मोदी की ताजपोशी और जिम्मेदारियों का बोझ 

मोदी की ताजपोशी और जिम्मेदारियों का बोझ 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी तय हो चुकी है जो संभवतः आज होनी है। सभी घटक दलों ने अपने समर्थन का पत्र सौंप दिया है। जिसमें जनता दल यूनाइटेड और टीडीपी जैसे बड़े दल भी शामिल हैं। इसमें एक चीज तय है कि भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को अब उतने मंत्री पद नहीं मिलने वाले हैं जितने एनडीए 1 और एनडीए 2 में मिले थे क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के पास अकेले पूर्ण बहुमत नहीं है जबकि पिछली दोनों सरकारों में पूर्ण बहुमत था। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास जिम्मेदारियां भी बढ़ गई हैं और वो हैं पूरे पांच साल घटक दलों को एकजुट रखने की। टीडीपी सरकार में शामिल नहीं होगी और वह बाहर से समर्थन करेगी। भारतीय जनता पार्टी एक हिंदुत्ववादी पार्टी है जब कि टीडीपी के घोषणा पत्र में मुस्लिमों की सुविधाओं को लेकर एक लंबी फेहरिस्त है। लोकसभा चुनाव के साथ ही आन्ध्र प्रदेश में विधानसभा के भी चुनाव हुए थे। हालांकि वह चुनाव टीडीपी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर लड़े थे लेकिन टीडीपी को इतनी सीटें मिली हैं कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी के समर्थन की आवश्यकता नहीं है। लेकिन यदि विचारधारा की बात की जाए तो टीडीपी की विचारधारा किसी भी एंगल से भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से मेल नहीं खा रही है। उत्तर प्रदेश समेत देश में जिन बातों का भारतीय जनता पार्टी विरोध करती है और उनको धीरे धीरे समाप्त करना चाहती है वहीं टीडीपी ने उन्हीं मुद्दों पर आन्ध्र प्रदेश में चुनाव लड़ा है और प्रचंड जीत हासिल की है। 
 
टीडीपी के घोषणा पत्र में मुस्लिमों को चार फीसदी आरक्षण, मस्जिदों की मरम्मत के लिए हर माह सहायता राशि। मस्जिदों के इमामों को एक मुश्त तनख्वाह के रुप में प्रदान करना आदि आदि। इस तरह भारतीय जनता पार्टी टीडीपी के साथ कैसे अपने वायदों को पूरा कर सकती है जो उन्होंने हिंदुस्तान की हिंदुत्ववादी जनता से किए हैं। भारतीय जनता पार्टी के प्रशंसक छोटी सी हार के बाद अयोध्या और उत्तर प्रदेश की जनता को काफी भला बुरा कह रहे हैं। आन्ध्र प्रदेश भी उसी भारत का हिस्सा है जिसमें उत्तर प्रदेश आता है। लेकिन यहां भारतीय जनता पार्टी की मजबूरी है कि वह बिना टीडीपी के समर्थन के सरकार नहीं बना सकती। एक बार जम्मू-कश्मीर में भी भारतीय जनता पार्टी ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार का गठन किया था जिसका अनुभव अच्छा नहीं था। इसका भारतीय जनता पार्टी को बहुत बड़ा विरोध देखने को मिला था क्योंकि भारतीय जनता पार्टी और पीडीपी की विचारधारा में जमीन आसमान का अंतर था।
 
अतः भारतीय जनता पार्टी को कुछ ही समय बाद पीडीपी से समर्थन खींचना पड़ा और वहां सरकार गिर गई और राष्ट्रपति शासन लग गया। तब से अब तक जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव नहीं हुए हैं इसके अलावा लद्दाख क्षेत्र को भी जम्मू-कश्मीर से अलग करके एक नया राज्य बना दिया गया है। अब देखना यह है कि भारतीय जनता पार्टी इन बेमेल विचारधारा वाले दलों के साथ कब तक दोस्ती का रिश्ता निभा सकती है। भारतीय जनता पार्टी को सरकार में रहने की मजबूरी भी है। इसलिए हर वह निर्णय जो भारतीय जनता पार्टी पहले अकेले दम पर ले लिया करती थी अब ऐसा मुश्किल होगा और इसीलिए टीडीपी बाहर से समर्थन दे रही है। ऐसा नहीं है कि गठबंधन की सरकारें चली न हों लेकिन वह तब ही अच्छे ढंग से चलतीं है जब उसमें समान विचारधारा वाले दल शामिल हों।
 
यूपीए 1 और यूपीए 2 ने अपना कार्यकाल पूरा किया था। भारतीय जनता पार्टी तटस्थ निर्णय लेने के लिए जानी जाती है लेकिन सवाल यह है कि क्या अब वह उतनी आसानी से तटस्थ निर्णय ले सकती है। यह चुनौतियां भारतीय जनता पार्टी के सामने हैं और उनको इस बात का एहसास भी है। गठबंधन की सरकार चलाने में अपनी विचारधारा को एक तरफ रखना पड़ता है। और यही एक सबसे बड़ी चुनौती भारतीय जनता पार्टी के सामने है। टीडीपी ने सरकार बनने से पहले ही शर्त एनडीए के समक्ष रख दी है कि एक तो उसको लोकसभा स्पीकर का पद चाहिए और दूसरा एनडीए संयोजक का पद चाहिए। अब देखना है कि भारतीय जनता पार्टी कैसे इन महत्वपूर्ण समय में महत्वपूर्ण पदों को टीडीपी को सौंपती है।
 
उधर नितीश कुमार कहते कुछ नहीं हैं लेकिन कब क्या कर दें इसका भी विश्वास किसी को नहीं रहता है। नितीश कुमार जिसके साथ भी जाते हैं पूरे तन मन से जाते हैं लेकिन फिर जिससे रुठते हैं तब भी पूरी तरह से रुठते हैं और तभी कम से कम सीटें जीतकर भी काफी समय से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिके हुए हैं। अभी शुरुआत है लेकिन जैसे-जैसे पदों का बंटवारा होगा वैसे ही तमाम अन्य राजनैतिक दलों की लालसा भी बढ़ेगी। अनुप्रिया पटेल, जीतनराम मांझी, जयंत चौधरी और चिराग पासवान जैसे नेता भी समय के इंतजार में हैं। सबसे बड़ा दल होते हुए भी भारतीय जनता पार्टी को सबकी मान मनौव्वल करनी होगी क्योंकि जरा सी लापरवाही में बात बिगड़ सकती है।
 
इधर जो एनडीए के घटक दल भी ऐसे हैं जिनका राजनैतिक ट्रेक अच्छा नहीं है। ये लगातार कभी इधर तो कभी उधर होते रहे हैं। जयंत चौधरी पिछले दो चुनाव उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से गठबंधन करके लड़ चुके हैं। लेकिन उन्होंने हवा का रुख भांपा और एनडीए में शामिल हो गए। इसी तरह जीतनराम मांझी, चिराग पासवान, नितीश कुमार, चन्द्र बाबू नायडू का भी राजनैतिक रोल ऐसा ही रहा है। जो कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए मुश्किलें पैदा करता रहेगा। इस बार विपक्ष ने एक बड़ी अच्छाई दिखाई कि उसने जरा भी सरकार बनाने की कोशिश नहीं की क्यों कि कोशिश करते भी तब भी सरकार बननी नहीं थी। इसलिए विपक्ष भी अब वेट एंड वाच की स्थिति में है।
 
वैसे भी बहुमत तो एनडीए को ही मिला है अंतर यह है कि पिछली दोनों सरकारों में एनडीए में भारतीय जनता पार्टी बहुमत में थी लेकिन इस बार वह बहुमत से दूर है। इस लिए इस सरकार के निर्णय में बहुत परिवर्तन देखने को मिल सकता है। 2014 और 2019 के चुनावों में जब भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था तब ऐसा लग रहा था कि शायद अब गठबंधन की राजनीति का दौर खत्म हो चुका है लेकिन 2024 में कमोबेश वही स्थिति सामने आ गई जो 2014 से पहले हुआ करती थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पहली बार गठबंधन की सरकार का नेतृत्व करेंगे जिसमें उनके ऊपर तमाम जिम्मेदारियों का बोझ होगा। अपने राजनैतिक निर्णयों के साथ साथ घटक दलों को भी विश्वास में लेना होगा और यह इतना आसान काम नहीं है। पिछली गठबंधन की सरकारों को हमने देखा है कि किस तरह एक छोटे-छोटे दलों की मान मनौव्वल करनी पड़ती थी।
 
 जितेन्द्र सिंह पत्रकार 

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