सरकारी विद्यालयों में गिरती शिक्षा की गुणवत्ता: जवाबदेही किसकी ?
शिक्षा का महत्व निर्विवाद है, फिर भी अधिकतर सरकारी विद्यालयों में ‘शिक्षा की गुणवत्ता’, दिन-प्रतिदिन चिन्ताजनक होती जा रही है। यह एक कटु सत्य है कि, ‘‘हमारे देश के अनेक नेता, उच्चाधिकारी और प्रभावशाली लोग अपनी सन्तानों को विदेशों में अच्छी शिक्षा के लिए भेजते हैं या निजी स्तर के महंगे विद्यालयों में दाखिला दिलाते हैं। वहीं दूसरी ओर, सरकारी विद्यालय, जो देश की अधिकांश जनता के लिए शिक्षा प्राप्त करने का प्रमुख साधन हैं, उपेक्षित हैं और संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं।’’ क्या यह संयोग मात्र है या इसके पीछे हमारी प्रणाली की प्राथमिकताओं और जवाबदेही की कमी का गहरा सम्बन्ध है? सवाल यह उठता है कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है, इसकी जवाबदेही किसकी है?
प्रथम दृष्टया, सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता में कमी के कई कारण हैं। जैसे-बुनियादी ढांचे की कमी, शिक्षकों की अपर्याप्त संख्या, किसी विद्यालय में अगर पर्याप्त संख्या में शिक्षक हैं भी तो वो अपनी जिम्मेदारी निष्ठा से नहीं निभाते, प्रशिक्षण का अभाव, आधुनिक शिक्षण विधियों का उपयोग न होना आदि प्रमुख समस्याएं हैं। इसके अलावा, सरकारी विद्यालयों को नीतिगत उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
इसी दरम्यान यह सवाल पनपना जायज है कि, ‘‘जब देश के नीति-निर्माता और प्रभावशाली वर्ग के लोग अपनी सन्तानों को सरकारी विद्यालयों से दूर रखते हैं, तो स्वाभाविक रूप से इन संस्थानों के प्रति उनकी जवाबदेही कम हो जाती है। यदि उनके अपने बच्चे भी सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे होते, तो शायद इनकी स्थिति सुधारने के लिए अधिक गम्भीर प्रयास किए जाते।’’
यह स्थिति न केवल सामाजिक असमानता को बढ़ावा देती है, बल्कि शिक्षा के अधिकार जैसे संवैधानिक वादे को भी कमजोर करती है। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे, समाज के आर्थिक स्तर से कमजोर वर्गों से आते हैं, जिनके लिए निजी स्कूलों में पढ़ना आर्थिक रूप से सम्भव नहीं है। यदि इन विद्यालयों की गुणवत्ता में सुधार नहीं होगा, तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार करेंगे, जो अवसरों की कमी के कारण पिछड़ जाएगी। यह न केवल व्यक्तिगत स्तर पर अन्याय है, बल्कि देश के समग्र विकास के लिए भी हानिकारक है।
इस समस्या का समाधान तभी सम्भव है, जब नीति-निर्माता और समाज का प्रभावशाली वर्ग सरकारी शिक्षा प्रणाली को अपनी प्राथमिकता बनाए। एक सुझाव यह हो सकता है कि सरकारी अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई को अनिवार्य किया जाए। इससे न केवल जवाबदेही बढ़ेगी, बल्कि नीतियों में सुधार के लिए ठोस कदम भी उठाए जाएंगे। इसके साथ ही, शिक्षकों के प्रशिक्षण, स्कूलों में संसाधनों की उपलब्धता और नियमित निगरानी जैसे कदमों को प्राथमिकता देनी होगी।
‘शिक्षा’ किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होती है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश प्रगति के पथ पर अग्रसर हो, तो सरकारी विद्यालयों को मजबूत करना होगा। यह तभी सम्भव है, जब हमारी प्रणाली में जवाबदेही और समानता का भाव जागे। नेताओं और उच्चाधिकारियों को यह समझना होगा कि उनकी सन्तानों का भविष्य देश के हर बच्चे के भविष्य से जुड़ा है। सरकारी विद्यालयों को नजरअन्दाज करना, न केवल शिक्षा के क्षेत्र में असमानता को बढ़ावा देता है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक प्रगति को भी बाधित करता है। ऐसी परिस्थितियों में जरूरी यह है कि हम इस दिशा में ठोस और त्वरित कदम उठाएं, ताकि हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार मिले।
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