भारत की इस उपलब्धि पर रोऊं या हंँसूं?

भारत की इस उपलब्धि पर रोऊं या हंँसूं?

स्विस टेक्नोलॉजी कंपनी आईक्यूएयर द्वारा वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2024 के अनुसार भारत को दुनिया के 138 देशों में वायु की गुणवत्ता के आधार पर पांचवां स्थान प्राप्त हुआ है। इतना ही नहीं दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के हैं, यानी 65 प्रतिशत। चिंता की बात यह है कि कि दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर(बर्नीहाट) और राजधानी(दिल्ली) भी हमारे पास है। यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिस पर न तो तालियां बजाई जा सकती हैं और न ही खुशियां मनाई जा सकती है, हां रोने का दिल अवश्य करता है। क्योंकि यह सब उस समय हो रहा है जब दुनिया भारत की ओर देख रही है और भारत विकसित राष्ट्र, आत्मनिर्भर राष्ट्र बनने के लिए जी-जान से लगा हुआ है।
 
पिछले दशक में इस ताज को प्राप्त करने के लिए भारत ने बहुत सारी उपलब्धियों हासिल की है। भारत की अर्थव्यवस्था सुधरी है,वह अब पांचवें स्थान पर है तथा तीसरे के लिए प्रयत्नशील है। भारत ने कृषि और खाद्य उत्पादन,आईटी और सोफ्टवेयर सेवाएं, फार्मास्युटिकल और वैक्सीन निर्माण, स्पेस टैक्नोलॉजी, रक्षा उत्पादन (आंशिक रूप से), आटोमोबाइल आदि कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता प्राप्त की  हैं और इलेक्ट्रॉनिक और सेमीकंडक्टर, ऊर्जा (सौर और हरित ऊर्जा), डिफेंस और हाईटेक मिलिट्री इक्विपमेंट आदि कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनने की तैयारी में है।
 
ऐसे में खराब हवा वाले विश्व के देशों में भारत का पहले पांच देशों में  सम्मिलित होना दुःखी करता है,शर्मशार करता है। भारत क्यों भूल जाता है कि उसके वैज्ञानिकों में असंभव को भी संभव करने की शक्ति है। भारत क्यों भूल जाता है कि उसने अपने दम पर, स्वदेशी तकनीक के सहारे परमाणु शक्ति हासिल की है, क्रायोजेनिक इंजन (जीएस एल वी-मार्क-lll), एंटीसैटटेलाइट मिसाइल , स्वदेशी लड़ाकू विमान (तेजस), स्वदेशी न्यूक्लियर सबमरीन (अरिहंत पनडुब्बी), स्वदेशी एयर क्राफ्ट कैरियर (आईएनएस विक्रांत), सुपर कम्प्यूटर (परम सीरीज) आदि बनायें है। विश्व को आश्चर्य चकित करने वाली यूपीआई एवं आधार जैसी डिजिटल क्रांति की है तथा कोरोना को मात देने के लिए कोवैक्सीन और कोविशील्ड जैसे वैक्सीन तैयार किए हैं। क्या ऐसे भारत के लिए प्रदूषण (जल, वायु आदि)की समस्या से निपटना कठिन है, मैं तो ऐसा नहीं मानता।
 
मेरे अनुसार ऐक्यूएयर रिपोर्ट 2024 भारतवाशियों , राजनेताओं, उद्योगपतियों ,प्रशासन और वैज्ञानिकों के लिए  आत्मचिंतन का विषय है,कई प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का समय। क्यों हमारी देश की राजधानी सहित कुछ शहरों की हवा विषाक्त होती जा रही है?जो कारण सामने आएं हैं क्या उनसे निपटना असंभव है?क्यों भारतीय वैज्ञानिक और प्रशासन इस समस्या का स्थाई ईलाज करने में कमजोर साबित हो रहे हैं ? क्या भारतीयों को अब प्रदूषण के साथ जीने की आदत डालनी होगी?
 
भारत के राजकीय और केंद्रीय पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड क्यों भारत के कुछ शहरों को प्रदूषण मुक्त नहीं रख पा रहे? जनता क्यों प्रदूषित शहरों में रहने के लिए मजबूर है? जनता स्वयं क्यों  इस समस्या के समाधान के लिए प्रदूषक को न नहीं कहती? क्या इस समस्या के प्रमुख कारणों में शहरीकरण, विकास, आत्मनिर्भर के लिए औद्योगीकरण, बढ़ती जनसंख्या, संसाधनों का कुप्रबंधन है, या जनता में जनजागृति की कमी या फिर सरकारों में इच्छा शक्ति की कमी।
 
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज दुनिया भारत को उभरती हुई वैश्विक शक्ति, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था , आत्मनिर्भर और विकसित  हो रहे देश के रूप में देख रही है।हर भारतवासी को भारत की प्रगति पर गर्व है। लेकिन जब पर्यावरण और प्रदूषण की बात आती है, तो हम हर साल वही पुरानी रिपोर्ट पढ़कर चिंतित मात्र हो जाते हैं, कुछ दिन बहस करते हैं,मातम मनाते हैं और फिर सब कुछ भुला देते हैं। वो भी यह सब जानते हुए कि वायु प्रदूषण हानिकारक है, फेफड़ों तथा हृदय रोग के साथ कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का कारक है,आयु को कम कर सकता है, मृत्यु का कारण बन सकता है।
 
हर साल प्रदूषण पर (विशेष कर सर्दियों में)चर्चा होती है, लेकिन दीर्घकालिक समाधान कहीं नहीं दिखता। वाहनों से निकलने वाला धुआं, निर्माण स्थलों की धूल, पराली जलाने की समस्या आदि का समाधान केवल कागज़ों पर ही दिखता है।ऐसा क्यों और कब तक होता रहेगा? विचार  तो करना होगा, समाधान तो खोजना ही होगा?
 
समय का संकेत है कि आम से लेकर खास  देशवासियों तक को यह समझना आवश्यक है कि प्रदूषण समाप्त करना सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है।आम नागरिक का भी कुछ फर्ज बनता है कि नहीं।कभी विचार किया कि सड़क पर कचरा जलाने , खेतों में पराली जलाने,धुआं छोड़ते वाहन चलाने, हरियाली को खत्म करने, कारखानों की चिमनियो से दूषित धुआं छोड़ने आदि के लिए कौन जिम्मेदार है?हम कब जागरूक देशवासी होने का परिचय देंगे?
 
वायु प्रदूषण की यह कैसी समस्या जिस पर हर साल नई रिपोर्ट आती है, न्यूज़ चैनलों पर बहस होती है, सोशल मीडिया पर कुछ दिनों तक प्रदूषण ट्रेंड करता है और फिर सब शांत हो जाते हैं। यह चक्र देखकर हंसी आती है कि हम समस्या जानते हैं, समाधान जानते हैं, लेकिन उसे अपनाना नहीं चाहते।

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