बांके बिहारी मंदिर: सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश लाने में यूपी सरकार की जल्दबाज़ी पर सवाल उठाए, ।
मंदिर के धन के राज्य उपयोग की अनुमति देने वाला फैसला वापस लेने का प्रस्ताव।
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स्वतंत्र प्रभात।
ब्यूरो प्रयागराज ।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (4 अगस्त) को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वृंदावन, मथुरा स्थित बांके बिहारी मंदिर का प्रबंधन अपने हाथ में लेने के लिए श्री बांके बिहारी जी मंदिर न्यास अध्यादेश, 2025 जारी करने की "बेहद जल्दबाज़ी" पर सवाल उठाया। कोर्ट ने उस "गुप्त तरीके" पर भी असहमति जताई, जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार ने दीवानी विवाद में आवेदन दायर करके कॉरिडोर विकास परियोजना के लिए मंदिर के धन के उपयोग की अनुमति 15 मई के फैसले के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट से प्राप्त की।
कोर्ट ने मौखिक रूप से 15 मई के फैसले में दिए गए उन निर्देशों को वापस लेने का प्रस्ताव रखा, जिनमें राज्य को मंदिर के धन का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी। कोर्ट ने मंदिर के प्रबंधन की निगरानी के लिए रिटायर हाईकोर्ट जज की अध्यक्षता में समिति गठित करने का भी प्रस्ताव रखा, जब तक कि अध्यादेश की वैधता पर हाईकोर्ट द्वारा निर्णय नहीं लिया जाता।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई कल तक के लिए स्थगित कर दी ताकि एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज खंडपीठ द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों पर सरकार से निर्देश प्राप्त कर सकें।
पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि वह अध्यादेश को चुनौती देने के लिए संबंधित पक्षों को हाईकोर्ट में भेज देगी। इस बीच, मंदिर का प्रबंधन रिटायर जज की अध्यक्षता वाली समिति के अधीन रहेगा। न्यायालय ने कहा कि परिवार द्वारा मंदिर के अनुष्ठान पहले की तरह जारी रहेंगे। पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि कलेक्टर और अन्य अधिकारी भी समिति का हिस्सा होंगे। न्यायालय ने आगे प्रस्ताव दिया कि क्षेत्र के समग्र विकास के लिए एएसआई को भी समिति से जोड़ा जा सकता है।
बांके बिहारी मंदिर के पूर्व प्रबंधन की ओर से सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान ने दलील दी कि अध्यादेश ने गोस्वामियों, जो पहले मंदिर का प्रबंधन कर रहे थे, उनको हटा दिया और प्रबंधन का दायित्व सरकार के नियंत्रण वाले एक ट्रस्ट को सौंप दिया। दीवान ने सुप्रीम कोर्ट के 15 मई के फैसले पर भी आपत्ति जताई, जिसमें सरकार को कॉरिडोर विकास परियोजना के लिए मंदिर के धन का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी। उन्होंने कहा कि ये निर्देश "प्रबंधन की पीठ पीछे" दिए गए, क्योंकि उनकी बात नहीं सुनी गई। उन्होंने दलील दी कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला दो संप्रदायों के बीच एक निजी विवाद से संबंधित मामले में आया था। उन्होंने कहा कि राज्य ने निजी विवाद में हस्तक्षेप किया और मंदिर के धन के उपयोग के आदेश प्राप्त किए।
दीवान ने "यथास्थिति" के आदेश पर ज़ोर दिया और राज्य द्वारा तत्काल अध्यादेश जारी करने की आवश्यकता पर सवाल उठाया। दीवान ने दलील दी, "मुझे आज यथास्थिति चाहिए। सैकड़ों सालों से यह चल रहा है... और अचानक राज्य अध्यादेश पारित कर देता है... अध्यादेश आपातकालीन उपायों के लिए होता है।"
इस मौके पर जस्टिस कांत ने राज्य की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से पूछा कि 15 मई के फैसले को कैसे उचित ठहराया जा सकता है, जब प्रभावित पक्षों की बात नहीं सुनी गई। जस्टिस कांत ने पूछा, "आप अदालत के निर्देश को कैसे उचित ठहराते हैं? जब वे पक्षकार ही नहीं थे?" एएसजी नटराज ने जवाब दिया कि यह सार्वजनिक मंदिर है और जिन लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है, उन्हें प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं माना जाता। हालांकि, जस्टिस कांत ने प्रभावित पक्षों को बिना कोई सूचना दिए निर्देश जारी करने के तरीके पर अपनी असहमति जताई।
जस्टिस कांत ने कहा, "इस न्यायालय के समक्ष जो मामला है, वह बांके बिहारी मंदिर से संबंधित नहीं है। एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया जा सकता है...क्या न्यायालय द्वारा नियुक्त कोई रिसीवर है? यह नो मैन्स लैंड का मामला नहीं है। मंदिर की ओर से किसी की सुनवाई होनी है। अगर सिविल जज निगरानी कर रहे हैं तो सिविल जज को नोटिस जारी किया जा सकता है... इस न्यायालय द्वारा कोई सार्वजनिक नोटिस जारी किया जाना चाहिए... कि युद्धरत समूहों के बीच लंबित विवाद के कारण... हम यही प्रस्ताव दे रहे थे...मंदिर के धन का उपयोग तीर्थयात्रियों के लिए किया जाना चाहिए, इसे निजी व्यक्तियों द्वारा हड़पा नहीं जा सकता।"
जस्टिस कांत ने कहा कि राज्य ने "गुप्त तरीके से" आवेदन दायर किया जो अस्वीकार्य है।
जज ने पूछा कि राज्य ने मुआवज़ा देने के बाद कानून के अनुसार ज़मीन का अधिग्रहण क्यों नहीं किया। जस्टिस कांत ने कहा, "अगर राज्य कोई विकास कार्य करना चाहता है तो कानून के अनुसार उसे ऐसा करने से किसने रोका? ज़मीन निजी है या नहीं, इस मुद्दे पर अदालत फ़ैसला सुना सकती है... राज्य गुप्त रूप से आगे आ रहा है, उन्हें सुनवाई का मौका नहीं दे रहा... हमें इसकी उम्मीद नहीं है... राज्य को पूरी निष्पक्षता से उन्हें सूचित करना चाहिए है।" जस्टिस कांत ने राज्य से पूछा, "अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्या थी?" उन्होंने स्वर्ण मंदिर के आसपास के क्षेत्र के विकास का उदाहरण देते हुए आस-पास के निवासियों की ज़मीनें अधिग्रहित करने का उदाहरण दिया और पूछा कि इस मामले में ऐसा ही तरीका क्यों नहीं अपनाया जा सकता था।
2025 के उत्तर प्रदेश अध्यादेश में मंदिर प्रशासन को एक वैधानिक ट्रस्ट सौंपने की बात कही गई। इसके अनुसार, मंदिर का प्रबंधन और श्रद्धालुओं की सुविधाओं की ज़िम्मेदारी 'श्री बांके बिहारी जी मंदिर न्यास' द्वारा संभाली जाएगी। 11 न्यासी मनोनीत किए जाएंगे, जबकि अधिकतम 7 सदस्य पदेन हो सकते हैं। सभी सरकारी और गैर-सरकारी सदस्य सनातन धर्म के अनुयायी होंगे।
28 जुलाई को सूचीबद्ध एक याचिका की सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर प्रबंधन समिति से यह पता लगाने को कहा कि पूरे भारत में कितने मंदिरों का प्रबंधन कानूनों के माध्यम से अपने अधीन किया गया।
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