अपनी माटी की ओर चलें एक कदम

हम सब भारत की माटी में जन्मे पले बढ़े। हम सबके जीवन में माटी का बड़ा महत्व है। चाहे हम भारत में हो या दुनिया के किसी देश में हों। बात जब माटी की होगी तब भारत का ही नाम लेते हैं। अपनी माटी अपनी ही है। हमारे लोक जीवन में बार-बार माटी की बात आती है। आधुनिक कथित सोंच ने मिट्टी को डस्ट और एलर्जी वाली वस्तु बताना काफी पहले शुरू किया। मगर एलर्जी वह भी माटी से कोई ठोस तथ्य ना आ सके। पहले घर भी माटी के होते थे। अब भी प्रायः गाँवों में माटी के घर हैं। आर्थिक सामाजिक परिवर्तन के कारण अब पक्के घर अधिक दिखाई देते है।

माटी के घरों की पुताई माटी से ही होती थी। नीचे माटी ऊपर माटी सब तरफ माटी ही प्रयोग होती रही है। घर में गृहस्थी के नाम पर सबसे अधिक माटी के बर्तन होते थे। जिन्हें हम गगरी,घड़ा ,कलश,मटका,सुराही,मटकी जैसे शब्द प्रयोग अपनी सुविधा और क्षेत्र लोक भाषा के आधार पर नाम रखते थे। अब गाँव और नगर दोनों में सुराही के पानी पर चर्चा होती है।अपने गाँव में कुम्हार परिवार माटी के खिलौने,गगरी,कलश,सुराही, मट का ,मटकी, दिया,डियाली के अलावा विभिन्न प्रकार माटी के उत्पादो को बनाते थे। अब परम्परा टूट गयी। कुम्हार परिवारो के सामने रोजी रोटी का संकट है।वे उपेक्षा का शिकार हैं।

गांव में भी प्लास्टिक की बाल्टी टोंटी वाली पहुंच गई है।जिसे वाटर बैग कहते हैं। माटी के सोंधेपन पर हम सब गांव वाले सीधे ही जुड़े हैं। कोई एक गिलास सुराही,घड़े का पानी पिला दे तो लगता है यह मेरा वही बचपन वाला पानी है। जिन लोंगो को माटी के कुएं ,ईट से बने कुए का पानी पीने का सौभाग्य मिला वही उसकी तासीर को आत्मसात कर सकते हैं। मांगलिक कार्यक्रमों विवाह, तिलकोत्सव, (फलदान ) मुंडन ,छेदन,उपनयन संस्कार में माटी के बर्तन ही प्रयोग होते थे। माडौ (मंडप) के नीचे कलश माटी का ही जल भरकर रखा जाता है। रंगविरंगे अक्षत लगाए जाते हैं ।उसकी सतरंगी छटा हम सब ने देखी है। हमें याद है पच्चासी छियासी के दशक तक रसगुल्ला, जलेबी, बर्फी, कुल्फी ,माटी की ही तश्तरियों (प्लेट)में ही अतिथियों को मांगलिक कार्यक्रमों में दी जाती थी।
 
पानी पीने के लिए जिन्हें कुछ लोग हुंडा कहते हैं। कुछ लोक भाषा में कुज्जा भी कहा जाता है। प्रयोग होते थे। तब की स्थिति में उसे हम सब तालाब से आई माटी ही जानते हैं। एक प्रक्रिया से कुम्हार तालाब से माटी लाते। माटी को कूटते , पीसते पानी डालकर चाक पर बर्तन बनाते। आवां में बर्तन पकाया और प्रयोग के लिए तैयार करते। यही बर्तन लोगों को प्रयोग के लिए देते थे। प्रत्येक कुम्हार के अलग अलग किसान होते थे। बर्तन प्रयोग के बाद फिर वापस माटी में मिल जाते। माटी माटी हो गई। मिट्टी मिट्टी हो गई।यह प्राकृतिक समन्वय था। इस पर मीटिंग और बैठकों के प्रस्ताव न थे।
 
इसका यह अर्थ भी हमारे कवि मनीषियों ने बताया है कहा कि हमारा शरीर भी माटी है। कुछ भी कर लो, लगा लो,महका लो। चमेली से जूही से गुलाब से पारिजात से मगर माटी को माटी ही होना है। इसे कबीर दास ने कागद कहा। यहु संसार कागद की पुड़िया बूंद परे घुलि जाना है। अब हम अति शहरी जीवन की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। कुम्हारों का भारी नुकसान हुआ है। उन्हें प्रजापति भी कहा जाता है। हो सकता है वह प्रजापति। दक्ष प्रजापति के वंशज हों। माटी के बर्तनों का काम आदिकाल से करते हैं। पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों मृदभांडों से सभ्यताओं और संस्कृतियों के निष्कर्ष निकालते हैं। सिंधु घाटी और मोहनजोदड़ो में यही जांचा। राखीगढ़ी और धोलावीरा को जांचा। मिले रथो को भी जांचा। अर्थात माटी हमारे आदि अनादि के प्रमाण दे रही है।
 
 मगर आधुनिक विज्ञानियों ने प्लास्टिक की बोतल बनाई। पहले बड़ी अब छोटी भी उपलब्ध हैं। एक बड़ा हिस्सा हमारे जीवन में प्लास्टिक का है। वह हमें प्रतिपल प्रभावित कर रहा है हम जिस पेन से लिख रहे हैं इसका का भी 98% भाग प्लास्टिक का ही है। प्लास्टिक ने हमें माटी से दूर किया, कि परंपरा को प्लास्टिक ने नष्ट किया। कुम्हारों का व्यवसाय तहस-नहस किया। सामग्री रखने के लिए आधुनिक डिब्बे हैं। कुछ डिब्बे खुलने के और बंद होने की मशीनों से युक्त हैं। मगर माटी से तो पृथक ही किया प्लास्टिक ने। आज हमारे कुम्हार परिवार अपनी महान परंपरा से बाहर हैं।
 
अन्य व्यवसाय के लिए पीड़ित ह सरकारों ने कुछ नाम मात्र कुम्हारों को भूमि पट्टा माटी के लिए दिए भी। मगर कुम्हारों का अपनी माटी बर्तन काम से पलायन नहीं रोक पाए। इससे जहां रासायनिक कचरे को अपने भीतर ,समुद्र के भीतर ,जल में घुलनशील बना रहे हैं। इधर उधर की बातें हैं ।अपनी माटी अपना देश अपना पर्यावरण नहीं करते । तब तक हम प्रदूषण, प्लास्टिक प्रदूषण ,और बर्तनों के प्रदूषण को शरीर में पहुंचाते रहेंगे। शरीर रुग्ण रहेंगे। बीमारियां बढ़ती रहेंगी। लाखों रुपए दवा इलाज कराने में खर्च होते रहेंगे।
 
माटी का स्वास्थ्य खराब हो रहा है जिस तरह से हमारे अंदर प्राण हैं उसी तरह से धरती में प्राणवायु है। पृथ्वी में एक विशेष गंध है उसे सगंधा कहा गया। वह गंध अनेक जहरीले रसायनों से खराब हुई है । खेती करने की परंपरा को काफी पहले खाद से हटाकर वैज्ञानिकों ने किसानों को उर्वरकों की ओर ध्यान आकर्षित कराया था । फिर फसलों को कीटों पतंगों से बचाने के लिए रसायनों के छिड़काव के परामर्श आकाशवाणी और अन्य समाचार माध्यमों से प्रसारित किए गए। अब कृषि वैज्ञानिक ही कह रहे हैं कि रसायनों के प्रयोग से बचे। हम कह सकते हैं कि भारत की आदिकालीन कृषि परंपरा में रसायन खोलकर कर क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचाया गया है ।
 
इसकी भरपाई हाल-फिलहाल होती नहीं दिख रही है। आज भी नवरात्र में हम कलश स्थापित करते हैं। माटी के कलश से ही स्वर्ण कलश की यात्रा है।वही कुम्भ है । कुम्भ ही अर्द्धकुम्भ और महाकुम्भ है। वही अमृतकलश है। उसी के पीछे देव और दानव दोनों भागे। कुम्भ कलश से जो पदार्थ बाहर गिरा वह अमृत है। मगर कलश वही। प्राचीन साहित्य में खेती की विशद चर्चा है। हमारे ऋषियों ने कहा थोड़ी से असावधानीकृषि और पशुओं को नष्ट कर देती है। जीवन का आधारभूत तत्व पृथ्वी है। इसी पर सारे प्राणी जन्म लेते है।
 
पृथ्वी ही सबको धारण करती है। इसी से नाम पृथ्वी पड़ा। पृथ्वी ही सभी प्राणियों वनस्पतियों का मधु है। सभी प्राणी इस पृथ्वी के सारतत्व है। भूमि पर ही एश्वर्य है। भूमि पर सारे भोग है। यही हमारी संस्कृति है। हमारी सीता है। पृथ्वी विविध रंगधमा्र हैं कही काली हैं। कहीं भूरी है, लाल है,कंकड़ है। भिन्न भिन्न तरह की हैं। भारत का संस्कृति में प्रातः काल धरती को प्रणाम करने की ऋषि परम्परा हैं जिसे हम प्रणाम करते है। उसके प्रति श्रद्धाभाव और आदर होता है। आईये हम सब अपनी मातृभूमि माटी की रक्षा और उसके स्व के लिए मिलकर काम करें। जिम्मेदारी हमारी आपकी भी है। आओ अपनी माटी के लिए माटी के लिए एक कदम चलें।

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