हो रही है संसद में नेता प्रतिपक्ष की वापिसी

हो रही है संसद में नेता प्रतिपक्ष की वापिसी

2024 के लोकसभा चुनाव पूर्ण हुए और परिणाम सबके सामने है। कौन जीता कौन हारा यह एक अलग विषय है परन्तु इस चुनावी परिणाम ने लोकतंत्र को चाहने वालों को एक खुशखबरी भरा संदेश दिया है और वो है नेता प्रतिपक्ष की संसद में वापिसी, गौरतलब है कि पिछली दो बार की लोकसभा यानि 2014 और 2019 में चुनी गई लोकसभा बिना नेता प्रतिपक्ष के कार्यरत रही। 2014 और 2019 में विपक्ष की सब से बड़ी पार्टी कांग्रेस की क्रमश: 44 और 52 सीटें थी जो 543+2 सदस्यों के सदन में नेता प्रतिपक्ष पद पाने के लिए तकनीकी रूप से पर्याप्त संख्या नही थी। संसद के नियमों के अनुसार लोकसभा में यह पद पाने के लिए प्रमुख विपक्षी दल के पास लोकसभा की कुल सीटों मे से कम से कम 10 प्रतिशत अर्थात 55 सीटें होनी चाहिए। 1969 में पहली बार विपक्ष के नेता को आधिकारिक मान्यता दी गई थी। हालाँकि इस पद को 1977 में वैधानिक मान्यता दी गई थी तब  तक 10 प्रतिशत वाला निर्देश लागू रहा और  चुनाव में प्राप्त सीटों के आधार पर ही विपक्षी दल का दर्जा मिलता था।

1969 के चुनावों में पहली बार औपचारिक रूप से लोकसभा में विपक्षी दल अस्तित्व में आया। ऐसा कांग्रेस पार्टी के विभाजन के बाद हुआ था और कांग्रेस(ओ) 10 प्रतिशत सीटों से ज्यादा वाली पार्टी बन गई थी। लेकिन 1977 में इस निर्देश का महत्व नहीं रह गया क्योंकि उस साल संसद में नेता प्रतिपक्ष वेतन तथा भत्ता कानून पारित हो गया। इस कानून में पहली बार विपक्ष के नेता की आधिकारिक परिभाषा शामिल की गई क्योंकि न तो संविधान में और न ही प्रक्रिया नियमों में इसका उल्लेख था। इस परिभाषा के अनुसार, सरकार के विपक्षी दल का नेता उसे माना जाएगा जिसकी पार्टी के पास विपक्षी दलों में सबसे अधिक संख्या बल होगी एवं जिसे लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति यह दर्जा देंगे। इस कानून में विपक्ष के नेता का वेतन, भत्ता और उसे प्राप्त होने वाली अन्य कानूनी सुविधाओं का भी उल्लेख है। इस कानून के तहत ऐसी स्थिति में जब दो पार्टियों के पास समान संख्या बल होगा तो अध्यक्ष तय करेंगे कि किस पार्टी को यह दर्जा देना है। इस कानून में 10 प्रतिशत का कोई उल्लेख नहीं है। नियम सम्मत स्थिति तो यही है कि 1977 के कानून के मुताबिक अध्यक्ष के पास नेता प्रतिपक्ष का दर्जा न देने की शक्ति नहीं है।

उस स्थिति में भी जब किसी दल के पास 55 यानि 10 प्रतिशत सीटें भी नहीं हों परन्तु 16वीं लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष को तत्कालीन स्पीकर सुमित्रा महाजन ने नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने से इनकार कर दिया था। इसके लिए स्पीकर ने अटॉर्नी जनरल से सलाह ली थी। अटॉर्नी जनरल ने 1977 के कानून का परीक्षण किया और कहा कि नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने का मामला 1977 के कानून दायरे में नहीं आता है और उसका फैसला स्पीकर को लेना है यह उसका अधिकार है। इसके बाद लोकसभा में कांग्रेस के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला था। कांग्रेस ने 17वीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का दावा पेश नहीं किया क्यों कि उसके पास सीटों का आंकड़ा 10 प्रतिशत से कम था। लीडर ऑफ अपोजिशन या कहें नेता प्रतिपक्ष एक कैबिनेट स्तर की पोस्ट है और जो काफी ताकतवर मानी जाती रही है। शुरुआत में ये कोई औपचारिक पोस्ट नहीं थी।

  इस पद पर बैठा नेता कैबिनेट मंत्री के बराबर वेतन, भत्ते और बाकी सुविधाओं का हकदार होता है। नेता प्रतिपक्ष की कई अहम शक्तियां होती है।  वो सार्वजनिक लेखा, सार्वजनिक उपक्रम जैसी कई महत्वपूर्ण समितियों के सदस्य होता हैं। इसके अतिरिक्त वो कई संयुक्त संसदीय पैनलों और चयन समितियों का हिस्सा भी होता हैं। यह समितियां ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) जैसी केंद्रीय एजेंसियों के प्रमुखों की नियुक्ति भी करने का काम करती हैं। वहीं इसके अलावा नेता प्रतिपक्ष केंद्रीय सतर्कता आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग जैसे वैधानिक निकायों के प्रमुखों की नियुक्ति करने वाली समितियों में भी सदस्य होता हैं। भारतीय लोकसभा इतिहास में भाजपा दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवानी सबसे अधिक समय तक नेता प्रतिपक्ष के तौर पर कार्यरत रहे।

अपने राजनीतिक जीवन काल में वे कुल 7 साल 322 दिन इस पद पर रहे। भारतीय लोकसभा में औपचारिक रूप से पहले नेता प्रतिपक्ष राम सुभग सिंह थे। उन्होने यह पद 17 दिसंबर 1969 से 27 दिसंबर 1970 तक संभाला। भारतीय लोकसभा चुनाव 2024 दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव था। जिसमें लगभग 96 करोड़ मतदाताओं में से करीब 64 करोड़ लोगों ने वोट डाला। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है कि नेता जनता द्वारा चुने जाते हैं। विपक्ष किसी भी लोकतंत्र के बेहतर तरीके से काम करने के लिए जरूरी है। विपक्ष ही सरकार के हर काम पर नजर रख सकता है और जनता की आवाज बन सरकार 
तक जनता की जरूरतों की पैरवी कर सकता है।

यहां समझने वाली बात यह है कि सरकार चाहे किसी भी दल की हो गलतियां सभी सरकार करती हैं और करेंगी भी पर उन गलतियों पर किसी की नजर होनी भी जरूरी है। विपक्ष या विपक्षी पार्टियां जब मजबूत नहीं होती हैं तो सत्ताधारी पार्टी को मनमानी करने की गुंजाइश मिलती है। विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया कमजोर पड़ जाते हैं। ऐसे हालात में मीडिया फायदे के लिए या दबाव में एकतरफा हो जाता है और उसमें काम करने वाले लोगों को स्वतंत्रता और निष्पक्षता से काम करने में अड़चन आती है। सत्ता में एक ही पार्टी का होना या सिर्फ एक ही पार्टी का दबदबा होना इसलिए भी हानिकारक है क्योंकि जब कोई चुनौती नहीं होगी तो सतारूढ दल पूर्ण रूप से निरंकुश होता चला जाता है। वो अपने हर निर्णय को जनता पर थोंपने लगता है।

ऐसा हम पहले की सरकारों के समय में भी होता देखते रहे हैं और मौजूदा सरकार के राज में होता देखते रहे हैं। इन चुनावों के परिणाम आने के बाद नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस पार्टी का बनना लगभग तय है। लगता नही है सतारूढ दल इसमें कोई रूकावट डालने की कोशिश करेगा। अब यह कांग्रेस पार्टी का परम दायित्व बनता है कि वो इस पद के लिए सक्षम व्यक्ति का चुनाव करे और आम जनता की समस्याओ को उठाने के लिए ऐसा व्यक्ति दे जो ईमानदारी से बिना किसी निजी फायदे का सोच सदन में जनता की आवाज बुलंद करे और सतारूढ दल का जो निर्णय जनता के हक में ना लगे उसका डटकर विरोध करे। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी बात है कि दस साल बाद सदन में नेता प्रतिपक्ष की वापिसी हो रही है।

(नीरज शर्मा'भरथल)

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