लोक से नदारद नायक की तलाश

लोक से नदारद नायक की तलाश

पन्नों में से भी अक्सर ताकते-झांकते रहते हैं .गांधी तो वर्तमान में भी यत्र-तत्र खड़े नजर आते हैं .


स्वतंत्र प्रभात 
 

परलोक का पता नहीं कि कैसे सुधरता है किन्तु लोक को सुधारने के लिए हर दौर में एक नायक की जरूरत पड़ती है.जरूरत पड़ने पर नायक पैदा भी होते हैं.नायकों का पैदा होना ' अवतार ' कहा जाता है. कलिकाल में भारत में महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण जैसे लोक नायक हुए . इन नायकों ने देश को तात्कालिक संकटों से उबारा और फिर इतिहास के पन्नों में समा गए .नायक इतिहास के पन्नों में से भी अक्सर ताकते-झांकते रहते हैं .गांधी तो वर्तमान में भी यत्र-तत्र खड़े नजर आते हैं .

देश आजादी का पचत्तरवां  वर्ष अमृत समारोह के रूप में मना रहा है ,लेकिन मंहगाई  ,लाचारी,अराजकता और निर्ममता का शिकार है,इसलिए इस समारोह का आनंद नहीं ले पा रहा . सरकार आनंद लेने ही नहीं दे रही .घर का बजट रोज बिगाड़ रही है. कभी रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है तो कभी पेट्रोल के .यहां तक की मिटटी के मोल मिलने वाले मिटटी के तेल   के दाम पंद्रह रूपये लीटर तक पहुँच गए हैं .यानि आप अब घासलेट जलाकर भी आमलेट नहीं खा सकते .तेल के साथ फुलेल के बारे में तो आप सोच भी नहीं सकते.

बहरहाल बात हो रही थी नायकों की .देश को इस समय   एक लोकनायक   की जरूरत है ,जो   राजनीति  के महानयक  का मुकाबला  कर  सके . उसे रोक-टोक सके .1975  में देश आपातकाल का शिकार बना तो फौरन समग्र क्रांति का नारा लेकर जयप्रकाश नारायण सामने आ गए थे .उन्होंने  जनता  को संगठित  कर सिंघासन  खाली  करा  लिया  था  .लोकनायक सिंघासन पर बैठते नहीं सो उनके चेले-चांटें सिंघासन पर बैठे जरूर लेकिन ढाई साल में चित्त हो गए थे ,किन्तु वो अलग किस्सा है .लोक नायक यदि सिंघासन पर बैठते तो शायद परिदृश्य अलग होता.किन्तु लोकनायक अक्सर बूढ़े होते हैं,वे सत्ता सम्हलने का जोखिम नहीं लिया करते .75 साल पहले भी लोकनायक महात्मा गाँधी अंग्रेजों द्वारा खाली किये गए सिंघासन पर नहीं बैठे थे .

लोकनायक जयप्रकाश नारायण की मेहनत बेकार गयी.कहते हैं कि कांग्रेस के कु,सुशासन के बाद एक बार फिर महाराष्ट्र में रालेगण सिद्धि से एक लोकनायक उठकर दिल्ली तक आये.रामलीला मैदान में कई दिनों तक लीला दिखते रहे .उनकी लीला के बाद जो हुआ सो हुआ लेकिन 2014  में सिंघासन   एक बार फिर खाली हो गया .खाली सिंघासन पर टोपी वाले लोकनायक नहीं बैठे .उनकी जगह उन्हें समर्थन देने वाले बैठे .छोटा सिंघासन 'आप' ने कब्जा लिया .लोकनायकों के आगे-पीछे चलने वाले आगे-पीछे कभी न कभी राजनीति में फिट हो ही जाते हैं .गांधी के समय के अग्गू-पिच्छू पांच दशक से भी ज्यादा हिट रहे. जेपी के समय पैदा हुए अग्गू -पिच्छू अभी भी देश के नहीं तो कम से कम बिहार की सत्ता पर तो काबिज हैं ही. बीते दशक के लोकनायक अन्ना के चेले भी दिल्ली में सिंघासन पर शोभायमान हैं ही .


देश को अब फिर एक नए लोकनायक की जरूरत है. देश का किसान एक साल से आंदोलनरत है लेकिन उसे लोकनायक नहीं मिल रहा .टिकैत में लोकनायक बनने की तथा नहीं है और कोई कथा बचने को राजी नहीं .दुर्भाग्य ये है कि दक्षिण से कोई लोकनायक दिल्ली का सिंघासन हिलाने सामने आता नहीं .एक बार टी रामाराव ने भारत देशम बनाकर लोकनायक बनने की कोशिश भी की थी किन्तु वे कामयाब नहीं हो सके.उनकी पार्टी का भी कोई अता-पता नहीं है .उत्तर भारत  ने भी लोकनायक पैदा करना बंद कर दिए हैं,इसीलिए उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी और राजस्थान में हनुमानगढ़ हो रहा है .लोकनायक विहीन जनता त्राहि-त्राहि कर रही है .उसे किसी नए अवतार की बेसब्री से प्रतीक्षा है .


कहते हैं कि जब -जब धरा अकुलाती है तब-तब भगवान यानि लोक नायक अवतरित होते हैं .लगता है कि अभी भारत भूमि की अकुलाहट चरम पर नहीं पहुंची है. लोग दो सौ रूपये लीटर पैट्रोल खरीदने तक की हैसियत रखते हैं .मंहगाई डायन से डरने के बजाय भारत की जनता ने उससे राब्ता बना लिया है .जनता  पेट काटकर भी देश के विकास में सहयोग कर रही है.  .नहीं करेगी  तो जाएँगी  कहाँ ? उनके पास कोई लोकनायक तो है नहीं जो उन्हें इस त्रासदी से बाहर निकाल ले जाये .

अभी तक लोकनायक पुरुष ही बनते आये हैं,इसलिए अब लगता है कि लोक नायक की जगह इस बार कोई लोकनायिका अवतार लेगी .बंगाल में गाल बजाने वालों को खदेड़ने वाली ममता बहन जी में लोग थोड़ी-बहुत संभावनाएं देख रहे हैं .लेकिन लोकनायक सत्ता से नहीं समाज से आते हैं. मंमता जी तो अखंड मुख्यमंत्री हैं .वे बंगाल छोड़कर देश में खेला करने कैसे दिल्ली आएंगी. उनसे पहले ज्योति बसु से लोगों ने लोकनायक बनने का बहुत आग्रह किया था किन्तु वे भी बंगाल नहीं छोड़ पाए .भला दिल्ली में बनगाल जैसा झोल-माँछ कहाँ रखा ?


लोकनायिका बनने के चांस बहन मायावती बहुत पहले गंवा चुकी हैं .अब वे पहले जैसी मुखर नहीं रहीं. वे भाजपा से खौफ खातीं हैं,जेल जाने से डरतीं हैं.पीटने से डरतीं हैं. अब बची बहन प्रियंका बाड्रा ,लेकिन वे भी लोकनायिका बनने की अहर्ता हासिल नहीं कर पायी हैं.हाँ वे यदि उत्तर प्रदेश में खेला कर दिखाएँ तो मुमकिन है कि देश उनके बारे में सोचे. अभी तो वे अग्निपरीक्षा   के दौर में हैं .दरअसल लोकनायक बनने के लिए पहली अहर्ता होती है कि व्यक्ति स्वभाव से संत हो. अविवाहित न हो .बाल-बच्चेदार हो .गांधी,जेपी सब बाल-बच्चेदार लोकनायक थे .


लोकतंत्र को हराभरा रखने की पहली शर्त है कि उसके पास हर दौर में एक लोकनायक हो. हमारे दौर के लोकनायक हमारे प्रधानमंत्री हैं लेकिन वे अब लोकनायक कम ख़ौफनायक ज्यादा नजर आने लगे हैं .वे अमेरिका जाने के लिए यदि अपनी दाढ़ी-मूंछें ट्रिम न कराएं तो आपको लगेगा कि आप किसी बाबा से मिल रहे हैं .दाढ़ी-मूंछें आदमी की भाव भंगिमाओं  को छिपा लेती हैं .इसलिए लोकनायक सफाचट होना चाहिए. गांधी ,जेपी जैसा ताकि कम से कम चेहरे के भाव तो साफ़-साफ़ दृष्टिगोचर हों !मुस्कान तो साफ़ -साफ दिखाई दे .लोकनायक निर्दलीय और निष्पक्ष होना चाहिए .प्रधानमंत्री जी न निर्दलीय हैं और न निष्पक्ष इसलिए उन्हें लोकनायक मैंने को देश की जनता तैयार नहीं है ,किन्तु वे 31  फीसदी अंकों से लोकतंत्र की परीक्षा में पास होकर जनादेश से प्रधानमंत्री बने हैं इसलिए उन्हें नायक तो मानना ही पड़ता है.

कुल जमा   एक आम आदमी की तरह मै भी देश में एक नए लोकनायक के अवतरित होने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जो निरीह,असहाय जनता को दुखों,अवसादों और परेशानियों से बाहर निकाल सके .ताली/थाली पीटने से मुक्ति दिला सके .देखिये ऊपर वाला नीचे वालों की फरियाद कब तक सुनता है. ?


 

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