नेताओं से भले हमारे खिलाड़ी

हिन्दुस्तान और दुनिया के नेताओं से अच्छे मुझे दुनिया के खिलाड़ी लगते हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा नेता कहाँ बिकते हैं ,मुझे पता नहीं लेकिन इतना पता है कि  नेता बिकते हैं और भारत में उनकी अच्छी खासी मंडी है .दुनिया में पहले खिलाड़ी नहीं बिकते थे लेकिन नेताओं को बेचने -खरीदने में सिद्धहस्त हो चुके हमारे मुल्क ने खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त का रास्ता भी तैयार कर दिया 'आईपीएल '[इंडियन प्रीमियर लीग ] शुरू कर के .अब नेताओं के मुकाबले खिलाड़ी ज्यादा खुलकर बिकते हैं .


हिन्दुस्तान और दुनिया के नेताओं से अच्छे मुझे दुनिया के खिलाड़ी लगते हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा नेता कहाँ बिकते हैं ,मुझे पता नहीं लेकिन इतना पता है कि  नेता बिकते हैं और भारत में उनकी अच्छी खासी मंडी है .दुनिया में पहले खिलाड़ी नहीं बिकते थे लेकिन नेताओं को बेचने -खरीदने में सिद्धहस्त हो चुके हमारे मुल्क ने खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त का रास्ता भी तैयार कर दिया 'आईपीएल '[इंडियन प्रीमियर लीग ] शुरू कर के .अब नेताओं के मुकाबले खिलाड़ी ज्यादा खुलकर बिकते हैं .
नेताओं और खिलाड़ियों में मूल यानि   बुनियादी तौर पर एक बड़ा फर्क  होता है कि  खिलाड़ी  खेल भावना से खेलते हैं और नेता दुर्भावना से .खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से 'खेल' के जरिये बदला लेता है लेकिन नेता अपने प्रतिद्व्न्दी से 'खेला' करके  बदला लेता है .'खेल' और 'खेला' में भी जमीन-आसमान का अंतर है. 'खेल' सीमित होता है लेकिन 'खेला' असीमित .खेल हमारी संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा हुआ है जबकि 'खेला' हाल की ही ईजाद है .फिलहाल इसकी जड़ें बंगाल में हैं और धीर-धीरे पूरे देश में फैलने को आतुर हैं .
मुझे खिलाड़ियों का बिकना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि वे सार्वजनिक रूप से बिकते हैं और सिर्फ एक सीजन में एक बार बिकते हैं ,जबकि नेता एक ही सीजन में कई बार बिक सकता है और खुलकर बिकने में डरता है .नेता की कीमत भी अब हालांकि करोड़ों में पहुँच गयी है लेकिन आज भी खिलाड़ी के दाम नेताओं के मुकाबले ज्यादा हैं .खिलाड़ी जिस  टीम के लिए बिकता   है उसके लिए जी-जान से खेलता है लेकिन नेता जिस पार्टी के लिए बिकता है उसे भी कभी भी गच्चा दे सकता है .
भारत में नेता दशकों से बिक रहे हैं. पहले नेताओं की सबसे बड़ी मंडी हरियाणा में हुआ करती थी लेकिन अब हर सूबे में नेताओं की मंडियां है.नेताओं की कोई एमएसपी नहीं होती.इनके दाम दलाल तय करते हैं . खिलाड़ी व्यक्तिगत रूप से बिकता है लेकिन नेता फुटकर ही नहीं बल्कि पूरे गिरोह के साथ भी बिकते हैं यानि वे अपने नेता समेत बिक जाते हैं .खिलाड़ी की सार्वजनिक नीलामी होती है किन्तु नेता छिपकर बिकता है. रूठकर बिकता है ,बार्गेनिंग कर बिकता है .खिलाड़ी को बिकने में कोई लाज नहीं आती क्योंकि उसकी अपनी रेपुटेशन होती है जबकि नेता शर्माते हुए बिकता है. उसकी अपनी रेपुटेशन ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होती .
मुझे जहाँ तक याद है कि  भारत ने खिलाडियों के खरीदने-बेचने का काम 2008  में शुरू किया था लेकिन भारत में नेता तो आजादी के एक दशक बाद ही बिकने लगे थे .नेताओं के बिकने से राजनीति का स्तर बढ़ता नहीं बल्कि गिरता है किन्तु खिलाड़ी के बिकने से खेल का स्तर बढ़ता है .यानि निखार आता है .खिलाड़ी के प्रदर्शन से दर्शक का खेल के प्रति और खिलाड़ी के प्रति विश्वास गहराता है जबकि नेता के बिकने से राजनीति के प्रति मतदाता के मन में वितृष्णा पैदा होती है .
नेताओं और खिलाड़ियों में अंतर समझने के लिए एक अंतर्दृष्टि  चाहिए. ये ऊपर वाले की कृपा से मिलती है .आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हर खिलाड़ी की 'वेस प्राइज' होती है ,यानि हर खिलाड़ी एक तय कीमत के आगे जाकर ही नीलाम होता है जबकि नेता की कोई 'वेस प्राइज' नहीं होती,क्योंकि नेता का कोई 'वेस' ही नहीं होता. और इसीलिए उसकी नीलामी सार्वजनिक  नहीं होती .जो खिलाडी बिकते हैं उनके नाम और संख्या दुनिया जानती है लेकिन बिकाऊ नेताओं की संख्या का किसी को पता नहीं होता इसलिए उनकी नीलामी सार्वजनिक नहीं होती .बिके हुए नेता और बिके हुए खिलाड़ी कि प्रति सम्मान का भाव भी अलग-अलग होता है. 
मिसाल कि लिए इस बार आईपीएल कि लिए होने वाली नीलामी में दुनिया कि 590  खिलाड़ी हिस्सा ले रहे हैं ,लेकिन हमारे यहां अगले महीने   पांच राज्यों में बनने वाली सरकारों कि लिए कितने नेता और कब बिकेंगे कोई नहीं जानता .आप कह सकते हैं कि  नेताओं की खरीद-फरोख्त में पारदर्शिता का घोर अभाव है ,इसीलिए इस कारोबार को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता ,जबकि खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त में पारदर्शिता है इसलिए सब उन्हें सम्मान की नजर से देखते हैं .
मजे की बात  ये है कि  बिकने वाले खिलाड़ी का एक ट्रेक रिकार्ड होता है जबकि नेता का कोई ट्रेक रिकार्ड नहीं होता .ये भी पता नहीं चलता कि  कौन बिकाऊ नेता है और कौन टिकाऊ नेता ? जैसे आईपीएल 2022 की मेगा नीलामी के लिए फाइनल हुए 590 खिलाड़ियों में से 370 भारतीय और 220 विदेशी खिलाड़ी हैं. इस ऑक्शन में भारत के बाद ऑस्ट्रेलिया के सबसे ज्यादा 47 खिलाड़ीं हैं. 590 खिलाड़ियों में से 228 खिलाड़ी वे हैं जो पहले अंतरराष्ट्रीय मुकाबले खेल चुके हैं. वहीं, 335 खिलाड़ी ऐसे हैं, जिन्होंने अब तक इंटरनेशनल क्रिकेट में डेब्यू नहीं किया है.अब इस तरह का कोई आंकड़ा हम नेताओं कि बारे में सीना ठोंक कर नहीं बता सकते .
अपने तजुर्बे से मै कहना चाहता हूँ  कि  भारत में बिकाऊ नेताओं को खिलाडियों से कुछ सीखना चाहिए .खेल भावना सीख लें तो सोने पर सुहागा होगा लेकिन अगर ईमानदारी से बिकना ही सीख लें तो भी कम न होगा. पारदर्शिता कि साथ बिकने से कारोबार की इज्जत बढ़ती है .जिस कारोबार में पारदर्शिता नहीं होती उसे चोरबाजारी या कालाबाजारी कहते हैं .ये दोनों ही गैर-कानूनी हैं ,इसलिए नेताओं को इन दोनों से बचना चाहिए ,यानि परहेज करना चाहिए .मेरा सुझाव है कि  भारत में चुनाव आयोग को चुनाव कार्यक्रम   घोषित करने के साथ ही नेताओं कि चुनाव पूर्व और चुनाव बाद बिक्री की अवधि भी घोषित करना चाहिए .इससे राजनीतिक दलों को बहुमत हासिल करने में आसानी होगी और सरकारें बिना किसी लफड़े कि बन सकेंगीं .
खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त को जैसे भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड नियंत्रित करता है वैसे नेताओं की खरीद-फरोख्त को कोई नियंत्रित नहीं करता इसलिए केंचुआ इस जिम्मेदारी को अपने कन्धों पर ले सकता है .आपको शायद पता नहीं होगा लेकिन हकीकत ये है कि खिलाड़ी अपनी कीमत वसूल कर भारतीय अर्थव्यवस्स्था में अरबों,खरबों का योगदान देता है. योगदान तो नेता भी बिककर देते हैं लेकिन कितना ? ये पता नहीं चल पाता क्योंकि अधिकाँश लेन-देन चोरी-छिपे होता है .अब समय आ गया है कि  जैसे हमारी सरकार ने 'विट क्वाइन' को स्वीकार कर उससे होने वाली आमदनी पर 30  फीसदी आयकर लगा दिया है ,उसी तरह नेताओं की खरीद -फरोख्त को वैध मानकर इससे होने वाली आय पर   भी 30  फीसदी आयकर लगा दे .इससे देश की अर्थव्यवस्था को भी लाभ होगा और नेता खुलकर खरीदे,बेचे जा सकेंगे .मैंने अपनी बात हंसी-हंसी में कही है किन्तु इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है.
 राकेश अचल 

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