गाँधी के शिक्षा में श्रम का सच

गाँधी के शिक्षा में श्रम का सच

यह एक स्थापित सत्य है कि वास्तविक सीखना क्रिया करने से ही संभव है | क्रिया करने में हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ माध्यम बनती है | ये ज्ञानेन्द्रिया ही बाहरी दुनिया के साथ - साथ हमारी आंतरिक शक्तियों को पहचानने में मदद करती है| गीता में भी ज्ञान, भक्ति एवं सन्यास की बाते कर्म के दाए बाए रखी गयी है | ज्ञान अनुभूति से होता है, और अनुभूति कर्म से निकलती है| इस उदाहारण से समझा जा सकता है, हम और आप दोनों किसी नदी के किनारे खड़े होकर कुछ वर्षों तक एक तैराक को तैरते हुए देखे, देखने से जो तैरने ज्ञान होगा, उस ज्ञान को लेकर हम दोनों नदी में कूद पडे|
 
मृत्यु के सिवाय दूसरा कोई फल नहीं निकलेगा| वस्तुतः वर्तमान शिक्षा का कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है | आज का विद्यार्थी कमरें में बैठकर मस्तिष्क और इन्द्रियों का बिना सहयोग लिए ग्रंथों की लिखावटो को याद करने में जीवन का बड़ा भाग खपा दे रहा है | यह अजीब बिडम्बना है कि भूगोल पढ़ते है परन्तु गाँव की आबादी नहीं मालूम, इतिहास की घटनाए याद है पितामह के पिता का नाम नहीं याद है | गौतम महावीर की कहानियाँ पढ़ते है परन्तु उन कहानियों का मूल्य विद्यालय के कुछ अंकों से आँका जाता है, चरित्र विकास से नहीं |
 
गणित के कठिन प्रश्नों के हल मालूम है, परन्तु अपने परिवार का हिसाब नहीं | समाज शास्त्र के विद्वान है पर स्टेशन पर टिकट लेते समय धक्का देना और धक्का खाना कर्तव्य में शुमार है | स्वास्थ्य का अच्छा  ज्ञान है पर कही भी थूक देना दिनचर्या की बात है | एक शिक्षाशास्त्री के तौर पर गाँधी जी जब सोचते है तो इन सारी चीजों के मूल में एक मौलिक प्रश्न खड़ा होता है | जो शिक्षा प्रणाली जीवन की समस्याओं और आवश्यकताओं के समाधान के लिए मनुष्य को नहीं तैयार करती है, वह शिक्षा प्रणाली मनुष्य को गूंगा और पंगु बनाती है |
 
वस्तुतः कार्य विहीन ज्ञान का भयानक दुष्परिणाम यही है | गाँधी जी का मानना था कि जीवन में सीखने को श्रम से अलग नहीं माना जा सकता है, दोनों ही जीवन को सम्पूर्ण बनाने के लिए अत्यंत आवश्यक है | श्रम से ही विद्यार्थी का शेष दुनिया से रिश्ता जुड़ता है, उस रिश्ते से विद्यार्थी में एक विश्वास , हुनर, और सृजनात्मकता विकसित होती है | श्रम न तो बच्चों का बचपन छीनता है और न ही उन्हें सीखने से वंचित रखता है | बच्चा तो अपने वातावरण में इन्द्रियों के मदद से स्वाभाविक रूप से सीखता है |
 
जब इन्सान किसी सामग्री का उपयोग करते हुए कोई उसे आकर प्रदान करके जीवन उपयोगी बनाता है, तो उसकी भूमिका एक सृजक की बन जाती है और वह स्वालंबी बनने की राह पर अग्रसर हो जाता है | राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भाग एक बिंदु 4.26 में यह कहती है कि कक्षा 6 से ८ तक पढ़ने के दौरान सभी विद्यार्थी एक दस दिन बस्ता रहित पीरियड भाग लेंगे|
 
जब वे स्थानीय व्यवसायिक विशेषज्ञों जैसे बढई , माली , कुम्हार, कलाकार, आदि के साथ प्रशिक्षु के रूप में काम करेंगे | अर्थात यह गुरुकुल से लेकर आज भी अनवरत चली आ रही है, भले ही आंशिक रूप में | कुम्हारी, कृषि, पशुपालन, सुथारी, लोहारी, बढईगिरी आदि जिन्हें प्रकृति के पाठशाला में सीखकर हजारों हजार पीढ़ियों ने इंसान के लिए सीखने के अवसरों के साथ ही उसके जीवन निर्वाह का आधार बनाया है , इससे दूर रखना बच्चों को उचित नहीं है | बच्चे के अंतर्दृष्टि का विकास अनुभव करने या प्रायोगिक प्रक्रियाओं से संभव है |
 
इन उदाहरणों  का यह अर्थ कदापि न लगाया जाय कि नवीन ज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी को नहीं सीखना | यदि बच्चा दीवाल में कील ठोकता है , आकृति बनाता है तो यह बात प्रौद्योगिकी सीखने की शुरुवात है | परन्तु श्रम के महत्त्व को नकार कर आज आधुनिक दुनिया में नकारात्मक व्यवहार के कई तरीके परोसे जा रहे है | उनमे टी वी, वीडियों गेम, इन्टरनेट के खेल व अन्य बेजान मनोरंजन के माध्यम जिनका वास्तविक जीवन में कोई लेना देना नहीं है | इन्ही माध्यमों से हमें बताया जाता है की श्रम कार्य बोझिल एवं थकान पैदा करने वाला है | जब विद्यार्थी श्रम के माध्यम से सीखता है | तब उसमें एक आत्मिक सुख प्राप्त होता है |
 
इसमें सहज रूप से समुदाय के लोगों व उनके कार्यों के प्रति आदर प्रेम सहयोग के भाव पैदा होते है | आज जरुरत है सभी संस्थाए इस दिशा में मिलकर कार्य करे , एक लक्ष्य तय करें, हाथ से कार्य करने की महत्ता को न कभी नकारा गया है न भविष्य में नकारे जाने की संभावना कही दिखाई पड़ती है |
 
ऐसे में हमें चाहिए की शिक्षा को कार्य से अलग करके नहीं देखे| शिक्षा में सार्थक श्रम का समावेश हो | गाँधी कहते है कि कोई व्यक्ति देश की कितनी सेवा कर सकता है सामजिक स्थिति पर नहीं बल्कि मानसिक एवं शारीरिक सामर्थ पर निर्भर रहता है | सम्पत्ति वह नहीं जो हम भोगते है , बल्कि वह है जो हम पैदा करते है | यही संवेदनशीलता हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है, तभी एक जिम्मेदार, कर्मठ, गतिशील और सृजनकर्ता का उदय होता है |  

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