स्वतन्त्र प्रभात।
बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला’ यह शेर अपने 56 इंच सीने वाले साहब पर पूरी तरह खरा नज़र आ रहा है। कभी भी इंदिरा गाँधी, पंडित नेहरू और महात्मा गाँधी ने 56 इंच का सीना होने का दम्भ नहीं भरा, बल्कि अपने आचरण से 65 इंच का सीना जनता के सामने रखा जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जिनका दावा है कि उनका सीना 56 इंच का है
लेकिन पंजाब में उनका सारा दम्भ तिरोहित हो गया और बेचारा कार्ड खेलना पड़ा। पंजाब के फिरोजपुर में प्रस्तावित रैली रद्द करके प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने बठिंडा हवाई अड्डे पर पंजाब सरकार के अफसरों से कहा कि मैं सुरक्षित हवाई अड्डे लौट पाया, इसके लिए अपने मुख्यमंत्री को मेरी ओर से शुक्रिया कह देना। इसके बाद राजनीति तेज हो गयी है।
प्रधानमन्त्री मोदी अपनी छवि तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी जैसा साहसिक,दृढ़ प्रतिज्ञ और लौह महिला गढ़ने का स्वांग रचते हैं पर आचरण में उनके दसांश तक भी नहीं पहुँचते। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चोट लगने के बावजूद उड़ीसा के चुनावी दौरे पर रहीं और जनसभाओं को संबोधित किया। बात फरवरी 1967 के लोकसभा चुनाव की है। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी की अगुआई में चुनाव हो रहा था।
यही वह समय था जब उनके लिए गूंगी गुड़िया जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था। हालांकि वह जहां जाती थीं उन्हें सुनने वालों की भारी भीड़ उमड़ती थी। ऐसे ही एक प्रचार के दौरान इंदिरा उड़ीसा पहुंची थीं। राजधानी भुवनेश्वर में उनकी सभा थी। उस जमाने में उड़ीसा स्वतंत्र पार्टी का गढ़ हुआ करता था। इंदिरा ने जैसे ही बोलना शुरू किया कुछ उपद्रवियों ने पहले तो विरोध में नारेबाजी की और इसके बाद पत्थर बरसाने शुरू कर दिए।
स्थानीय नेता इंदिरा को भाषण समाप्त करने के लिए कहते रहे, लेकिन वह नहीं रुकीं। उन्होंने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा ‘क्या आप इसी तरह देश बनाएंगे? क्या आप इसी तरह के लोगों को वोट देंगे। इसी दौरान एक पत्थर उनकी नाक पर लगा और खून निकलने लगा, उन्होंने दोनों हाथों से बहते खून को पोछा। उनकी नाक की हड्डी टूट गई थी, लेकिन उन्होंने बोलना जारी रखा। उड़ीसा के बाद इंदिरा ने कोलकाता में जनसभा की। दिल्ली पहुंचने पर उनकी नाक की सर्जरी करनी पड़ी। इसके बाद कई दिनों तक उन्हें पट्टी बांधकर प्रचार करना पड़ा। यहाँ किसानों के प्रदर्शन से घबराकर मोदी जी उलटे पाँव लौट गये और जान का खतरा भी बता दिया।
सुनते थे कि पंडित जवाहरलाल नेहरू जब इंग्लैंड में पढ़ते थे तो दिन भर में 7 बार सूट बदलते हैं, पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस भी प्रदेश में जाते थे वहां का स्थानीय ड्रेस पहन कर लोगों के बीच में उपस्थित होते थे, फोटो खिंचवाते थे। नरेंद्र मोदी जी को तो उनके आलोचक परिधान मंत्री की संज्ञा से नवाजते हैं, वे दिन भर में कई ड्रेस बदलते रहते हैं, स्थानीय ड्रेस पहनकर फोटो सेशन करते हैं और ढोल मंजीरा भी बजाते हैं पर क्या उनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसा साहस और नैतिक बल है? शायद नहीं वरना वे पंजाब रैली निरस्त होने के बाद अपनी जान के खतरे का अरण्य रोदन न करते।
बात 1947 की है। विभाजन के बाद सीमा के दोनों ओर इंसान, इंसान के ख़ून का प्यासा हो गया था। चाहे लाहौर हो या कोई और जगह, हत्या और लूट का तांडव मचा हुआ था। जवाहरलाल नेहरू को अचानक ख़बर मिली कि दिल्ली के कनॉट प्लेस में मुसलमानों की दुकानें लूटी जा रही हैं।
जब नेहरू वहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पुलिस तो खड़ी तमाशा देख रही है और हिंदू और सिख दंगाई मुसलमानों की दुकान से औरतों के हैंडबैग, कॉस्मेटिक्स और मफ़लर ले कर भाग रहे हैं। नेहरू को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने पास खड़े एक सुस्त पुलिस वाले के हाथों से लाठी छीन कर दंगाइयों को दौड़ा लिया। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई ।
पूर्व आईसीएस अधिकारी और कई देशों में भारत के राजदूत रहे बदरुद्दीन तैयबजी अपनी आत्मकथा ‘मेमॉएर्स ऑफ़ एन इगोइस्ट’ में लिखते हैं, “एक रात मैंने नेहरू के घर पहुंच कर उन्हें बताया कि पुरानी दिल्ली से शरणार्थी शिविर पहुंचने की कोशिश कर रहे मुसलमानों को मिंटो ब्रिज के आस-पास घेर कर मारा जा रहा है। ये सुनते ही नेहरू तमक कर उठे और तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर चले गए। थोड़ी देर बाद जब वो उतरे तो उनके हाथ में एक पुरानी, धूल से भरी एक रिवॉल्वर थी। दरअसल ये रिवॉल्वर उनके पिता मोतीलाल की थी, जिससे सालों से कोई गोली नहीं चलाई गई थी।
लेकिन इससे भी मज़ेदार क़िस्सा ये है जब एक महिला नेहरू के सामने आ गई और उनका गिरेबान पकड़ लिया। दरअसल लोहिया के कहने पर एक महिला संसद परिसर में आ गई और नेहरू जैसे ही गाड़ी से उतरे, महिला ने नेहरू का गिरेबान पकड़ लिया और कहा कि “भारत आज़ाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढ़िया को क्या मिला। “इस पर नेहरू का जवाब था, “आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं ।”
एक ओर प्रधानमन्त्री अपनी तुलना महात्मा गाँधी से करते हैं और कहते हैं मैं तो फ़क़ीर हूँ झोला उठाऊंगा और चल दूंगा। लेकिन क्या वे महात्मा गांधी के जरा भी करीब हैं तो जवाब नहीं में ही मिलेगा। महात्मा गांधी दंगाइयों से भी नहीं डरते थे और नोआखाली में भीषण दंगों के बीच जाकर बैठ गए थे और दंगा शांत कराकर ही लोटे।