जनसंख्या वृद्धि से देश की अपनी समस्याएं ओर बढ़  जाएंगी

जनसंख्या वृद्धि से देश की अपनी समस्याएं ओर बढ़  जाएंगी

विजय गर्ग 
 
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की ताजा रपट के मुताबिक भारत की अनुमानित जनसंख्या 144.17 करोड़ हो गई है। इस तरह जनसंख्या के मामले में भारत विश्व में सबसे आगे है। चीन 142.5 करोड़ की जनसंख्या के साथ दूसरे स्थान पर है। रपट में बताया गया है कि अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के कारण भारत में मातृ मृत्यु दर में काफी गिरावट आई है। कहा जाता है कि चीन अब तक जनसंख्या के मामले में सबसे आगे था, इसके बावजूद वह विकास के मार्ग पर अग्रसर रहा। इसलिए ज्यादा जनसंख्या कोई समस्या नहीं है। दरअसल, चीन का उदाहरण देकर जनसंख्या के मुद्दे को कम आंकना तर्कसंगत नहीं है। यह समझना होगा कि भारत जन सघनता के मामले में चीन से तीन गुना आगे है।
 
चीन भौगोलिक रूप से बड़ा देश है आबादी और संसाधनों का बोझ उन्हीं देशों पर ज्यादा पड़ता है, जहां आबादी का घनत्व सबसे ज्यादा होता है।
हालांकि हमारे देश की जनसंख्या वृद्धि दर में भी कमी देखी गई है। देश के एक बड़े तबके में इसे लेकर जागरूकता आई है और लोग ज्यादा आबादी के नुकसान भी समझने लगे हैं। हालांकि इस दौर में जो लोग जनसंख्या नियंत्रण कानून की बात कर रहे हैं, उसके राजनीतिक निहितार्थ आसानी से समझे जा सकते हैं। दुखद यह है कि सरकारी नीतियों के चलते हम अभी तक आबादी को संसाधन के रूप में परिवर्तित नहीं कर पाए हैं। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में हमें आबादी बोझ ही दिखाई देगी। हमारे देश की आबादी का बड़ा हिस्सा युवा है। हमारे देश में बेराजगारी की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। ग्रामीण इलाकों में भी रोजगार का संकट बढ़ा है। अगर सरकार चाहे तो बेरोजगारी दूर कर बड़ी आबादी को संसाधन के रूप में परिवर्तित कर सकती है, लेकिन सरकार अपनी विफलता छिपाने के लिए जरूरी मुद्दों को टालकर अन्य गैरजरूरी मुद्दों को जानबूझ कर खड़ा कर देती है।
 
हालांकि जनसंख्या को लेकर हुए अध्ययन बताते हैं कि कुछ छोटे और समृद्ध देशों को छोड़ दें तो कमोबेश सभी देशों की आबादी बढ़ रही है। यह अलग बात है कि किसी देश की आबादी ज्यादा बढ़ रही है तो किसी की कम सवाल है कि भारत के संदर्भ में जनसांख्यिकी लाभांश के लिहाज से इस स्थिति को कैसे देखा जाए, जिसे इस सदी की शुरुआत से ही भारत की सबसे बड़ी शक्ति माना जा रहा है और इसके बल पर पूरी दुनिया को पीछे छोड़ देने की उम्मीद बांधी जा रही है। शासन की ओर से जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने की सघन कोशिशें देश में आपातकाल के दौरान ही हुई थीं। उसके राजनीतिक परिणाम देखकर बाद की सरकारों ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। हालांकि जनसंख्या वृद्धि को वे भी एक समस्या मानती रहीं।
 
इक्कीसवीं सदी आने के बाद आबादी में युवाओं की बढ़ती संख्या को एक अच्छी चीज माना जाने लगा। मगर कोरोना महामारी के बाद माना जाने लगा है कि अधिक जनसंख्या कई तरह से हमारे लिए बड़ा खतरा है। सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में विषाणुजनित रोगों के फैलने का खतरा ज्यादा होता है। ऐसे में यह राहत की बात लगती है कि देश के नीति-निर्माताओं ने तीन-चार दशक पहले ही जनसंख्या विस्फोट से उत्पन्न खतरों को भांप लिया था। इसका फायदा यह हुआ कि इस दिशा में कुछ न कुछ प्रयास होते रहे जबरन नसबंदी जैसे उपाय भले न दोहराए गए हों, लेकिन जनजागरण की मुहिम आधे-अधूरे ढंग से चलती रही। आज भी सरकार करोड़ों रुपए इससे जुड़े विज्ञापनों और परिचर्चाओं पर खर्च कर रही है, हालांकि इसके ठोस फायदे नहीं दिख रहे हैं। परिवार नियोजन नीतियों का भी ठीक ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जनसांख्यिकी लाभांश की बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन आज के दौर में पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी समस्याओं की जड़ में भी बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या ही है। दरअसल, जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बढ़ता है, जिससे बाकी सभी समस्याओं के तार जुड़े हुए हैं।
 
जाहिर है, जनसांख्यिकी लाभांश की आड़ लेकर हम जनसंख्या वृद्धि से आंखें नहीं मूंद सकते। हमें कुछ ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जिससे जनता स्वयं इस मामले में रुचि ले। आपातकाल के दौरान हुए प्रयोगों का अनुभव बताता है कि जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों और जनअवधारणों के बीच असंतुलन तथा संवादहीनता की स्थिति कायम रहेगी, तो बेहतर परिणाम सामने नहीं आएंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले पचास वर्षों में सरकार तथा विभिन्न सामाजिक संगठन जनता के साथ ऐसा संवाद स्थापित करने में नाकाम रहे हैं। हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि जनसंख्या नियंत्रण कोई ऐसा लक्ष्य नहीं है, जो सरकारी नीतियों और योजनाओं के माध्यम से हासिल हो जाएगा। जब तक इस समस्या की गंभीरता आम जनता नहीं समझेगी, तब तक इस संबंध में किसी सार्थक परिणाम की उम्मीद बेमानी है।
 
आज भी देश में बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। इस तबके में शिक्षा का प्रसार कम है। बड़ी संख्या में लोग निरक्षर हैं। ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े विज्ञापन और परिचर्चाएं किस हद तक प्रभावी होंगी, यह विचारणीय प्रश्न है। इस तबके को गर्भनिरोध के साधन उपलब्ध कराना तथा इनका सही ढंग से इस्तेमाल करना सिखाना भी एक बड़ी चुनौती है। जब तक हम इस चुनौती को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करना एक दिवास्वप्न ही बना रहेगा। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज जनसंख्या नियंत्रण के अधिकांश कार्य कागजों पर ही चल रहे हैं। इस काम में लगी अधिकांश संस्थाएं भी कुछ अपवादों को छोड़कर, लाभ कमाने के लिए ही कार्य कर रही हैं। सरकारी नीतियों का आलम यह है कि इस दौर में भी प्रलोभन देकर नसबंदी कराई जा रही है। इस कार्य के लिए किसी प्रकार का प्रलोभन नहीं दिया जाना चाहिए। प्रलोभन के आधार पर इस समस्या को जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकेगा, बल्कि ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलेगा।
 
शिक्षा और आर्थिक विकास की सीमित पहुंच के चलते समाज के बड़े हिस्से में बच्चों को कमाई का जरिया माना जाता रहा है, जबकि जनसांख्यिकी लाभांश की अवधारणा उन्हें शिक्षित प्रशिक्षित कार्यशक्ति मानने पर आधारित है। ऐसे में पहली जरूरत बच्चों को लेकर लोगों की सोच बदलने, फिर उनके बीच गर्भनिरोधकों का व्यापक पैमाने पर मुफ्त वितरण करने और कोई जटिलता आने पर उसका तत्काल समाधान निकालने के लिए व्यापक नेटवर्क विकसित करने की है। आज जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित कोई भी योजना लागू करते समय व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। लोगों में समय रहते यह समझदारी पैदा की जानी चाहिए कि जनसंख्या वृद्धि से देश का जो नुकसान होगा सो होगा, पर उससे पहले उनकी अपनी समस्याएं बढ़ जाएंगी।
 
विजय गर्ग शैक्षिक स्तंभकार मलोट

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