मर्यादा एक मापदण्ड अनेक ? 

 
                                                                                   तनवीर जाफ़री
 
                                                बात का बतंगड़ कैसे बनाया जाता है यह हमारे देश के नेताओं से बेहतर भला और कौन जा सकता है ? भारतीय राजनीति में अक्सर ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं जब बे बात की बात को इतना बढ़ा दिया गया कि जन सरोकारों से जुड़े वास्तविक मुद्दे पूरी तरह परिदृश्य से ग़ायब हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी तो ख़ास तौर पर तिल का ताड़ बनाने में काफ़ी महारत रखती है। इन दिनों ऐसा ही एक मुद्दा उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ से जुड़ा हुआ चर्चा में है। पिछले दिनों नवनिर्मित संसद भवन में चल रही कार्रवाई के दौरान सुरक्षा में हुई भारी चूक को लेकर संसद के शीतकालीन सत्रावसान तक भारी हंगामा देखा गया। भारतीय संसदीय इतिहास में पहली बार लगभग 150 सांसदों को निलंबित कर दिया गया। इसी निलंबन को लेकर तथा संसद की सुरक्षा चूक की जांच की मांग को लेकर विपक्षी सांसद, संसद भवन के भीतर व बाहर प्रदर्शन कर रहे थे।
 
इसी बीच टीएमसी के एक सांसद कल्याण बनर्जी ने राज्यसभा के सभापति धनखड़ की नक़ल उतारते हुये राहुल गांधी सहित अनेक निलंबित सांसदों को संसद भवन के बाहर सीढ़ियों पर सम्बोधित किया। बस  धनखड़ की उतारी गयी यही नक़ल भाजपा के लिये न केवल संसदीय गरिमा को धूल धूसरित करने का मुद्दा बन गयी बल्कि बड़ी चतुराई से इसे जाटों के स्वाभिमान से भी जोड़ने की कोशिश कर दी गयी। यहाँ यह कहने की ज़रुरत नहीं कि सरकारी व दरबारी मीडिया भी इस मुद्दे पर सरकार से जुगलबंदी में मसरूफ़ रहा। 
 
                                                जिस समय देश का मीडिया मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान बांटने के लिये 'उपराष्ट्रपति की मिमिक्री यानी जाटों का अपमान' जैसा नरेटिव देश पर थोपने की कोशिश कर रहा था उसी समय भारतीय कुश्ती महासंघ का चुनाव हो रहा था। और भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष व सांसद बृज भूषण सिंह के बेहद क़रीबी वाराणसी निवासी संजय सिंह भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद पर भारी बहुमत से निर्वाचित हो रहे थे। भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष व सांसद बृज भूषण सिंह वही नेता हैं जिनपर कई महिला पहलवान खिलाडियों द्वारा उनका यौन शोषण करने का आरोप लगाया गया था। इस मामले ने इतना तूल पकड़ा था कि सांसद बृज भूषण सिंह की गिरफ़्तारी की मांग करते हुए साक्षी मलिक, विनेश फ़ोगाट और बजरंग पुनिया सहित अनेक खिलाड़ियों द्वारा कई सप्ताह तक दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया गया था।
 
इस प्रदर्शन में देश के तमाम जाने माने लोग भी समय समय पर शामिल हुये थे। यहां तक कि नव निर्मित संसद भवन के उद्घाटन के दिन इन प्रदर्शनकारी खिलाड़ियों की दिल्ली पुलिस के साथ हाथापाई भी हुई थी। यहां तक कि अपने अपमान से दुखी होकर इन खिलाड़ियों ने अपने मेडल गंगा में प्रवाहित करने की चेतावनी तक दे दी थी। इनमें भी अधिकांश पीड़ित महिला खिलाड़ी जाट समुदाय से थीं। ऐसी ही एक खिलाड़ी साक्षी मलिक ने तो संजय सिंह के भारतीय कुश्ती महासंघ अध्यक्ष निर्वाचन के बाद मीडिया के समक्ष रोते हुये कुश्ती खेलने से ही सन्यास ले लिया। क्या उस समय या आज किसी भांड मीडिया,भाजपा नेता या जाटों की स्मिता पर घड़ियाली आंसू बहाने वालों ने अपना मुंह खोला ? क्या स्वयं जगदीप धनकड़ ने उस समय देश का गौरव व सम्मान बढ़ाने वाली इन मेडल विजेता खिलाड़ियों का दुःख दर्द सांझा किया था ? 
 
                                भाजपा नेताओं की चतुराई और तिल का ताड़ बनाने में इनकी महारत का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह शब्दों के अर्थ व उसके उपयोग को भी अपनी सुविधानुसार निर्धारित कर लेते हैं। मिसाल के तौर पर 2014 में चुनाव पूर्व जब नरेंद्र मोदी ने अपनी आदत के अनुसार राजीव गांधी सहित पूरे नेहरू गांधी परिवार पर हमला किया तो जवाब में प्रियंका गांधी ने यह कह दिया कि -  "इन्होंने अमेठी की धरती पर मेरे शहीद पिता का अपमान किया है और ये लोग नीच राजनीति पर उतर आए हैं।' बस,प्रियंका गांधी के मुंह से 'नीच राजनीति' शब्द निकलने की देर थी कि नरेंद्र मोदी ने इस शब्द को भी अपने लिये 'आपदा में अवसर ' की तरह स्वीकार करते हुये इस मुद्दे पर ट्वीट की बारिश कर डाली। मोदी ने उस समय लिखा था कि - "सामाजिक रूप से मैं निचले वर्ग से आया हूं, इसलिए मेरी राजनीति इन लोगों के लिए नीच राजनीति ही होगी।" यानी इस शब्द संघर्ष में मोदी ने अपने पिछड़े वर्ग से आने का कार्ड खेल दिया। उसी समय उन्होंने आगे लिखा था- "हो सकता है कि कुछ लोगों को यह नज़र  नहीं आता हो, पर निचली जातियों के त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ की देश को इस ऊंचाई तक पहुंचाने में अहम भूमिका है।" उन्होंने यह भी लिखा था कि - "इसी नीच राजनीति की ऊंचाई पिछले 60 सालों के कुशासन और वोट बैंक की राजनीति से भारत को मुक्त कर...भारत मां के कोटि-कोटि जन के आंसू पोंछेगी।" गोया मोदी ने देश का दशकों नेतृत्व करने व बड़ी से बड़ी अनेक क़ुर्बानियां देने वाले नेताओं का क्या अपमान किया वह कोई विषय नहीं परन्तु प्रियंका ने  जवाब में 'नीच राजनीति' शब्द का इस्तेमाल क्या कर दिया कि मोदी ने 'नीच ' शब्द को विभिन्न तरीक़ों से परिभाषित कर इस शब्द को ज़रूर तिल के ताड़ के रूप में पेश कर दिया। 
 
                         यदि बात संसद की गरिमा की भी की जाये तो इसी नवनिर्मित संसद भवन का वह काला दिन भी देश नहीं भूला है जब भाजपा के सांसद रमेश विधुरी ने बसपा सांसद दानिश अली को संसद में बोलते हुये उन्हें न केवल धर्मसूचक गलियां दी थीं बल्कि उन्हें धमकी तक दी थी। उस समय तो देश को संसदीय गरिमा व मर्यादा का पाठ पढ़ने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री संसद में ठहाका लगाकर हंस रहे थे ? कहाँ चली गयी थी उसे समय संसद की मर्यादा ?और कौन खड़ा हुआ था उस समय दानिश अली व उनके धर्म के लोगों को सांत्वना देने ? मीडिया जिसतरह आज सभापति जगदीप धनखड़ की मिमिक्री मात्र को संसद व जाटों की गरिमा से जोड़ रहा है उसे रमेश विधुरी के अपमानजनक,अशिष्ट व असंसदीय बयान में क्या संसदीय गरिमा या दानिश अली के समुदाय का अपमान जैसा कुछ सुझाई नहीं दिया ?
 
हमारे देश में गांधी से बड़ा संवैधानिक व्यक्ति और कौन हो सकता है। संसदीय गरिमा की दुहाई देने वाले इन्हीं लोगों की जमात के तमाम नेता गांधी को फ़ैशन की तरह गली देते रहते हैं। उन्हें गोली मारने का कुकृत्य नाट्य रूपांतर की तरह दोहराते हैं ,उसके हत्यारे की मूर्तियां लगाते हैं ,उसे देशभक्त बताते हैं ,क्या यह सब संसदीय गरिमा के अनुरूप है ? पचास करोड़ की गर्ल फ़्रेंड,कांग्रेस की विधवा,इटली का चश्मा,कपड़ों से पहचाने जाते हैं,देश के ग़द्दारों को गोली मारो ....  जैसी तमाम मर्यादा विहीन बातें करने वालों की तरफ़ से जब मर्यादा की बातें की जाएँ तो यही लगता है कि मर्यादा तो एक है परन्तु इसके मापदण्ड शायद अनेक हैं ?

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