सेमिनार या तमाशा? ए एल वाई कॉलेज में जलवायु पर दिखावे की चादर में दबा सच"

कुलपति ने भी लिया आड़े हाथ

सेमिनार या तमाशा? ए एल वाई  कॉलेज में जलवायु पर दिखावे की चादर में दबा सच

सुपौल बिहार
 
जिले के त्रिवेणीगंज स्थित ए एल वाई कॉलेज  में बुधवार को हुए  एक दिवसीय "राष्ट्रीय सेमिनार", जिसका विषय था "जलवायु परिवर्तन: प्रभाव, कारण और नियंत्रण"। चर्चा का विषय बन गया है।आयोजन भले ही आंतरिक गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ के तत्वावधान में किया गया हो, लेकिन  हकीकत में यह कार्यक्रम  ‘भोज-भात सम्मेलन’ बनकर रह गई। 
 
जहां मंच पर पर्यावरणीय संकट की बातें की जा रही थीं, वहीं मंच के पीछे माइक, माला और मीडिया मैनेजमेंट का पूरा खेल चल रहा था। इस आयोजन को देखकर यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या अब अकादमिक सेमिनार सिर्फ एक औपचारिक ‘फोटो सेशन’ व अखबार की सुर्खियां ही बनकर रह गए हैं?
 
नाम में ‘राष्ट्रीय’, काम में ‘स्थानीय राजनीति’
आयोजन का श्री गणेश  दीप प्रज्वलन और स्वागत गान से हुआ, जैसा हर कार्यक्रम में होता है। मंच पर बी एन एम यू कुलपति प्रो. डॉ. विमलेंदु शेखर झा, विश्वविद्यालय के डीएसडब्ल्यू प्रो. अशोक कुमार , कॉलेज प्राचार्य डॉ. जयदेव प्रसाद यादव, शासी निकाय के सचिव कपलेश्वर यादव समेत अन्य अधिकारी मौजूद थे।
 
लेकिन सवाल यह है कि जब मंच पर बैठे विद्वानों को भी यह कहना पड़ जाए कि "नाम बड़ा है, लेकिन काम में गंभीरता नहीं है", तो आयोजन की सच्चाई खुद-ब-खुद सामने आ जाती है। आयोजक की शर्मिंदगी उस वक्त और बढ़ गई जब सेमिनार के मुख्य उद्घाटनकर्ता कुलपति महोदय ने मंच से यह कहकर आयोजकों को आइना दिखाया कि जब मंच को ‘राष्ट्रीय’ दर्जा दिया जाए, तो आयोजन में भी वही गंभीरता, तैयारी और निष्पक्षता होनी चाहिए।
 
विचारों से ज्यादा विजुअल्स की प्रधानता
सेमिनार के दौरान कुलपति ने जलवायु परिवर्तन की भयावहता पर विस्तार से चर्चा की — जैसे कि ग्लोबल वार्मिंग, समुद्र जलस्तर में वृद्धि, वनों की अंधाधुंध कटाई, और कार्बन उत्सर्जन। उन्होंने समाधान के रूप में वृक्षारोपण, प्लास्टिक नियंत्रण और सतत विकास की बात की।
 
लेकिन यह सब मंच पर कहा गया। ज़मीनी स्तर पर आयोजकों की प्राथमिकता कुछ और ही थी — मीडिया को सम्मानित करना, उन्हें बैग, कलम और विज्ञापन सौंपना और खानपान का प्रबंध। पर्यावरण पर सेमिनार था, लेकिन डिस्पोजेबल प्लेटों और प्लास्टिक की बोतलों की भरमार थी। यह आयोजन एक उदाहरण बन गया कि किस तरह दिखावे की दुनिया में वास्तविक मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
 
शोध नहीं, रस्म निभाने का कार्यक्रम
सेमिनार में बोलने वालों की सूची भले ही लंबी रही हो — केएनडी कॉलेज के प्राचार्य, झारखंड की प्रो. वर्षा जोशी, बीएनएमयू इंचार्ज आशुतोष कुमार — लेकिन उनके विचारों की कोई ठोस कार्ययोजना सामने नहीं आई। चर्चा तो हुई, पर दिशा नहीं दी गई।
 
वहीं, कॉलेज के भीतर से उठ रही आवाज़ें कुछ और ही संकेत देती हैं — “यह कॉलेज अब सिर्फ नाम के लिए बचा है, अंदर से खोखला हो चुका है”। कई छात्र और शिक्षक कार्यक्रम के औपचारिक हिस्से में उपस्थित रहे, लेकिन उनके चेहरे सवालों से भरे थे। एक एनएसएस स्वयंसेवक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "हमें पेड़ लगाने की नहीं, प्लेट धोने की जिम्मेदारी दी गई थी।"
 
वित्तीय अनियमितताएं और ‘चेहरा देखकर सम्मान’ की संस्कृति
कार्यक्रम के दौरान मेहमानों को पारंपरिक पाग, माला, चादर और स्मृति चिह्न भेंट किए गए। लेकिन यह सम्मान किस आधार पर था? क्या यह ज्ञान और योगदान पर आधारित था, या फिर चेहरों और पदों की राजनीति ने इसका निर्धारण किया?
 
स्थानीय चर्चाओं के अनुसार, आयोजकों पर यह भी आरोप है कि मीडिया को चुप कराने के लिए हजार-हजार के ‘गिफ्ट पैकेट’, बैग और विज्ञापन बाँटे गए। कई पत्रकारों को देखा गया कि वे मंच के बजाय भोजशाला में ज्यादा सक्रिय थे।
 
यह आरोप भी लगा कि सेमिनार के नाम पर सरकारी फंड का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए हुआ — यह एक गंभीर जांच का विषय हो सकता है।
 
भोजन पर चर्चा, पर्यावरण पर चुप्पी
कार्यक्रम का समापन पारंपरिक भोज-भात से हुआ। मेन्यू में क्या था — यह जानने के लिए किसी रिपोर्ट की जरूरत नहीं, क्योंकि अधिकांश मेहमान उसी का ज़िक्र करते पाए गए। एक स्थानीय शिक्षक ने तंज कसा, "ऐसे आयोजनों में अब सेमिनार कम और भोज ज्यादा होता है, जहां पोस्टर की जगह प्लेट और पाग की जगह पकवान की चर्चा होती है।"
 
इस कार्यक्रम में एक और चीज़ साफ दिखी — संवाद की जगह सजावट हावी रही। मंच पर लगे बैनर, फूलों की सजावट, हाई-रेजोल्यूशन कैमरों से ली गई तस्वीरें — सब कुछ ब्रांडिंग की तरफ इशारा कर रहा था।
 
मूल्यांकन या महज उपस्थिति अंक?
छात्रों की भागीदारी महज ‘हाजिरी’ तक सीमित थी। किसी भी छात्र से यह नहीं पूछा गया कि उन्होंने क्या सीखा। कोई ग्रुप डिस्कशन, कोई रिसर्च पेपर प्रस्तुति, कोई कार्यशाला या समाधान आधारित सत्र नहीं था।
 
यह पूछे जाने पर एक छात्रा ने कहा, "हम तो बस वहां खड़े थे, फोटो लिए गए और हमें बाहर बैठा दिया गया।" इस जवाब में ही इस आयोजन का सार छिपा है।
 
क्या अब शिक्षा भी दिखावे की राजनीति का हिस्सा है?
इस आयोजन ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या शैक्षणिक संस्थान अब ज्ञान के मंदिर नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक ब्रांडिंग के मंच बनते जा रहे हैं? क्या ‘राष्ट्रीय’ शब्द अब सिर्फ पोस्टर पर छपवाने के लिए रह गया है?
 
सेमिनार  के बहाने सियासी साजिश तो नहीं?
अनुपलाल यादव महाविद्यालय, जो एक समय स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व मंत्री की विरासत माना जाता था, आज ‘लूट-घसोट’ और ‘प्रबंधन की विफलता’ के लिए पहचाना जाने लगा है।
 
ऐसे आयोजनों में जहां मुद्दा गंभीर हो और आयोजन हल्का, वहां भविष्य की उम्मीद धूमिल हो जाती है। जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए सिर्फ भाषण नहीं, नीयत और नीति दोनों की ज़रूरत है।

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