घटने की जगह बढ़ा है वीआईपी कल्चर 

भारत में वीआईपी कल्चर पर काफी समय से बहस चल रही है, इस बीच तमाम राजनैतिक दलों के द्वारा आवाज आई कि यह वीआईपी कल्चर ठीक नहीं है हम इसको समाप्त करेंगे। लेकिन यह बात केवल नारा बनकर ही रह गई और आम आदमी आज भी वीआईपी कल्चर के आगे लाचार है। बस इसका नाम बदलकर सुरक्षा का दर्जा दे दिया गया है। लाल नीली बत्तियों के आगे आम आदमी साधारण है और लोग इसका जमकर फायदा भी उठा रहे हैं। लाल नीली बत्ती जिनको दी गई है वह तो चलो ठीक है लेकिन वह लोग भी इसका प्रयोग कर रहे हैं जिनका इस पर कोई अधिकार ही नहीं है। हमने देखा है किसी भी बड़े नेता की रैली या रोड शो होता है तब पूरा शहर अस्त व्यस्त हो जाता है। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए नये नये रास्ते खोजने पढ़ते हैं। यदि वीआईपी कल्चर रखना ही है तो कम से कम उस स्थान को तो चुनो जिससे शहर में अव्यवस्थाएं न फैलें।
               
कुछ वर्ष पहले आम आदमी पार्टी वीआईपी कल्चर को खत्म करने का नारा लेकर दिल्ली में सत्ता में आई थी लेकिन कुछ समय तक तो उन्होंने इसके प्रयोग को अपनाया लेकिन फिर वह भी उन सब में रम गए जो पहले इस वीआईपी कल्चर को अपनाते थे। कहने का मतलब वीआईपी कल्चर से कोई परहेज नहीं है लेकिन जब आम आदमी उससे परेशानी में आ जाए तो यह ठीक नहीं है। सुरक्षा व्यवस्था को भी वीआईपी की श्रेणी में लोग ले आए हैं चाहे उन्हें उस सुरक्षा व्यवस्था का खर्च स्वयं क्यों न उठाना पड़े। तमाम नेता ऐसे हैं जिनको सरकार गनर नहीं मुहैया कराती लेकिन यदि वह स्वयं उसका खर्च वहन करे तो उपलब्ध हो सकता है। क्यों कि जिस नेता के पास गनर न हो वह नेता अपनी तौहीन समझते हैं। यही कारण है कि वीआईपी कल्चर घटने की जगह बढ़ रहा है।
               
कई देश में प्रधानमंत्री मेट्रो से सफर करते हैं उनके साथ गाड़ियों का लंबा काफिला नहीं होता लेकिन हमारे यहां यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है। जब तक चौराहे के चारों रास्ते न बंद कर दिए जाएं तो कैसे पता चलेगा कि कोई वीआईपी निकल रहा है। आजकल मंदिरों में भी वीआईपी दर्शन का ट्रेंड चल गया है आप किसी भी धार्मिक स्थान के बड़े मंदिर में जाइए वहां वीआईपी दर्शन की शुरुआत हो चुकी है। नेताओं और बड़े अधिकारियों के लिए वीआईपी दर्शन निःशुल्क होते हैं वही आम जनता को उसके लिए अतिरिक्त पैसा खर्च करना पड़ता है। वीवीआईपी दर्शन के लिए आपको घंटों की लंबी कतारों में नहीं खड़ा होना पड़ता है और बिल्कुल नजदीक से दर्शन होते हैं। यह कहां तक उचित है। चुनाव के वक्त यही जनता देवतुल्य होती है और चुनाव बाद यह जनता साधारण हो जाती है। मतलब हम ही लोगों को चुनकर वीआईपी बनाते हैं और फिर हम साधारण हो जाते हैं। देश में वीआईपी कल्चर पर जितना पैसा खर्च होता है शायद यदि उतना पैसा देश के विकास में लगे तो कायाकल्प हो जाए।
               
यह वीआईपी कल्चर हर सरकार में होता चला आ रहा है। हमारी सरकारों ने इसको खत्म करने की बात तो कई बार की है लेकिन यह कल्चर कभी समाप्त नहीं हो सका और शायद न ही हो सकता है। किसी नेता के आने पर शहर के रास्तों को बैरीकेड कर देना कहां का इंसाफ है उसमें न जाने कितने आवश्यक कामों में परेशानियां आती हैं। एक बीमार समय से डाक्टर के पास नहीं पहुंच पाता। बच्चों को स्कूल जाने में परेशानी होती है। नौकरीपेशा प्राइवेट और सरकारी समय से अपने आफिस नहीं पहुंच पाते हैं। व्यापारियों का सामान नहीं आ पाता है और तो और बस सेवा और रेल सेवा भी प्रभावित हो जाती है। यदि हम प्लानिंग के तहत इस कार्य को करें तो आम आदमी की तमाम परेशानियों को बचाते हुए भी कार्य कर सकते हैं।
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देश के बड़े मंदिरों में आज जब हम जाते हैं तो वीआईपी द्वार देखकर जो मन में भावना आती है वह किसी से नहीं कह सकते कि इस वीआईपी कल्चर ने देवस्थलों को भी नहीं छोड़ा। और लोग बड़े ही गर्व से कहते हैं कि हमने तो वीआईपी दर्शन किए हैं। शायद भगवान वीआईपी लोगों की ज्यादा सुन लेता हो। तभी तो अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। हम इस वीआईपी कल्चर को कम करने की पहल करनी होगी नहीं तो समाज में एक कुंठा व्याप्त हो सकती है। शहर से जब किसी वीआईपी का काफिला निकलता है तो अचानक उस रास्ते को रोक दिया जाता है। फिर चाहे उसमें कोई भी आवश्यक सेवा फंसीं हो। हम जितना वीआईपी कल्चर को रोकना चाहते हैं वह उतना ही और अधिक बढ़ रहा है। जो कि देश की जनता के हित में नहीं है, हमें इसपर अवश्य सोचना होगा।
 
जितेन्द्र सिंह पत्रकार 

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