दलितों को लुभाने की कोशिश में कितने कामयाब हो सकते हैं अन्य दल

चुनावों का मौसम चल रहा है एक के बाद एक चुनाव देश भर में होने हैं। अभी नवंबर में पांच राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, और मिजोरम में विधानसभा चुनावो की तारीखों की घोषणा चुनाव आयोग कर चुका है। जिनके चुनाव परिणाम दिसंबर में घोषित कर दिए जाएंगे और उसी के बाद नये वर्ष में देश में नई लोकसभा के लिए चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में समेत हर राज्य में चुनाव की आहटें सुनाई दे रही हैं।

हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश की राजनीति की और यहां वर्षों से चुनाव जातियों को आधार बनाकर ही लड़े जाते हैं। जातियों के समीकरण बनाने में कोई दल अछूता नहीं है। सभी अपनी अपनी तरह से हर जाति को लुभाने की कोशिश में लगे हुए हैं। जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी बड़ी पार्टियां उत्तर प्रदेश में हैं तो वहीं ऐसी छोटी छोटी पार्टियां भी हैं जो केवल एक एक जाति की राजनीति करती हैं। इन राजनैतिक दलों में अनुप्रिया पटेल की अपना दल औम प्रकाश राजभर की सुभासपा, संजय निषाद की निषाद पार्टी, केशव देव मौर्या की महान् दल, और अपना दल कमेरावादी जैसी पार्टियां शामिल हैं।

इस समय प्रदेश में सभी पार्टियां दलितों को रिझाने की कोशिश में लगी हुई हैं। यदि केवल उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहां दलितों के एक विशेष वर्ग पर बहुजन समाज पार्टी का अच्छा खासा एकाधिकार है वह है जाटव वर्ग। मायावती का इस वर्ग पर बहुत बड़ा भरोसा है। और अभी तक इस वर्ग ने मायावती को निराश भी नहीं किया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस वर्ग के एक और नेता अपनी अच्छी खासी पकड़ बनाने में कामयाब दिख रहे हैं लेकिन अभी तक उनको कामयाबी हासिल नहीं हो सकी है क्योंकि किसी अन्य वर्ग को साधने में वह कामयाब नही हो पाये हैं। किसी अन्य दल से कोई गठबंधन भी नहीं हो सका जिससे वह आगे बढ़ सकें। 

दलितों में जाटव के अलावा भी कई वर्ग हैं और उन्हीं जातियों पर सभी राजनैतिक पार्टियां नज़र गड़ाए बैठी हुई हैं। और जगह जगह बौद्ध और बाल्मीकि समारोह के आयोजन आयोजित किए जा रहे हैं। 24 का लोकसभा चुनाव बहुत ही खास हो चुका है। क्यों एक तरफ प्रचंड बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी है तो दूसरी तरफ समूचे विपक्ष का समूह इंडिया गठबंधन है। अभी तक विपक्ष अपने अपने प्रत्याशी को उतारता था लेकिन इस चुनाव में संयुक्त प्रत्याशी उतारने की प्रक्रिया पर बड़ी तेजी से काम चल रहा है।
 
विपक्ष की एक जुटता पर भारतीय जनता पार्टी की नजर है। और यही इस चुनाव को दिलचस्प बनाती है। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के छोटे छोटे जातिगत राजनैतिक दलों में से ज्यादातर भाजपा समर्थित एनडीए के साथ हैं। ये दल हमेशा सत्ता के करीब रहना चाहते हैं। सपा, बसपा और कांग्रेस ने भी जातिगत समीकरण साधना शुरू कर दिया है। और हर पार्टी ने अपने अपने दलित नेताओं को दलित वोट साधने के लिए आगे कर दिया है। समाजवादी पार्टी ने यादव तथा अन्य ओबीसी वोटों के साथ मुस्लिम मतदाताओं का समीकरण बनाकर राजनीति की है। लेकिन पिछले काफी समय से ओबीसी की कई जातियां समाजवादी पार्टी से छिटक कर भारतीय जनता पार्टी के साथ चली गई हैं और इसी कमी को पूरा करने के लिए वह अन्य दलित वर्ग को साधने में जुटी है। 
 
एक समय में दलित वर्ग कांग्रेस का एक बहुत बड़ा वोट बैंक होता था। लेकिन जब से कांशीराम और मायावती ने दलितों की राजनीति शुरू की तो वह पूरा वोट उनकी तरफ शिफ्ट हो गया। कुल मिलाकर आज जिस वर्ग की राजनीति सपा, बसपा और अन्य विपक्षी दल कर रहे हैं यह सारा वोट कांग्रेस का ही जनाधार था। लेकिन अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास तो किसी वर्ग का जनाधार नहीं है और वह अपना जनाधार बनाने की पूरी कोशिश में लगी है। भारतीय जनता पार्टी भी जातिगत राजनीति से अछूती नजर नहीं आती है।
 
भले ही भाजपा अपने को यह दर्शाने की कोशिश करे कि वह सभी जातियों को एक समान देखती है। लेकिन जगह जगह पर उसे भी जातिगत समीकरण बनाने पड़ते हैं। स्वयं भी और अपने सहयोगी दलों के द्वारा वह अच्छे समीकरण बनाने में कामयाब हुई है। दलितों में काफी संख्या में एक ऐसा वोट है जो चुनावों के दौरान आसानी से शिफ्ट हो जाता है। और इसी वोट पर सभी राजनैतिक दलों की निगाहें जमी रहती हैं।
 
प्रदेश में सभी राजनैतिक पार्टियां इस समय बौद्ध और बाल्मीकि सम्मेलन अपनी अपनी तरह से आयोजित कर रही हैं। अभी हाल ही में कानपुर में हुए बाल्मीकि सम्मेलन में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी शिरकत की। अखिलेश यादव भी कई सम्मेलनों में इस वर्ग को साधने में देखे गए हैं। वहीं मायावती का कहना है कि दलितों के लिए किसी पार्टी ने कुछ नहीं किया। और वह पार्टियां अब उनका वोट पाने के लिए ढकोसला कर रही हैं।
 
उत्तर प्रदेश में दलित वोटों की संख्या का कुल प्रतिशत लगभग 19 प्रतिशत है जो कि एक बहुत बड़ी संख्या है। इसमें से ज्यादातर तो बहुजन समाज पार्टी के साथ है लेकिन अन्य वोट जो आसानी से शिफ्ट हो जाता है उस पर ही इस समय सभी पार्टियों का फोकस है। दलितों के मसीहा कहे जाने वाले बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर अब सबको याद आने लगे हैं। जब कि पहले उनको सिर्फ संविधान रचैता के रुप में ही देखा जाता था।
 
परंतु अब भीमराव अम्बेडकर की जयंती पर कोई दल ऐसा नहीं है जो उनके अनुयायियों को लुभाने की कोशिश न करे। दरअसल यह वर्ग ही पहले समाज में सबसे शोषित और वंचित था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। दलित वर्ग ने भी आजादी के बाद से अब तक काफी प्रगति की है। लेकिन यह भी निश्चित है कि अन्य जातियों के मुकाबले यह वर्ग अभी भी काफी पीछे है। और मायावती इस वर्ग की सबसे हिमायती नेता के रुप में देखी जाती हैं।
 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में युवा नेता के रुप में चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण ने भी अपनी आजाद समाज पार्टी का गठन किया है। और वह पूरी कोशिश में है कि बहुजन समाज पार्टी के वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित कर सके। कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव से पहले दलित वोटों का खेल खेला जाना शुरू हो गया है। अब देखना है कि चुनावों में कौन सा दल इनको प्रभावित करने में कामयाब हो सकेगा। 

About The Author: Abhishek Desk