किसने लगाया सुख के ताला 

हमने स्वयं ने अपने कर्मों के आवरण से भौतिक चकाचौंध में रत रहकर आत्मा का जो सुख होता है उसको ताला लगाया हैं ।हम हमेशान पाए को पाने की लालसा में भटकते रहते हैं । उसका नतीजा यह होता है कि हमें जो मिला है उसमें हम कभी आनंदित नहीं हो पाते औरपाए हुए का सही उपयोग न करके कीमती समय और वस्तुओं के उपभोग से वंचित रहते है।हम ये नहीं सोचते कि कभी भी बिना बुलायेअतिथि की तरह मौत हमारे दरवाजे परकभी भी आ जायेगी । और हमारी न एक भी सुनेगी और न जो हमारे पास भौतिक वस्तुएं है जोहमारे पास थी। 

हम भोग ही नहीं पाएं वो वैसे ही छोड़कर हमें ले जाएगी। सिर्फ हमारे कर्मबन्ध चाहे वो बहुत अच्छे हो सम्यकरत्न याफिर मिथ्यात्व रूपी पापरूप कंकड़,वो हमें अपने साथ लेकर जाने के लिए हम विवश होंगे।सात पीढ़ी तक के सुख के लिए आशा केपाश में बंधे हुए हम अपने आत्मकल्याण की कभी नहीं सोचते ।क्योंकि हमें अपने इस जीवन मे मृत्यु नहीं आएगी पर जरूरत से ज्यादाविश्वास होता है । और वही हम सबसे बड़ी भूल करते है और अंत में नतीजा ये होता है।

कि हम आये तब तो पता नहीं कर्मों से कितनेभारी थे ।जाने के समय ज्यादा भारी जरूर हो जाएंगे।हमें हमेशा प्रेरणा मिलती रहती है कि लालसाओं का कोई ओर-छोर नहीं ।आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है लेकिन आकाश की तरह अनन्त आकांक्षाओं की कभी नहीं।

तो हम सदैव स्मृति में मृत्यु कीअवश्यम्भाविता को ध्यान में रखते हुए हम सब कुछ कर्तव्य समझकर चेते। सुख शांति का उद्गमस्थल है आत्मभाव ।जब हम होते आत्मामें अवस्थित। बाहरी आकर्षणों से हो जाते निवृत। हमारे ज्ञाता द्रष्टा भाव हो जाता विकसित। तब सुख शांति का साम्राज्य हो जाताशासित।

About The Author: Abhishek Desk