किसान आंदोलन :: हाट सीट पर भाजपा सरकार , बैकफुट पर आंदोलनकारी किसान

किसान आंदोलन :: हाट सीट पर भाजपा सरकार , बैकफुट पर आंदोलनकारी किसान

अपनी सूझबूझ व वेट एंड वाच की नीति से विरोधियों को चारों खाने चित कर रहे है मनोहर लाल


भगवत कौशिक -

करनाल मे पिछले चार दिन से चल रहे किसान आदोंलन का आज पटाक्षेप हो गया है ।जिससे भाजपा सरकार और किसान नेताओं के साथ साथ आम जनता ने भी राहत की सांस ली है। करनाल के सचिवालय घेराव के मामले मे जहां मनोहर सरकार ने सूझबूझ दिखाते हुए बिना किसी बवाल के अपने हिसाब से खत्म कराकर आंदोलनकारी किसान और किसान नेताओं को स्पष्ट संदेश देने का काम किया है कि सरकार किसी के दबाव मे झुककर बिना किसी जांच के कोई कदम नहीं उठाएगी।

   आपको बता दे कि करनाल के बसताडा टोल पर हुए पुलिस लाठीचार्ज के बाद करनाल के एसडीएम का विवादित वीडियो वायरल हुआ था जिसमे वो किसी भी किमत पर प्रदर्शनकारियों को आगे बढने से रोकने की बोल रहे है चाहे इसके लिए किसी का सिर भी फोडना पडें।इस वीडियो के बाद किसान संगठनों के दवारा एसडीएम को सस्पेंड करने व उसके ऊपर हत्या का मामला दर्ज करने की मांग उठाई गई और करनाल के सचिवालय के घेराव का ऐलान किया गया।जबकि सरकार की तरफ से बार बार कहा गया कि जांच करवाने के बाद जो भी दोषी होगा उस पर कार्यवाही की जाएगी।लेकिन किसान नेताओं ने एसडीएम को सस्पेंड करने व हत्या का मुकदमा दर्ज करने की मांग को लेकर सचिवालय का घेराव कर दिया।

चार दिन चले हाईवोल्टेज ड्रामे के बाद प्रशासन व सरकार के कडे रूख को देखते हुए आखिरकार वहीं हुआ जिसके लिए इतना ड्रामा करने की जरूरत ही नहीं थी।सरकार के साथ वार्ता मे एसडीएम की जांच हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज से करवाने तथा मृतक के परिजनों को डीसी रेट पर नौकरी के आश्वासन पर किसान नेताओं ने करनाल सचिवालय से अपना धरना समाप्त कर लिया।यानी ना ही एसडीएम सस्पेंड हुए ना ही हत्या का मामला दर्ज हुआ।किसान नेताओं को झुक समझौता करना पडा जिसका कई किसान गुटों ने विरोध भी किया।

आईए हम समझाते है आखिरकार क्यों झुकना पडा किसान नेताओं को

पिछले चार दिन से हरियाणा के करनाल में किसानों ने डेरा डाला है। शुरुआत के दो दिन तो अच्छी खासी भीड़ और किसानों में जोश देखने को मिला। राकेश टिकैत, गुरनाम सिंह चढूनी सहित कई बड़े किसान नेताओं ने हुंकार भरी। ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली बॉर्डर की तरह किसान यहां भी आंदोलन का नया गढ़ बनाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तीसरे दिन यानी 9 सितबंर की शाम होते-होते भीड़ छंटने लगी, किसानों का उत्साह कमजोर पड़ने लगा। बड़े नेता यहां से निकल लिए।इसकी सबसे बड़ी वजह है सरकार का सख्त स्टैंड, लगातार विरोध प्रदर्शन के बाद भी सरकार ने एसडीएम को सस्पेंड नहीं किया।जिसके कारण किसान नेताओं को अपनी जमीन खिसकती दिखाई दी।मजबूरीवश अपनी साख को बचाए रखने के लिए समझौता करना पडा।ऐसे मे सवाल उठता है कि होना वही ठाक के तीन पात है तो इतना बडा ड्रामा क्यों किया गया।जिसमे जनता के धन और समय की बर्बादी हुई।

वामंपथी विचारधारा की आंदोलन मे इंट्री से दूर होने लगे लोग

जब से किसान आंदोलन शुरू हुआ है, एक के बाद एक अलग अलग जगहों से अलग अलग किसान संघ इस आंदोलन से जुड़ते चले गए। और इस पूरे प्रकरण में एक बात तो समान रूप से देखने को मिली वो है कम्युनिस्ट पार्टी वाला लाल झंडा। चाहे प्रदर्शन दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पे हो या ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पे, लाल झंडा का होना स्वाभाविक सा लगता है। और फिर जब आंदोलन को दिशा देने वाले किसान नेताओं के इतिहास को खंगाला गया तो वहां भी लगभग सभी नेताओं का किसी न किसी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव नज़र आता है।सवाल है कि अगर ये आंदोलन किसानों का नए कृषि कानूनों के खिलाफ है तो फिर उसमे कम्युनिस्ट पार्टी का क्या काम। बात तो किसान और सरकार के बीच की है। जिसके कारण आम लोगों का आंदोलन से मोहभंग होने लगा।

जाट समाज को आंदोलन से जोडने की कवायद मे जाट बहुल्य इलाकों मे महापंचायतों के आयोजन ने अन्य वर्ग को किया आंदोलन से दूर

हरियाणा की राजनीति में किसका कितना दख़ल है, उस पर एक किताब है 'पालिटिक्स ऑफ चौधर'।इस किताब के लेखक सतीश त्यागी कहते हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जो महापंचायतें हुई हैं उनमें ज़्यादातर ईलाके जाट बहुल रहे हैं। दोनों इलाकों के जाट गोत्र की दृष्टि से एक ही तरह के हैं। इसलिए दोनों में सामाजिक संबंध हैं, रिश्तेदारियाँ हैं। चूंकि ये आंदोलन जाट नेताओं के हाथ में चला गया है इसलिए पंचायतों में भीड़ खुद ही चली आ रही है।सतीश त्यागी कहते हैं कि किसान आंदोलन की पकड़ दक्षिण हरियाणा में कम और सेंट्रल हरियाणा में ज़्यादा है।

हरियाणा में गुरनाम सिंह चढूनी को किसानों का सबसे बड़ा नेता माना जाता है, जो भारतीय किसान यूनियन के ही नेता हैं और जाट सिख हैं।इसके पीछे की राजनीति के बारे में बताते हुए सतीश त्यागी कहते हैं, "गुरनाम सिंह चढूनी हरियाणा के जीटी रोड बेल्ट (करनाल, कैथल) से आते हैं, जहाँ जाटों का दबदबा ज़्यादा नहीं है।उस इलाके में खापों का प्रभाव भी ज़्यादा नहीं है। हरियाणा में जातियों की बसावट हर इलाके में अलग है। यहाँ एक इलाके में जाट रहते हैं, राजपूत दूसरे में और यादव अलग इलाके में। रोहतक, सोनीपत वाले इलाके में 50 फीसदी से ज़्यादा जाट मिलेंगे।अब आंदोलन का चरित्र बदल गया है। अब इस आंदोलन का चरित्र जाति का ज़्यादा है। चढूनी उसमें फ़िट नहीं बैठते।जाटों को अपना नेतृत्व चाहिए तो उनको राकेश टिकैत अपील कर रहे हैं। चढूनी जाट नेता तो हैं, लेकिन वो सिख जाट हैं।

दुसरी गौर करनेवाली बात ये रही कि किसान आंदोलन का हरियाणा मे नेतृत्व कर रहे अधिकतर नेता जाट समुदाय से संबंध रखते है ।जिसके चलते अन्य वर्ग के लोगों को अपनी बात रखने का मौका नहीं मिला और आंदोलन पर समुदाय विशेष का ठप्पा लगने से लोग आंदोलन से दूर होने लगे।

राकेश टिकैत का राजनैतिक कनैक्शन,2 बार लड़े चुनाव, लेकिन मिली हार

राकेश टिकैत ने किसान यूनियन के जरिए राजनीति में आने का प्रयास किया। वह 2007 में मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़े लेकिन वह यह चुनाव हार गए।दूसरी बार उन्होंने फिर से भाग्य आजमाया और 2014 में अमरोहा से लोकसभा चुनाव लड़े। इस बार उन्हें राष्ट्रीय लोक दल पार्टी ने टिकट दिया, लेकिन वह दूसरी बार भी चुनाव हार गए। राकेश टिकैत के राजनैतिक होने के चलते लोगों के मन मे एक सवाल खड हो गया कि कही आंदोलन के जरिए राकेश टिकैत अपनी राजनीति तो चमकाना नहीं चा रहे है।जिसके चलते धीरे धीरे लोगों का रुझान आंदोलन से हटने लगा।

साख बचाने के लिए राकेश टिकैत के अल्लाह हू अकबर नारें से लोग छिटकें

मुजफ्फरनगर जिले में हुए कवला कांड के बाद 7 सितंबर, 2013 को 'बहू-बेटी बचाओ महासम्मेलन' किया गया था। इस महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत और प्रवक्ता राकेश टिकैत ने मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिए थे।कई खापों के चौधरियों ने इस महापंचायत में बहू-बेटियों के साथ बदसलूकी करने वालों से खुद ही निपटने का निर्णय लिया था। इस महापंचायत के बाद मुजफ्फरनगर में दंगे भड़क गए थे।जिसे लेकर राकेश टिकैत पर मुस्लिमों के खिलाफ भड़काऊ बयानबाजी में एफआईआर भी दर्ज की गई थी। हालांकि, इसी साल जनवरी में किसानों के नाम पर नरेश टिकैत ने महापंचायत कर मुस्लिम खाप नेता गुलाम जौला को भी बुलाया था। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, नरेश और राकेश टिकैत ने गुलाम जौला के पैर छूकर माफी मांगी थी। कहना गलत नहीं होगा कि राकेश टिकैत ने मंच से अल्लाह हू अकबर का नारा लगाकर जाट और मुस्लिम एकता से ज्यादा अपनी बिगड़ चुकी इमेज को चमकाने के लिए कोशिश की है।जिससे लोंगो की धार्मिक भावना आहत हुई है।

क्या राकेश टिकैत का अल्लाह हू अकबर का नारा बीजेपी सरकार के गेमप्लान का हिस्सा है

बालियान खाप के नेता राकेश टिकैत के इस नारे ने जाट समुदाय को एक बार फिर से मुजफ्फर नगर दंगों की याद दिला दी है।किसानों के मंच का राजनीतिक इस्तेमाल लोगों को ज्यादा दर्द नहीं देगा। लेकिन, जिस मुस्लिम तुष्टीकरण के खिलाफ जाट समुदाय ने एकजुट होकर भाजपा को वोट दिया था। वही कहानी किसान महापंचायत के मंच से फिर से दोहरा दी गई है।कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा और सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ ऐसी ही किसी गलती का इंतजार कर रहे थे। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता किसान आंदोलन के सहारे भाजपा के खिलाफ जो माहौल तैयार करने की कोशिश कर रहे थे, उसे उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर खुद ही कमजोर कर लिया है।

क्या जनहित के मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए किसान आंदोलन को फ्री हिट दे रही है सरकार

आए दिन आंदोलनकारी किसानों दवारा बीजेपी व जेजेपी नेताओं का विरोध, काले झंडे, मारपीट,घेराव, रोड जाम आदि करने के बाद भी सरकार की चुप्पी कहीं ना कही भाजपा की रणनीति का ही हिस्सा है।आज देश व प्रदेश मे मंहगाई व बेरोजगारी चरम पर है।जिसके कारण जनता का बुरा हाल है,जिसके कारण विपक्ष इसको लेकर सडकों पर भी उतरा ।लेकिन राजनीति की पिच पर फ्रंट पर बैंटिंग कर रही भाजपा सरकार ने किसान आंदोलन व आंदोलनकारियों को फ्रीहिट देकर जनता और विपक्ष को उलझा दिया है।अब विपक्ष के सामने जहां अन्य मुद्दों को छोडकर किसान आंदोलन मे ज्यादा से ज्यादा भागीदारी करना राजनैतिक मजबुरी बन गया है।

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