नोटा का होना या ना होना एक समान

लोकसभा चुनाव 2024 में गुजरात की सूरत सीट से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार मुकेश दलाल को निर्वाचन आयोग ने 22 अप्रैल  2024 को निर्विरोध विजेता घोषित कर दिया। भाजपा के मुताबिक यह पहला मौका है, जब उनकी पार्टी का कोई उम्मीदवार निर्विरोध रूप से लोकसभा चुनाव जीता है। दलाल के निर्वाचन के एक दिन पहले कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुंभाणी का पर्चा चुनाव आयोग ने रद्द कर दिया था। उसके बाद नामांकन पत्र वापसी के अंतिम दिन सभी आठ प्रत्याशियों ने अपने नाम वापिस ले लिए। इसके बाद भाजपा कैंडिडेट मुकेश दलाल निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिए गए। कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश कुंभाणी का पर्चा रद्द होने के बाद से दलाल की निर्विरोध जीत के कयास लग रहे थे। इस जीत ने चुनाव प्रक्रिया पर बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं। बेशक मुकेश ऐसे पहले उम्मीदवार नहीं हैं जो लोकसभा का चुनाव निर्विरोध जीते हों। आज तक हुए लोकसभा चुनावों में करीब तीन दर्जन उम्मीदवार निर्विरोध जीतकर लोकसभा में पहुंच चुके हैं परन्तु यदि इस मामले को आज की स्थितियों में देखे तो 2013 के चुनावों से मतदाताओं को नोटा के रूप में नया विकल्प दिया गया था।
 
नोटा की फुल फार्म है नन ऑफ द अबोव जिसका हिन्दी में अर्थ है उपरोक्त में से कोई नहीं। इस विकल्प का उपयोग मतदाता तब कर सकता है जब उसे अपने इलाके के उम्मीदवारों में से कोई भी उम्मीदवार पसन्द नही है। यहां सोचने वाली बात यह है कि बाकि प्रत्याशियों के नाम वापिस लेने के बाद बचे एकमात्र उम्मीदवार को नोटा के रहते जीता हुआ करार देना क्या ठीक है? सवाल पूछने का मुख्य उद्देश्य यह है कि वो निर्वाचित उम्मीदवार भी नन ऑफ द अबोव में से एक है। मुकाबले में दूसरे किसी उम्मीदवारों के ना होने के बावजूद जनता के पास नोटा दबाने का अधिकार तो है। किसी एक उम्मीदवार के मुकाबले में बचे रहने के बाद उसका मुकाबला नोटा से होना चाहिए परन्तु भारत में नोटा को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार प्राप्त नहीं हैं। जिसका मतलब यह हुआ कि अगर मान लीजिए नोटा को 99 वोट मिले और किसी प्रत्याशी को 1 वोट भी मिला तो 1 वोट वाला प्रत्याशी विजयी माना जायेगा। साल 2013 में नोटा के लागू होने के बाद चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि नोटा के मत केवल गिने जाएंगे पर इन्हे रद्द मतों की श्रेणी में रखा जाएगा। इस प्रकार साफ था कि नोटा का चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
 
नोटा को लाने के पीछे दलील यह दी गई थी कि जब तक देश में नोटा की व्यवस्था नहीं थी तब चुनाव में अगर किसी को लगता था कि उनके अनुसार कोई भी उम्मीदवार योग्य नहीं है, तो वो लोग वोट नहीं डालने ही नहीं जाते थे। ऐसे में मतदान के अधिकार से लोग वंचित रह जाते थे। ऐसे में साल 2009 में चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने संबंधी मंशा से अवगत कराया था। इसके बाद 
में नागरिक अधिकार संगठन या कहें पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ने भी नोटा का समर्थन करते हुए एक जनहित याचिका दाखिल की थी। जिसके बाद साल 2013 में न्यायालय ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने का निर्णय किया था। इस प्रकार ईवीएम में एक और विकल्प शामिल हुआ नोटा। हमारा देश नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने वाला विश्व का चौदहवां देश बना। भारत से पहले नोटा का विकल्प 13 देशों में मतदान के समय जनता के लिए उपलब्ध था। जिनमें अमेरिका, कोलंबिया, यूक्रेन, रूस, बांग्लादेश, ब्राजील, फिनलैंड, स्पेन, फ्रांस, चिली, स्वीडन, बेल्जियम, ग्रीस शामिल हैं। इनमें से कुछ देश ऐसे भी हैं जहां नोटा को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार मिला हुआ है।
 
जिसका मतलब है कि अगर नोटा को ज्यादा वोट मिलते हैं तो चुनाव रद्द हो जाता है और जो प्रत्याशी नोटा से कम वोट पता है वो दोबारा चुनाव नहीं लड़ सकता है। सूरत में भाजपा के मुकेश दलाल की जीत से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। हमारे देश की नोटा व्यवस्था को देख ऐसा लगता है कि इस व्यवस्था का उद्देश्य मात्र मतदान के आंकड़ो सुधारना है और  मात्र मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी दिखाना है अन्यथा इसके होने ना होने से कुछ फर्क नही पडता। देश के चुनावी मुकाबलों के सात दशकों में तीन दर्जन से अधिक बार ऐसा हुआ है, जब प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों के नामांकन पत्र खारिज होने या प्रतिद्वंद्वियों के मैदान से हटने के बाद कोई उम्मीदवार निर्विरोध जीता घोषित कर दिया गया हो। वर्ष 1951 में देश की स्वतंत्रता के बाद के पहले आम चुनाव में 10 उम्मीदवार निर्विरोध जीते थे। इसी तरह 1957 में लोकसभा चुनावों में 11 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए, 1962 में पांच, 1967 में पांच, 1971 में एक, 1977 में दो, 1984 में एक, 1989 में एक और 2012 के उपचुनाव में एक उम्मीदवार निर्विरोध जीते। 2012 लोकसभा उपचुनाव में उत्तर प्रदेश के कन्नौज में डिंपल यादव की जीत है।
 
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को कन्नौज लोकसभा सीट से निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया गया था, क्योंकि उनके खिलाफ मैदान में उतरे दो उम्मीदवारों ने उपचुनाव के लिए अपना नामांकन वापिस ले लिया था। 
कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी ने डिंपल के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और भाजपा सदस्य अपना नामांकन पत्र दाखिल करने में विफल रहे। आम चुनावों में निर्विरोध जीतने वाले प्रमुख राजनेताओं की सूची में पूर्व उप प्रधानमंत्री व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वाईबी चव्हाण, पूर्व संविधान सभा सदस्य और वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी , ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री हरेकृष्ण महताब, लक्षद्वीप के पीएम सईद और नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यपाल एससी जमीर शामिल है।
 
1980 में श्रीनगर से जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री व नैशनल कांफ्रेंस प्रमुख फारूक अब्दुल्ला भी निर्विरोध जीते थे। बहरहाल चुनावों में स्थिति यह कि नोटा का बटन हो या ना हो चुनावों पर कोई असर नही बनते। यदि सरकार या चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट असंतुष्ट मतदाताओं की आवाज भी लोकतंत्र में बुलन्द करना चाहती है तो नोटा को एक शक्ति के रूप में मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत करे अन्यथा नोटा का होना ना होना एक समान है।
 
(नीरज शर्मा'भरथल')

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