गरीब आधारित विकास

गरीब आधारित विकास

गांव और गरीब आधारित स्वदेशी अर्थव्यवस्था का मॉडल ही भारत के आर्थिक विकास के लिए अंतिम विकल्प है. डॉ कौशलेंद्र विक्रम मिश्र एसोसिएट प्रोफेसर-अर्थशास्त्र, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) ताजा रिपोर्ट (2019)के अनुसार आज भारत सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) के आधार पर विश्व में पांचवें स्थान पर है जबकि मानव विकास सूचकांक(H.D.I) के आधार पर

गांव और गरीब आधारित स्वदेशी अर्थव्यवस्था का मॉडल ही भारत के आर्थिक विकास के  लिए अंतिम विकल्प है. 

डॉ कौशलेंद्र विक्रम मिश्र

एसोसिएट प्रोफेसर-अर्थशास्त्र, 

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) ताजा रिपोर्ट (2019)के अनुसार आज भारत सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) के आधार पर विश्व में पांचवें स्थान पर है जबकि मानव विकास सूचकांक(H.D.I) के आधार पर यह 129 में स्थान पर है. भारत की 77% पूँजी देश के 10% लोगों के पास है. सीधा अर्थ है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि का लाभ स्वास्थ्य, शिक्षा और आय के रूप में ग़रीबों तक नहीं पहुंच पाया है। सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) आधारित यह विकास दोषपूर्ण है और इसकी जगह भारत को मानव विकास के बहु-आयामी गरीबी सूचकांक(H.D.I) के गरीब आधारित विकास को महत्त्व देना होगा। 

गरीब कौन है?: साधारणतया वे लोग जो जीवन की सबसे बुनियादी आवश्यकता अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर सके, गरीब माने जाते हैं। योजना आयोग के अनुसार किसी भी व्यक्ति को ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी से कम पोषण मिलता है तो उसे गरीब कहते हैं। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार वर्तमान में भारत के करीब 25% जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है और इनमें से भी 3% जनसंख्या अत्यंत विपन्न अवस्था में जीवन यापन कर रही है। 

वस्तुतः कोई भी देश अपनी स्वतंत्रता की रक्षा तब तक ही कर सकता है जब तक वह आत्मनिर्भर हो।  भारत की आजादी के बाद, गांधीजी ने प्रत्येक गांव के आत्मनिर्भर होने की कल्पना की थी और वे चाहते थे कि आर्थिक विकास का मॉडल गांव आधारित हो जिसमें लघु और कुटीर उद्योगों का विशेष महत्व हो। परंतु पंडित नेहरू और पी सी महालनोबिस के दबाव के कारण भारत का आर्थिक मॉडल पूंजी प्रधान,भारी उद्योग को महत्व देने वाला बनाया गया। 

तब से लेकर आज तक कमोबेश देश के आर्थिक विकास में कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों की उपेक्षा की गई और पूँजी प्रधान भारी उद्योगों को महत्व दिया गया। इसके परिणाम स्वरूप देश के बड़े-बड़े शहर औद्योगिक बस्तियों के रूप में तैयार हुए जिनमें प्रमुख हैं- मुंबई,दिल्ली,  अहमदाबाद,सूरत,राजकोट,गुड़गांव,नोएडा,फरीदाबाद,चंडीगढ़,लुधियाना, चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद,पुणे और औरंगाबाद।  दूसरी तरफ देश की कृषि जो भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, पर लगातार जनसंख्या का दबाव बढ़ता  गया। परिणाम स्वरूप कृषि में जोतों का आकार परिवार के विखंडन होते रहने के कारण छोटा हो गया और आज देश में औसत जोत का आकार 1 एकड़ से भी कम हो गया है। 

कुटीर और लघु उद्योगों पर भारी उद्योगों को महत्व देने के कारण गांव और छोटे कस्बों में लोग भारी संख्या में बेरोजगार,अर्ध-बेरोजगार और अदृश्य बेरोजगार होने लगे।  इसके परिणामस्वरूप रोजगार के लिए यहां से मजदूरों का पलायन देश के बड़े-बड़े औद्योगिक केंद्रों में होने लगा। इन बड़े औद्योगिक केंद्रों पर गांव से आए हुए प्रवासी मजदूरों में से कुछ तो सीधे फैक्ट्रियों में प्रत्यक्ष रोजगार पा गए। 

और शेष में से कुछ दीवाल पेंटिंग के काम में, कुछ सब्जी और फल बेचने के काम में, कुछ रेहड़ी और चाय बेचने के काम में, कुछ सिक्योरिटी गार्ड के काम, में कुछ कपड़े प्रेस करने के काम में, कुछ फूल बेचने के काम में, कुछ ऑटोरिक्शा और टैक्सी ड्राइविंग आदि  कामों में लग गए।  शहर की आवश्यकता के हिसाब से ये अपना व्यवसाय बदलते रहते हैं। कुछ छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो प्रवासी मजदूरों ने इन बड़े शहरों को संपन्न बनाने में अपना खून पसीना लगा दिया और लोगों के बीच में ऐसे घुलमिल गए जैसे यही के बाशिंदे हो।

परंतु  जब से  कोरोना महामारी के कारण लाक- डाउन हुआ है इन मजदूरों को बड़े शहरों में अपनी हैसियत का अहसास हुआ है।  अपने परिश्रम और सेवा से इन बड़े शहरों को चमकाने में लगे इन इन श्रमिकों को पहली बार एहसास हुआ है कि वे यहां के नहीं है।  क्योंकि उनके पास यहां का अपना कोई राशन कार्ड नहीं है। जो सहायता और सुविधाएं केंद्र या राज्य सरकार गरीबों को पहुंचा रही हैं, वह इन्हें नहीं मिल रहा है क्योंकि वे यहां के मूल निवासी नहीं है। 

देश के प्रधानमंत्री ने रोजगार प्रदान करने वाले बड़े-बड़े उद्योगपतियों से आह्वान किया था कि विपदा की इस घड़ी में किसी भी मजदूर की सैलरी नहीं काटी जाए, कोई मकान भाड़ा नहीं लेगा।  परंतु जो बातें ये प्रवासी मजदूर यहां आकर बता रहे हैं उससे पता चल रहा है कि न तो इन्हें बकाया सैलरी मिली और न हीं मकान मालिकों ने किराया माफ किया।  ऐसी परिस्थिति में जब ना तो तनख्वाह मिल रही हो ना ही रहने की जगह हो, न हीं  खाद्यान्न की सहायता मिल रही हो, इन्हें अपने गांव की याद आई और यह चल पड़े पैदल, साइकिल से, ट्रकों पर बैठकर, ऑटो से, टैक्सी से। यह दुखद स्थिति देखकर बाद में सरकार ने ट्रेन चलाने का निर्णय लिया लेकिन लाखों मजदूरों का पलायन देश के औद्योगिक नगरों से गांव की तरफ होने लगा. बौद्धिक विमर्श में इसे रिवर्स माइग्रेशन की संज्ञा दी गई.

भारी तकलीफ और अव्यवस्था के बीच करीब 25 लाख मजदूर उत्तर प्रदेश में आ चुके हैं।  मजदूरों के अपने गांव में आने का भावनात्मक लगाव और उत्साह तो है लेकिन जब मजदूर अपने गांव पहुंचे तो फिर वही यक्ष प्रश्न इनके समक्ष आ गया- यहां क्या करेंगे? यहां रोजी-रोटी का संकट था तभी तो यहां से बाहर गए थे। अब फिर यहां आकर काम क्या करेंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है।  यदि इसका सही उत्तर दे दिया गया तो न केवल इन मजदूरों का भला होगा वरन समाज, प्रदेश और देश सब की तस्वीर बदल जाएगी।  

अच्छा है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने हाल ही में एक माइग्रेशन कमीशन बनाने की घोषणा की है।  यह एक स्वागत योग्य कदम है। साथ ही साथ जो प्रवासी मजदूर यहां आ रहे हैं उनकी स्केलिंग भी की जा रही है और यह पता लगाया जा रहा है यह मजदूर कौन-कौन सा काम कर सकते हैं? उन्हें कौन सा स्किल आता है? इसका पूरा डाटा जुटाया जा रहा है और इसके आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार इन्हें रोजगार देने का प्रबंध करेगी ऐसा वादा किया जा रहा है। 

साथ ही साथ राज्य सरकार ने  प्रत्येक प्रवासी को 1000 नकद देने का प्रावधान किया है।  और इसके साथ उन्हें अपने गांव में मनरेगा के तहत रोजगार भी दिया जाएगा। इससे भी आगे बढ़कर इन प्रवासी मजदूरों के रेंटल आवास की भी व्यवस्था प्रदेश सरकार करने जा रही है। यह सारी सुविधाएं निस्संदेह उत्साह बढ़ाने वाली हैं परंतु फिर भी 25 लाख से अधिक मजदूरों को अतिरिक्त रोजगार दे पाना वह भी  तब जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था सर्वकालिक गंभीर मंदी के दबाव में है, अपने आप में किसी एवरेस्ट पर चढ़ने से कम कठिन नहीं है।  इन परिस्थितियों में आइए देखते हैं कि वह कौन से तरीके हो सकते हैं जिसके आधार पर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है-

1. उत्तर प्रदेश के सभी ब्लॉक का जनांकिकीय सर्वे किया जाए और यह पता किया जाए कि उस ब्लाक के अंतर्गत रहने वाले निवासी लोगों की कार्य करने की क्या योग्यता है? साथ ही साथ प्रत्येक गांव में चल सकने वाले कुटीर और लघु उद्योग धंधों की संभावना का भी सर्वे किया जाए। 

2. “एक जिला एक उत्पाद” को विस्तार देकर “एक गांव एक उत्पाद”  तक विस्तृत किया जाए।  इसके अंतर्गत  एक फल,  एक फूल,  एक सब्जी आदि के उत्पादन के लिए एक गांव निश्चित किया जाए. 

3. गांव, गाय और गोबर का श्री-गणेश हो. जीरो बजट खेती और ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहन दिया जाए।  

4.गांव में उत्पन्न खाद्य फसलों, सब्जियों, फल- फूल, दूध एवं अन्य पदार्थों को सीधे बेचने की बजाय इसका वैल्यू एडिशन करने के बाद बेचा जाए। इसके लिए प्रत्येक गांव में नौजवानों की तीन अलग-अलग टीमें बनाई जाए। पहली टीम जो किसी विशेष वस्तु के उत्पादन में संलग्न होगी। दूसरी टीम उस वस्तु का वैल्यू एडिशन करेगी और तीसरी टीम मार्केटिंग का जिम्मा संभालेगी। यह सारी टीमें वर्तमान संचार की आधुनिक सुविधाओं का अधिकतम उपयोग करके अपने कार्य को अंजाम देगी।  

5. गांव में कृषि उपज के स्टोरेज के लिए व्यवस्था हो। वर्तमान तकनीकी ज्ञान को इस प्रकार विकसित किया जाए कि फल- फूल,  दूध  और सब्जियों को कम लागत में कई दिनों तक सुरक्षित रख सकें। 

6.देश-विदेश के विभिन्न बाजारों में कौन-कौन सी वस्तुओं की मांग हो रही है इस मांग के अनुरूप गांव में कौन-कौन सी वस्तुएँ बनाई जा सकती हैं इसके लिए प्रत्येक ब्लॉक पर एक छोटा सा रिसर्च एंड डेवलपमेंट (R&D) कमिटी हो। विशेषकर विदेशी बाजारों में निर्यात की जा सकने वाले खाद्य पदार्थों की एक सूची बनाई जाए और देखा जाए कि इनमें से कौन से पदार्थ का उत्पादन इस ब्लॉक के भीतर किया जा सकता है?

7. राज्य सरकार गांव के नौजवानों की टीम को अपना कार्य शुरू करने के लिए एक रिवाल्विंग फंड दे और उनकी प्रॉपर ट्रेनिंग कराएं।  

8.मनरेगा के अंतर्गत होने वाले कार्यों में वृक्षारोपण के कार्य को प्रमुखता दिया जाए। प्रत्येक प्रवासी मजदूरों को पांच पौधे को 5 वर्ष तक बड़ा करने की जिम्मेदारी दी जाए इसके लिए उन्हें उचित मजदूरी भी निर्धारित की जाए।  

9. स्वदेशी और राष्ट्र प्रेम समानार्थी शब्द हैं अतः स्वदेशी वस्तुओं का सर्वाधिक प्रयोग हो जहां स्वदेशी उपलब्ध हो वहां विदेशी का विकल्प ना हो। स्वदेशी वस्तु खरीदने पर वह हमारे देश में रोजगार, आय और समृद्धि बढ़ाने में सहायक होता है जबकि विदेशी वस्तु खरीदने पर विदेशों में रोजगार आय और समृद्धि बढ़ती है। 

इस प्रकार संकट के इस कालखंड में अवसर तलाश किया जाए। भारत जो प्राचीन काल मे विश्व के अधिकांश देशों को अपने कुटीर और लघु उद्योगों के उत्पाद निर्यात करता था और सोने की चिड़िया कहलाता था, पुनः अपनी प्रतिष्ठा वापस पा सकता है।

भारत की वास्तविक शक्ति भारत के लोगों में बसती है और भारत के अधिकांश लोग गांव में ही निवास करते हैं। इन्हें  जहां तक संभव हो सके, अपने गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराना श्रेयस्कर है.  अतः गांव और गरीब आधारित स्वदेशी अर्थव्यवस्था का मॉडल ही भारत के आर्थिक विकास के  लिए अंतिम विकल्प है. 

दूध पर निर्भरता वैश्विक स्वास्थ्य का द्योतक

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