महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़, धर्म और जाति पर अटकी  उ.प्र.की राजनीति : को कैसे मिलेगा छुटकारा

 

                               ---- जितेन्द्र सिंह पत्रकार 

राजनैतिक द्रष्टि से उ.प्र. देश का सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश है जनसंख्या में अव्वल होने के कारण यहां सबसे अधिक 80 लोकसभा सीट आती हैं। जिससे केन्द्र में सरकार बनाने के लिए उ.प्र को अत्यधिक मजबूत करना राजनैतिक दलों की मजबूरी बन गई है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी मूल रूप से गुजरात के निवासी हैं लेकिन उन्होंने राजनीतिक द्रष्टि से उ.प्र.के वाराणसी लोकसभा क्षेत्र को अपनी कर्मस्थली के रुप में चुना जो दल उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक मजबूत होत है केन्द्र में उसी दल की सरकार बन पाती है। लेकिन उ.प्र. की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यहां राजनीति अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़ धर्म और जाति से जोड़ कर देखी जाती है चुनाव जीतने के लिए धर्म और जाति के समीकरण बनाए जाते हैं। 

जहां अन्य राज्यों में चुनाव काम के आधार पर तय किए जाते हैं वहीं उत्तर प्रदेश पर धर्म और जाति हावी हो जाती है। वर्तमान समय में यह एक कमजोर कड़ी है कि जहां दुनियाभर में तरक्की का डंका बज रहा वहां उ.प्र. की जनता अपना जनप्रतिनिधि धर्म और जाति देखकर चुनती है। यही कारण है कि कि अन्य राज्यों की अपेक्षा उत्तर प्रदेश में अत्यधिक जातीय राजनीतिक दल तैयार हो गए हैं जो अपनी अपनी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनके मुखिया वोट के बदले मंत्री पद की डिमांड रखते हैं। इस बार के चुनाव में भाजपा सनातन को हथियार के रुप में प्रयोग कर रही है। भारतीय जनता पार्टी अपने हर मंच से सनातन का मुद्दा उठा रही है। विपक्षी दलों का कहना है कि भाजपा के पास मुद्दों का अकाल है इसलिए वह सनातन धर्म का सहारा ले रही है। लेकिन विपक्ष भी दूध का धुला नहीं है। मुस्लिम धर्म और अन्य जातियों के मतदाताओं को साधने के लिए वो हिंदुत्व और सनातन धर्म पर आरोप लगा रही है। कुल मिलाकर यहां अगर जिस दल को अपनी जीत सुनिश्चित करनी है तो उसके लिए उसे धर्म और जाति का समीकरण साधना आवश्यक है। 

                             प्रदेश की राजनीति में अब कुछ एक सीटों को छोड़कर कांग्रेस का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन एक समय ऐसा भी था कि कांग्रेस को सवर्ण वोटों के अलावा मुस्लिम और दलित जातियों का वोट भी मिलता था और काफी संख्या में पिछड़ा वर्ग भी कांग्रेस के साथ दिखाई देता था। मुलायम सिंह यादव, चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाले लोक दल का उत्तर प्रदेश में प्रतिनिधित्व करते थे। लेकिन जब कांग्रेस से अलग होकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस विरोधी दलों को एक करके जनता दल का गठन किया। और देश में मंडल आयोग की शिफारिशों को लागू किया तभी से उत्तर प्रदेश में धर्म और जाति के नाम पर तमाम पार्टियों की नींव पड़ गई। 

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जाति का कार्ड खेलकर जाति की राजनीति को जन्म दे दिया था। कांग्रेस कमजोर पड़ने लगी थी। तो उस समय के बाद सवर्णों को भारतीय जनता पार्टी मुफीद लगने लगी। और यहां विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद मुलायम सिंह यादव ने यादवों के साथ अन्य पिछड़े वर्ग को साधकर मुस्लिम मतदाताओं में अपनी पकड़ मजबूत कर ली। और यादव मुस्लिम को वोट बैंक बनाकर कई वर्ष उत्तर प्रदेश की सत्ता सम्हाली। बहुजन समाज पार्टी उस समय डा. भीमराव अम्बेडकर के सिद्धांतों पर चलकर प्रदेश में दलित वोट को एक कर रही थी लेकिन केवल दलित वोट से उसका भला होना नहीं था। तो बसपा ने भी अन्य जातियों और मुस्लिम वर्ग को साधना शुरू कर दिया।

 उसके बाद कई वर्षों तक उत्तर प्रदेश की राजनीति मुलायम सिंह यादव और मायावती के इर्दगिर्द घूमती रही। बीच में भारतीय जनता पार्टी ने राम जन्मभूमि के मुद्दे को उठाकर धार्मिक कार्ड खेला और वह उसमें सफल नजर आए। उसके बाद से भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व और रामजन्म भूमि जैसे धार्मिक मुद्दों को कभी नहीं छोड़ा और एक के बाद एक धार्मिक मुद्दे उठाती रही और सफलता की सीढ़ी पर चढ़ती चली गई। धर्म और जातियां बंटती चली गईं और राजनैतिक दल अपनी रोटियां सेकते रहे। धर्म और जाति के बंटने का सिलसिला यहीं पर नहीं थमा।


                      उ.प्र. की बड़ी राजनीतिक पार्टियों में कई नेता ऐसे थे जो जातीय समीकरण साधते थे अगर उन क्षेत्रों में जहां इनकी जाति के मतदाताओं की संख्या ज्यादा है वहां इनके बिना जीत पाना असंभव था। तो बसपा, सपा भाजपा और कांग्रेस जैसे दल इन नेताओं को अहमियत देते थे और उसका फायदा ये बड़ा पद लेकर संतुष्ट होते थे कई बार तो इन नेताओं की मांग इतनी ज्यादा बढ़ जाती थी कि इन बड़ी पार्टियों को मानन मुश्किल हो जाता था लेकिन उनके वर्ग का वोट पाने के लिए उन्हें साधना भी जरूरी होता था। मांग मान ली जाती थी तो ठीक है नहीं तो ये नेता तुरंत सपा से बसपा में बसपा से भाजपा में शामिल होने में जरा भी देर नहीं लगाते थे क्योंकि इनकी जाति का वोट बैंक इनके इशारों पर चलता था।

 इस तरह की राजनीति काफी समय तक चलती रही ये नेता चुनाव से पहले या चुनाव के बाद उन दलों में शामिल हो जाते थे जिनकी सरकार बनने के आसार नज़र आते थे। और अच्छा मंत्री पद पा लेते थे लेकिन जब इन्होंने पार्टी लाइन से अलग हटकर, या पार्टी विरोधी कार्य करना शुरू कर दिया तो बड़े राजनैतिक दलों ने इनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना शुरू कर दिया। फिर क्या था औम प्रकाश राजभर, संजय निषाद, केशव मौर्या, जैसे तमाम नेताओं ने अपने -अपने दलों का गठन कर लिया। और पूर्वांचल में अति पिछड़े अति दलितों का वोट इन जैसे नेताओं के हाथों में आ गया। और इन्होंने रणनीति के साथ खेल खेलना शुरु कर दिया। ये कभी सपा तो कभी भाजपा में शामिल होने का खेल खेलने लगे। वो भी बड़ी क़ीमत के साथ। इस तरह उत्तर प्रदेश की पूरी राजनीति जातिवादी व्यवस्था में सिमट कर रह गई।

                         भाजपा और सपा जैसे बड़े दलों में इनके लिए दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं अभी हाल ही में पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व ओम प्रकाश राजभर, केशव देव मौर्य, दारा सिंह चौहान, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता भारतीय जनता पार्टी का दामन छोड़ कर सपा में शामिल हो गए। समाजवादी पार्टी ने भी इनका जोरदार स्वागत किया और टिकट वितरण में भी बहुत तवज्जो दी गई। भाजपा से सपा में आए इन नेताओं को पूरी तरह से विश्वास था कि 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ सपा की सीटें तो बढ़ी लेकिन भारतीय जनता पार्टी फिर से प्रचंड बहुमत में आ गई। और ये नेता जो भाजपा से सपा में शामिल हुए थे तिलमिला कर रह गए।

 फिर क्या था कुछ दिन तो सपा के साथ कट गये लेकिन उनका मंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया। ओम प्रकाश राजभर ने फिर से मुख्यमंत्री दफ्तर के चक्कर लगाने शुरू कर दिये। आखिरकार ओम प्रकाश राजभर और केशव देव मौर्य तो आसानी से एनडीए में शामिल हो गए क्योंकि उनके अपने दल थे लेकिन दारा सिंह चौहान को समाजवादी पार्टी से और विधायकी से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होना पड़ा। दारा सिंह चौहान के इस्तीफे से मऊ जनपद की घोसी विधानसभा सीट खाली हो गई, जहां फिर से चुनाव कराना पड़ा। 

भाजपा ने यहां से दारा चौहान को चुनाव में फिर से उतार दिया वहीं समाजवादी पार्टी ने सुधाकर सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया। दारा चौहान अति पिछड़ी जाति से आते हैं और उनकी जाति का वोट घोसी में काफी अच्छी संख्या में हैं और राजभर वोट भी काफी है। लेकिन घोसी के मतदाताओं को उनका दलबदल पसंद नहीं आया और सपा के सुधाकर सिंह रिकार्ड मतों से चुनाव जीत गए। दारा चौहान के चुनाव हार जाने से पूर्वांचल में ओम प्रकाश राजभर , संजय निषाद और केशव देव मौर्य की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी।

 लेकिन चुनाव के हारने से इन सब की प्रतिष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लग गया। अनुमान लगाया जा रहा है कि इसी कारण अभी तक भारतीय जनता पार्टी ने ओम प्रकाश राजभर को मंत्री पद से सुशोभित नहीं किया। अब उनको मंत्रिमंडल में कब शामिल किया जाएगा ये देखना होगा। लेकिन यह निश्चित है कि वह मंत्री अवश्य बनेंगे क्यों कि पूर्वांचल की तमाम सीटों पर इन नेताओं का अच्छा असर है। और भारतीय जनता पार्टी 24 के चुनाव को लेकर कोई रिश्क नहीं लेना चाहती।

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