राम अयोध्या आ गये हैं, अब चार सौ पार

भारतीय जनता पार्टी ने नया नारा दिया है अबकी बार चार सौ पार। और यह सब अचानक नहीं है इसकी रणनीति काफी पहले से तैयार हो रही थी। हां यह बात अलग है कि चार सौ पार नहीं तो नैया तो पार करा ही देंगे राम जी क्यों कि जनता का मूड भांपकर ही भारतीय जनता पार्टी कोई कदम उठाती है। और यही वजह है कि सभी भारतीय जनता पार्टी से जुड़ते चले जा रहे हैं। नितीश कुमार 15 महीना पहले भारतीय जनता पार्टी पर तमाम आरोप लगाकर आरजेडी से मिलकर सरकार बनाए थे। और कसम खाई थी कि अब कभी एनडीए में शामिल नहीं होंगे। जब कि नितीश ने ही भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ इंडिया गठबंधन को खड़ा किया था। ममता बनर्जी पहले ही इंडिया गठबंधन का साथ छोड़ चुकी थीं। और बाद में नितीश कुमार ने भी साथ छोड़ दिया हालांकि ममता किसी के साथ नहीं गई हैं और उन्होंने अकेले चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। आम आदमी पार्टी ने असम में अपने दो प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। यहां कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है जो कुछ भी हो रहा है, होना ही था क्योंकि सभी दलों ने देश का मूड समझ लिया है। इसलिए कोई नहीं चाहता कि हम मूड को भांपने के बाद भी अपनी सीटों का बंटवारा करें। उत्तर प्रदेश में भी मामला गंभीर नजर आ रहा है। हालांकि अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी को आठ सीटें दे दी हैं लेकिन अभी कुछ भी हो सकता है और अभी तो चुनाव की घोषणा भी नहीं हुई है। सूत्रों की मानें तो भारतीय जनता पार्टी जयंत की आरएलडी को चार सीटें दे रही है लेकिन उन चार सीटों में मंत्री पद भी शामिल हो सकता है। यदि भारतीय जनता पार्टी ने कुछ बहुत दरियादिली जयंत के साथ दिखाई तो शायद जयंत भी उसी खेमे में दिखाई देंगे। सत्ता से दूर रहने में कोई फायदा नहीं है, इससे पार्टी कमजोर होती है। बस यही इन दलों का मानना है। जिस तरह से इंडिया गठबंधन में एक एक जुड़े थे उसी तरह एक एक करके निकलते जा रहे हैं।
 
 अखिलेश यादव पीडीए का नारा देकर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। ऐसा समझा जा रहा है कि वह भी इंडिया से किनारा करने के मूड में हैं क्योंकि समाजवादी पार्टी ने अपनी पहली लिस्ट में उन सीटों पर भी अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं जो कि कांग्रेस पार्टी लेना चाहती थी। पीडीए का मतलब है पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। यदि देखा जाए तो कोम्बिनेशन तो अच्छा है लेकिन बात वही है कि वह कितना दलित कितना पिछड़ा और कितना अल्पसंख्यक अपने पक्ष में कर पाते हैं यह उस पर निर्भर करेगा। क्यों कि यही कोम्बिनेशन बहुजन समाज पार्टी का भी है। हालांकि बहिन जी इस बार काफी शांत दिखाई दे रही हैं लेकिन उनकी शांति भी दूसरों का खेल बिगाड़ने का दम रखती है। दलित वोट तो मायावती के साथ है ही, लेकिन इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के किसी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ही सर्वाधिक अल्पसंख्यक प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारती है। भले ही उसके प्रत्याशी जीत न हासिल कर सकें लेकिन खेल बिगाड़ने के लिए वह पर्याप्त हैं। बहुजन समाज पार्टी का दलित वोट तो इस क़दर मायावती का सपोर्टर है कि यदि वह स्वयं कह दें कि दूसरी पार्टी के प्रत्याशी को वोट करना है तब भी वह शिफ्ट नहीं होगा। क्यों कि पिछले लोकसभा चुनाव में में ऐसा देखा जा चुका है। पिछला लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक साथ मिल कर लड़ा था। उस चुनाव में समाजवादी पार्टी केवल पांच सीटों पर विजई हुई जब कि बहुजन समाज पार्टी ने दस सीटों पर कब्जा किया मतलब सपा से दोगुनी सीटें बहुजन समाज पार्टी ने हासिल की। जब कि उसके बाद हुऐ विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी केवल एक सीट ही जीत सकी। मतलब साफ था कि उस चुनाव में सपा का वोट तो बसपा में ट्रांसफर हो गया लेकिन बसपा का वोट सपा में ट्रांसफर नहीं हो सका। यदि बसपा का वोट सपा को मिलता तो इससे कहीं ज्यादा सीटें सपा की झोली में होती। इसलिए उत्तर प्रदेश में मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच ही होने की ही उम्मीद है।
मध्य भारत की बात करें तो यहां भारतीय जनता पार्टी की स्थिति बहुत अच्छी है यह एक हिंदी भाषी क्षेत्र है जिसमें हम मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, और बिहार को ले सकते हैं। हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने तीनों राज्यों में विजय हासिल की जब कि उत्तर प्रदेश में उनकी सरकार अच्छे खासे बहुमत के साथ चल रही है। जब कि बिहार में दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में है और इस समय सरकार में भी शामिल है। हिंदी भाषी राज्यों में धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों की संख्या अत्यधिक है और अयोध्या के आयोजन ने यह सिद्ध कर के दिखा भी दिया कि फिलहाल यहां पर किसी का भी टिक पाना बहुत मुश्किल है। यहां उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी बिहार में आरजेडी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अच्छी टक्कर देगी परंतु भारतीय जनता पार्टी को पछाड़ने का माद्दा अभी किसी भी पार्टी में नहीं दिखाई दे रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने अयोध्या के आयोजन से यह सिद्ध कर दिया है कि वह इसी मुद्दे को अंततः प्रमुख बना के रखेगी क्यों कि अयोध्या में जनसैलाब ने जिस तरह के रिकार्ड तोड़े हैं। वह भारतीय जनता पार्टी के लिए संजीवनी बन गये हैं। हालांकि इन प्रदेशों में अन्य तमाम मुद्दों पर चर्चा की जाए तो काफी कुछ भारतीय जनता पार्टी के विरोध में भी जाता है लेकिन राममंदिर और सनातन धर्म मुद्दे ने सभी मुद्दों को दबा दिया है। और भारतीय जनता पार्टी इसी को अपना प्रमुख हथियार मान कर चल रही है। हमने देखा है कि चार बार से मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार चल रही थी और इस बार सभी राजनीतिक विश्लेषकों को पूरी उम्मीद थी कि वहां सत्ता का परिवर्तन होगा। लेकिन सारे कयासों पर उस समय विराम लग गया जब पांचवीं बार भी भारतीय जनता पार्टी ने सरकार का गठन कर लिया। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार थी जिसे भारतीय जनता पार्टी ने उससे छीना है। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने जो नारा दिया है कि अबकी बार 400 पार उसकी सुगबुगाहट दिखाई दे रही है। कहीं कोई परेशानी नजर नहीं आ रही है। लेकिन फिर भी सतर्कता तो रखनी ही होगी। क्यों कि यह राजनीति है और इसमें अप्रत्याशित परिणामों को होते देखा गया है।
दिल्ली और पंजाब पर आम आदमी पार्टी का कब्जा है लेकिन दिल्ली में मात्र लोकसभा की सात सीटें हैं और यहां बड़ा ही उलटफेर होता है। यहां का वोटर जहां एक ओर विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से आम आदमी पार्टी की सरकार बनाता है वहीं दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव में साभी सातों सीटें भारतीय जनता पार्टी की झोली में डालता है। यहां पर या तो भारतीय जनता पार्टी दिल्ली का संगठन कमजोर है और वह केन्द्र में मोदी सरकार ही देखना चाहता है या केन्द्र में उसको कोई विकल्प नहीं नजर आता है। दिल्ली की तरह पंजाब में भी आम आदमी पार्टी की सरकार है और यहां से भारतीय जनता पार्टी को कोई विशेष उम्मीद भी नहीं है। क्यों कि कई प्रयासों के बाद भी भारतीय जनता पार्टी यहां के वोटर पर अपनी छाप नहीं छोड़ सकी। दक्षिण भारत के राज्यों की बात की जाए तो यहां पर कांग्रेस पार्टी काफी आगे है। और भारतीय जनता पार्टी को जो भी खतरा दिखाई दे रहा है वह दक्षिण के राज्यों में ही दिखाई दे रहा है। कर्नाटक, मिजोरम और असम में कांग्रेस की सरकारें हैं अन्य राज्यों में भी उसकी स्थिति मजबूत है लेकिन यहां भारतीय जनता पार्टी के पास न ही कुछ पाने के लिए है और न ही कुछ खोने के लिए। क्यों कि यहां कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दलों की स्थिति भी मजबूत है। यदि हम महाराष्ट्र की बात करें तो यहां एनसीपी और शिव सेना को इस कदर तोड़ दिया है कि चुनाव आयोग उनको असली पार्टी ही नहीं मान रहा है। चाहे वह उद्धव ठाकरे की शिव सेना हो या शरद पवार की एनसीपी।
चुनाव आयोग ने अजित पवार की एनसीपी और सिंधे की शिव सेना को मुख्य पार्टी का दर्जा दिया है।
महाराष्ट्र में कांग्रेस की स्थिति मध्यम है और यदि शरद पवार और उद्धव ठाकरे के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है तो परिणाम अच्छे ला सकती है। लेकिन यह सत्य है कि यदि इंडिया गठबंधन टूटा नहीं होता तो नजारा कुछ अलग ही दिखाई देता। लेकिन इंडिया गठबंधन के टूटने के बाद शायद भारतीय जनता पार्टी का नारा सही दिखाई दे रहा है।
 
 
 
   ....जितेन्द्र सिंह पत्रकार
 
 
 
 

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