सकते। किसी क्षेत्र में मिली जीत वहां का एक स्थानीय कारण भी हो सकता है।

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