विचारधाराओं से दूर होती राजनैतिक पार्टियां

विचारधाराओं से दूर होती राजनैतिक पार्टियां

सदैव सुधारों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति ही स्वस्थ लोकतंत्र की आत्मा है।

स्वतंत्र प्रभात 


रिपोर्ट-विमलेश विश्वकर्मा 


टांडा अंबेडकर नगर।लोकतंत्र की अवधारणा के पीछे स्वतंत्ररूप से चिंतन और मनन के साथ-साथ समय-समय पर मुद्दों आधारित समर्थन या विरोध करने की अवधारणा ही लोकतंत्र की जीवंतता का परिचायक होता है।जहाँ वैचारिक स्तर पर मतभेद होने के बावजूद राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों पर पारस्परिक एकाकी भावना अंगीकृत होती है।कदाचित विभिन्न विचारधाराओं वाले दलों का राष्ट्रीय मसलों पर एकमत होना औरकि कमियों को इंगित करते हुए सदैव सुधारों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति ही स्वस्थ लोकतंत्र की आत्मा है।

किंतु पिछले एक दशक से भारतीय लोकतंत्र में सत्तासीन या फिर सत्ता की जद्दोजहद में लगी राजनैतिक पार्टियों की सोच और विचारधारा में दिनोंदिन हो रही गिरावट औरकि विचारधाराओं से दूर हटने की स्थिति जहां स्वयम पार्टियों के अस्तित्व के लिए खतरे की घण्टी है वहीं लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं है।


    ब्रिटिश कालीन भारत में ए ओ ह्यूम द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अब जबकि अनेक विभाजनों के उपरांत सिमटकर परिवार विशेष तक सीमित रह गयी है तथा राष्ट्रीय सोच और विचारधारा के नाम से कभी चर्चित भारतीय जनता पार्टी में अटल-आडवाणी और जोशी युग की समाप्ति के पश्चात अब वह भाजपा भी नहीं रह गयी है।उत्तर प्रदेश में अनेकबार सत्ता सुखभोग चुकीं बसपा और सपा हालांकि बारम्बार अपनी पुरानी विचारधाराओं के अनुयायी होने का ढिंढोरा पीटती हैं किंतु कहना गलत नहीं होगा कि डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवाद का दम्भ भरने वाली समाजवादी पार्टी रत्तीभर भी उनके नक्शेकदम पर नहीं चलती औरकि बसपा तो


 अपना मिशन ही भूलकर शीघ्रातिशीघ्र झोली भरने तक सीमित होती जा रही है।लिहाजा धरातल पर आमजनमानस के लिए लेशमात्र कार्य नहीं हो रहा है।भ्रष्टाचार में आकंठ तक डूबी औरकि अधिकारियों की चाटुकारिता के बलपर सोशल मीडिया में शेखी बघारने वाली पार्टियों के नेताओं के घनचक्कर में आज भी जो जमीनी नेता हैं,उनकी अनदेखी जहां इन पार्टियों पर भारी पड़ रही है वहीं लोकतंत्र भी चुटहिल होता जा रहा है। 

सच कहें तो जननेता मुलायम सिंह यादव और जनेश्वर मिश्र के पश्चात अब समाजवादी पार्टी लोहिया के समाजवाद की विचारधारा से सैकड़ों कोस दूर हूं जबकि बसपा सत्ता के लिए हर सम्भव प्रयास करने से गुरेज नहीं कर रही है।भगोड़े और दलबदलू नेताओं को तरजीह देने से निष्ठावान कार्यकर्ता अब हतोत्साहित होते जा रहे हैं।लोगों में पैसे और प्रबगव के बलपर टिकट पाने की अवधारणा बनती जा रही है।कदाचित यही विचारधारा लोकतंत्र के लिए विष की खाईं सदृश जैसी है।
 

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