साहित्य मंच -मानव जीवन में कलाओं का महत्व

साहित्य मंच  -मानव जीवन में कलाओं का महत्व

डाॅ प्रभाकांत त्रिपाठी असिस्टेंट प्रोफेसर (संस्कृत विभाग) सन्त तुलसीदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय कादीपुर सुलतानपुर जीवन और स्वयं के बीच सामंंजस्य बैठाना तथा हर परिस्थितियों में सजग एवं संतुलित रहना एक कला है मनुष्य के जीवन में कला का विशेष महत्व है कलाओं के ग्रहण से सौभाग्य उत्पन्न होता है


डाॅ प्रभाकांत त्रिपाठी असिस्टेंट प्रोफेसर (संस्कृत विभाग)
सन्त तुलसीदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय कादीपुर सुलतानपुर

              जीवन और स्वयं के बीच सामंंजस्य बैठाना तथा हर परिस्थितियों में सजग एवं संतुलित रहना एक कला है मनुष्य के जीवन में कला का विशेष महत्व है कलाओं के ग्रहण से सौभाग्य उत्पन्न होता है जो व्यक्ति देश और काल के अनुरूप कलाओं का प्रयोग करता है वह जीवन में कभी निष्फल नहीं होता। कलानां ग्रहणादेव ,सौभाग्यमुपजायते।देशकालौ त्वपेक्ष्यासां प्रयोग:संभवेन्न वा।।

          मानव जीवन में गति और समरसता बनाए रखने में कलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है संसार में मनुष्य रूप में जन्म धारण कर व्यक्ति ने अपने जीवन में कलाओं से संबंधित अनेक अन्वेषण किये जिसके फलस्वरूप कलाओं का विकास हुआ क्योंकि बात कलाओं की हो रही है

तो कला शब्द की  व्युत्पत्ति, प्रधान अर्थ ,विविध अर्थों परिभाषा तत्पश्चात कलाओं की उत्पत्ति पर विस्तृत चर्चा करेंगेसर्वप्रथम कला शब्द की व्युत्पत्ति समझ लिया जाए कल् धातु से कृदंत का अच् तथा स्त्रीलिंग का टाप् प्रत्यय लगकर कला शब्द निष्पन्न करता है कल् धातु के चार अर्थ होते हैं पहला कल् शब्द संख्यानयो:अर्थात् शब्द करना या गिनना दूसरा कलक्षेपे उड़ाना या फेंकना तीसरा कल् आस्वादने अर्थात स्वाद लेना या निगलना चौथा कल् गतौ संख्याने च अर्थात जानना या गिनना होता है
अब कला शब्द के प्रधान अर्थ कितने होते हैं इसको भी समझ लिया जाए। शब्द कल्पद्रुम के अनुसार कला शब्द का प्रधान अर्थ कलयति वृद्धितो धनं संगृह्णाति संचिनोतीत्यर्थ: अर्थात मूलधन में वृद्धि या सूद होता है कला शब्द के विविध अर्थ भी होते हैं संस्कृत भाषा में कला शब्द की सिद्धि कल् धातु से हुई है
जिसका अर्थ संख्यान होता है यह संख्यान शब्द की सिद्धि ख्या धातु से ना होकर जिसका अर्थ कथन कहना घोषणा करना या संवादन होता है लघु सिद्धांत कौमुदी के अनुसार चक्षिडव्यक्तानां वाचि प्रक्रिया के अंतर्गत चक्षिड़् के स्थान पर ख्या आदेश हो जाता है

जिसका अर्थ अवधान पूर्वक देखना तथा स्पष्ट वाणी में प्रकटन होता है सम उपसर्ग पूर्वक चक्षिड् धातु का अर्थ गणना करना अथवा संकलन करना है इस अर्थ के आधार पर संख्यान शब्द का अर्थ मनन चिंतन एवं ध्यान भी होता है कुछ विद्वान कला शब्द का अर्थ सुंदर कोमल मधुर या सुख देने वाला मानकर कला को उसके साथ सम्बद्ध करना चाहते हैं तो कुछ कल् धातु से शब्द करना, बजना, गिनना से संबंध मानते हैं
साथ ही कला शब्द का प्रयोग किसी भी काम के अपेक्षित चातुर्य के अर्थ में भी होता है यह तो रहा कला के प्रधान अर्थ किंतु अब इसके विविध अर्थों को भी देख लिया जाए कि कला शब्द के कितने अर्थ होते हैं पहला अर्थ अंश है अर्थात किसी कार्य को करने के कौशल का नाम कला है  राशि चक्र के एक अंश के भाग को भी कला कहा  जाता है।
यह भी कहा जाता है कि चंद्रमा सोलह कलाओं से युक्त है इन सोलह कलाओं के नाम  है अमृता मानदा ,पूषा ,पुष्टि ,तुष्टि ,रति ,धृति, शशनि ,चन्द्रिका, कान्ति, ज्योत्स्ना, ‌श्री, प्रीती ,अंगदा, पूर्णा ,पूर्णामृता है पुराणों में उल्लेख है कि चंद्रमा में अमृत का वास है जिसे देवता लोग पीते हैं
चंद्रमा शुक्ल पक्ष में एक-एक कला बढ़ता है और पूर्णिमा के दिन उसकी सोलहवीं कला पूर्ण हो जाती है कृष्ण पक्ष में देवता लोग उसके संचित अमृत का एक एक कला का पान करते हैं, पहली कला का पान अग्नि के द्वारा दूसरी कला का पान सूर्य के द्वारा तीसरी कला का पान विश्वदेव के द्वारा चौथी कला का पान वरुण के द्वारा पांचवी कला का पान वषट्कार  के द्वारा छठवीं कला का पान इंद्र के द्वारा सातवीं कला का पान देवर्षि द्वारा आठ्वीं कला का पान अज एकपात के  द्वारा नौवीं कला का यम के द्वारा दसवीं कला का पान वायु के द्वारा ग्यारहवीं कला का पान उमा के द्वारा बारहवीं कला का पान पितृ गणों द्वारा तेरहवीं  कला का पान कुबेर के द्वारा चौदहवीं कला का पान पशुपति के द्वारा पन्द्रहवीं कला का पान प्रजापति के द्वारा सोलहवीं कला का पान अमावस्या के दिन जल और औषधियों में प्रवेश कर जाती है जिनके खाने पीने से दूध होता है और दूध से घी बनता है एवं आहुति द्वारा पुन: चन्द्रमा तक पहुंचता है।
         ललिता सहस्रनाम में भी चंद्रमा की सोलह कलाओं का उल्लेख आया है जिसे त्रिपुर सुंदरी के सोलह अवयव  कहा गया है कला के विविध अर्थों में वर्ष की बारह संक्रांतियों  के विचार से सूर्य के बारह नाम हैं जो कि क्रमशः  विवस्वान् आर्यमा ,पूषा, त्वष्टा ,सविता, भग, दाता,विधाता ,वरुण ,मित्र ,शुक्र ,उरूक्रम है साथ ही इन बारह सूर्यों  के तेज को भी कला कहते हैं जिनके नाम क्रमशः तपिनी ,तापिनी,धूम्रा, मरीचि, ज्वालिनी, रुचि, सुषम्णा, भोगदा ,विश्वा, बोधिनी ,धारणी एवं क्षमा है। उपनिषदों के अनुसार पुरुष के शरीर के सोलह अंश या उपाधि भी कला होती है  इन सोलह अंशों के नाम क्रमशः प्राण, श्रद्धा, व्योम, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इंद्रिय, मन, अन्न,वीर्य, तप, मंत्र, कर्म ,लोक, एवं नाम  है।
 जितनी देर में आंख झपकती है उसे मात्रा कहते हैं अर्थात निमेष मात्र काल को मात्रा कहा जाता है दो मात्राओं में एक कला होती है अमरकोश के अनुसार भी कला के पांच अर्थ होते हैं जिनमें पहला अर्थ है कला के कारीगर, जबकि दूसरा 8 सेकंड का समय, तीसरा मूलधन की वृद्धि या सूद चौथा सोलहवां हिस्सा, पांचवा चंद्रकला। ज्योतिर्विज्ञान में भी कला का वर्णन आया हुआ है जिसमें कहा गया है कि कला समय का एक विभाग जो कि तीस काष्ठा का होता है कुछ विद्वानों के मत के अनुसार दिन का 1/600 वां भाग और कुछ के अनुसार के 1/800वां भाग होता है ‌। आयुर्वेद के अनुसार कला, शरीर की विशेष सात झिल्लियां होती हैं इन झिल्लियो के नाम है  मांस, रक्त ,मेंद, कफ, मूत्र, पित्त, वीर्य हैं अब इसके आगे कला की परिभाषा समझ लें, शुक्रनीति के अनुसार कला की परिभाषा इस प्रकार है                शक्तो मूकोSपि यत्कर्तुं कलासंज्ञं तु तत्स्मृतम्।
          अर्थात जो कर्म गूगां भी अपने हाथ से कर सकता है उसे कला कहा गया है शारदातनय कृत भाव प्रकाशन में कला और विद्या को एक बताते हुए कहा गया है कि जीवात्मा माया से लेकर पृथ्वी पर्यन्त तत्वों से निर्मित जगत जो कि दुखों से परिपूर्ण है राग, विद्या और कला इन तत्वों से आनंदित होता है इसी प्रकार दर्शक नाट्य में प्रदर्शित अनेक भावों का जो कि रस रूप है राग विद्या और कला से आनंदित होता है कला एवं विद्या जीवात्मा को तथा दर्शक को समान रूप से आनंदित करने के कारण एक है। 
शेष अगले अंक में area
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