बुनियादी उसूलों और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ता भारत

बुनियादी उसूलों और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ता भारत

लेखक व पत्रकार: राजीव शुक्ला आजाद भारत के तौर-तरीकों में इन 6 वर्षों में जो बदलाव आए हैं उसे सोचने और समझने की गहनता के साथ आवश्यकता है वही मामला संसद से सड़क या जनता सड़क पर क्या उचित है यह तय करना तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है फिर भी ठोस कदम ना उठने

लेखक व पत्रकार: राजीव शुक्ला

आजाद भारत के तौर-तरीकों में इन 6 वर्षों में जो बदलाव आए हैं उसे सोचने और समझने की  गहनता के साथ आवश्यकता है वही मामला संसद से सड़क या जनता सड़क पर क्या उचित है यह तय करना तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है फिर भी ठोस कदम ना उठने की वजह से भारत का एक तबका पिछले कई दिनों से लाठी और गोलियों का सामना कर रहा, नारे लगाते, गीत गाते और पूरी ताकत के साथ सरकार के खिलाफ आवाज उठाते सैकड़ों-हजारों लोग अब संविधान के लिए, भारत के बुनियादी उसूलों और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं.उच्च शिक्षा के संस्थानों पर पहरा बिछा दिया गया है. अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं.जिस सनक भरे तरीके से कश्मीर के साथ लंबे समय से चली आ रही व्यवस्था का खात्मा कर दिया गया और वहां की पूरी आबादी का दमन किया गया, उसने विश्व की चेतना को झकझोर कर रख दिया है.

लेकिन विरोध की कुछ आवाजों को छोड़कर, भारत के बहुत से लोगों ने आवाज नहीं उठाई. जिस तरह गैरकानूनी ढंग से लोगों से शांतिपूर्ण ढंग से सरकार के कदम का विरोध करने का अधिकार छीना गया है- अनुच्छेद 144 का दुरुपयोग, लोगों को हिरासत में लेना, पिटाई, इंटरनेट सेवा बंद करना- उसने विरोध-प्रदर्शनों के दायरे को बढ़ा दिया है.अब यह सिर्फ सीएए और एनआरसी से जुड़ा हुआ नहीं रह गया है. वास्तव में असम से लेकर केरल तक, मुंबई से लेकर कोलकाता तक, दिल्ली से लेकर लखनऊ, मैंगलोर, कासरगोड, विजयवाड़ा और औरंगाबाद तक, बूढ़े और जवान, विभिन्न धर्मों और जातियों के भारतीय सरकार को यह बताने के लिए सड़कों पर उतरे हैं कि वे भारत के लोकतंत्र को रौंदने की निर्लज्ज कोशिशों के मूकदर्शक नहीं बने रहेंगे.पिछले करीब छह वर्षों में यह देश लिंचिंग, बढ़ती असहिष्णुता और आलोचनाओं का गला घोंटने की सुनियोजित कोशिशों का गवाह रहा है.

इसका सबसे बड़ा कारण उनके अंदर का बैठा हुआ डर था.सीएए-एनपीआर-एनआरसी के खतरे ने इस स्थिति को बदल कर रख दिया है. हालांकि, भाजपा निजी तौर पर अपने समर्थकों से यह कहती है कि इन तीनों के निशाने पर सिर्फ मुस्लिम हैं, लेकिन हकीकत यह है कि अगर पार्टी लोगों से उनकी नागरिकता प्रमाणित करने पर जोर देती है तो लाखों-करोड़ों भारतीय नागरिकों की जिंदगी संकट में पड़ जाएगी.आज की तारीख तक सरकार ने इसकी रूपरेखा पैमानों को लेकर फैसला नहीं किया है, लेकिन नौकरशाही की अक्षमता, भ्रष्टाचार और हठधर्मिता को देखते हुए बड़े पैमाने पर ‘गलतियों’ का होना तय है.लोगों के नाम लिखने की इस कवायद से आखिरकार सामने आने वाली ‘संदिग्ध नागरिकों’ की सूची में अधिकांश नाम गरीबों के होंगे.

इस पूरी कवायद के पीछे की मंशा को देखते हुए सबसे ज्यादा प्रभावित अल्पसंख्यक होंगे, लेकिन हाशिये के दूसरे तबकों पर भी खतरा कम नहीं है.मोदी सरकार को जनता के मिजाज को पढ़ना चाहिए और अपने कदम पीछे खींच लेने चाहिए. लोगों को अब अस्पष्ट आश्वासन नहीं चाहिए.एनपीआर और एनआरसी को पूरी तरह से रद्दी की टोकरी में डालने और सीएए में संशोधन करके इसे भारत के संवैधानिक सिद्धांतों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप बनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. जिस पर सरकार को जनताा के मन मुताबिक रूपरेखा खींचनी अब इस  देश में अति आवश्यक हो चुका है

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