स्वतंत्र प्रभात
संजीव-नी।
मशवरा है कि तेरे शहर की महफिल।
मशवरा है कि तेरे शहर की महफिल बदले,
अब तक तो कभी खंजर कभी कातिल बदले।
जिंदगी किस्तों में गुजर गई तो क्या,
जितने हमदर्द थे सारे शामिल बदले।।
लहरें चली आई मचलते हुए शहरों में,
अब ना तो कश्ती ना ही साहिल बदले।
कत्ल मेरा इल्जाम नहीं है उस पर,
कितना मासूम लगे रूप जब कातिल बदले।
जिंदगी ने दिए हजारों जख्म हमें,
जिंदगी के गणित में सारे हासिल बदले।
संजीव ठाकुर,