विनाशकारी खरपतवार को समय रहते नियंत्रण में किया जाना चाहिए
भारत कृषि प्रधान देश है। इअस्कि प्रधानता हमें बनाये रखनी है।
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स्वतंत्र प्रभात ब्यूरो
उन्नाव
जिला कृषि रक्षा अधिकारी ने बताया है कि गाजर घास या ‘चटक चांदनी’ एक घास है जो बडे़ आक्रामक तरीके से फैलती है। यह एक वर्षीय शाकीय पौधा है जो हर तरह के वातावरण में तेजी से उगकर फसलों के साथ-साथ मनुष्य और पशुओं के लिए भी गंभीर समस्या बन जाता है। इस विनाशकारी खरपतवार को समय रहते नियंत्रण में किया जाना चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस घास को ‘चिड़िया बाड़ी’ के नाम से भी पुकारते है।
इस खरपतवार की बीस प्रजातियां पूरे विश्व में पायी जाती है। भारत में इसका प्रवेश तीन दशक पूर्व अमेरिका या कनाडा से आयात किये गये गेहूं के साथ हुआ है। अल्पकाल में ही लगभग पांच मिलियन हेकटेयर क्षेत्र में इसका भीषण प्रकोप हो गया है। एक से डेढ़ मीटर तक लम्बी गाजर घास का तना रोयेदार अत्यधिक शाखायुक्त होता है। इसकी पत्तियां असामान्य रूप से गाजर की पत्ती की तरह होती है।
प्रत्येक पौधा 1000 से 50000 अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है, जो शीघ्र ही जमीन पर गिरने के बाद प्रकाश और अंधकार में नमी पाकर अंकुरित हो जाते है। यह पौधा 3-4 माह में ही अपना जीवन चक्र पूरा कर लेता है और वर्ष भर उगता और फलता फूलता है। इसका प्रकोप खाद्यान फसलों जैसे धान, ज्वार, मक्का, सोयाबीन, मटर, तिल, अरंडी, गन्ना, बाजरा, मूंगफली, सब्जियों एवं उद्यान फसलों में भी देखा गया है।
गाजर घास मनुष्य और पशुओं के लिए भी एक गंभीर समस्या है। इससे खाद्यान फसल की पैदावार में लगभग 40 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है। उन्होंने बताया है कि इसके दुष्प्रभाव से निपटने के लिए कृषि विभाग द्वारा 16 अगस्त से 22 अगस्त तक गाजर घास नियंत्रण जागरूकता सप्ताह कार्यक्रम चलाया गया है।
गाजर घास के नियंत्रण के लिए गाजर घास में फूल आने से पहले जड़ से उखाड़ कर कम्पोस्ट बनाना चाहिए। शीघ्र बढने वाली फसलों जैसे- ढैंचा, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि फसलों में एट्रीजिन 1-1.5 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर बुवाई के तुरंत बाद प्रयोग किया जाना चाहिए। घर के आस-पास बगीचे, उद्यान एवं संरक्षित क्षेत्रो में गेंदे के पौधो को उगा कर गाजर घास के फैलाव एवं वृद्धि को रोका जा सकता है।
इस खरपतवार के लगातार सम्पर्क में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, एलर्जी, बुखार, दमा आदि की बीमारियां हो जाती है। पशुओं के लिए भी यह खतरनाक है। इससे उनमें कई प्रकार के रोग हो जाते है एवं दुधारू पशुओं के दुध में कड़वाहट आने लगती है। पशुओं द्वारा अधिक मात्रा में इसे चर लेने से उनकी मृत्यु भी हो सकती है।
इसकी रोकथाम के लिए वैधानिक, यांत्रिक, रासायनिक एवं जैविक विधियों का उपयोग किया जाता है। गैर कृषि क्षेत्रों में इसके नियंत्रण के लिए शाकनाशी रासायन एट्राजिन का प्रयोग फूल आने से पूर्व 1.5 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर पर उपयोग किया जाना चाहिए। ग्लाइफोसेट 2 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर और मैट्रिब्यूजिन 2 किग्रा, तत्व प्रति हेक्टेयर का प्रयोग फूल आने से पूर्व किया जाना चाहिए।
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