24' में तीसरा विकल्प बनने को बसपा की तैयारी

जितेन्द्र सिंह पत्रकार

लोकसभा चुनाव 24 की आहट हो चुकी है, अंदेशा यह भी है कि चुनाव तय समय से पहले भी हो सकते हैं। लेकिन यह भाजपा सरकार को तय करना है कि वह पहले चुनाव कराती है या लोकसभा का समय पूर्ण होने पर। प्रमुख रूप से देश में दो गठबंधनों के बीच चुनाव होना है एक एनडीए और दूसरा इंडिया गठबंधन। लेकिन कुछ दल ऐसे भी हैं जिन्होंने किसी भी गठबंधन के साथ न जाने का फैसला किया है और वह स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं। मतलब "न काहू से दोस्ती न काहू से बैर"। ये दल शायद चुनाव बाद की संभावनाओं का पता लगाएंगे। उनमें से एक प्रमुख दल है बहुजन समाज पार्टी। बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती की रणनीति बहुत ही सोची समझी रहती है। वह ना तो भाजपा के विरुद्ध जाती हैं और न ही विपक्ष के वह हमेशा अपने आप के लिए एक विकल्प तैयार बनाए रहती हैं। जब देश में समस्त विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़ने की संभावना तलाश रहा था तब बसपा प्रमुख मायावती ने ऐसा रास्ता चुना जो उनके लिए मुफीद हो। दोनों गठबंधन अपनी अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। और लोकतंत्र में यह पहले से नहीं कहा जा सकता कि किसकी सरकार बनेगी। लेकिन हम माहौल के अनुसार एक आंकलन कर सकते हैं। और इसी दुविधा को देखते हुए मायावती ने यह फैसला लिया होगा। हालांकि बसपा प्रमुख मायावती ने यह कहते हुए इंडिया गठबंधन में न जाने का फैसला लिया कि गठबंधन के उनके अनुभव ठीक नहीं रहे और गठबंधन से उनको नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन उनका यह कहना किसी के गले नहीं उतर रहा है क्योंकि पिछला लोकसभा चुनाव बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था जिसमें सपा के केवल पांच सांसद जीते थे और बसपा ने दस सीटों पर विजय प्राप्त की थी। तो यह कहना कि गठबंधन से उनको नुकसान उठाना पड़ा है बेमानी होगी।
 
यहां पर बसपा की रणनीति अलग है वह दो तरफ का खेल खेलती है। यदि वो विपक्षी गठबंधन के साथ चली गई होती और गठबंधन की सरकार नहीं बनी तब भी उनको विपक्ष में बैठना पड़ेगा। और भाजपा से वो दुश्मनी मोल ले लेती। और यदि अकेले चुनाव में उतरी हैं तो न ही भाजपा से उसके रिश्ते खराब होंगे। इसके अलावा यदि भंग असेंबली होती है तो उनका महत्व बढ़ जाएगा। तो यह कहना सही होगा कि यह मायावती की सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। भंग असेंबली होती है तो मायावती कोई भी खेल, खेल सकती हैं। मायावती ने भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से पहले भी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई है इसलिए उनके किसी कदम पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। शायद मायावती का गेम्स प्लान यह जिस तरह बिहार में नीतीश कुमार राजनीति करते आए हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में मायावती के लिए यह करना काफी मुश्किल होगा क्योंकि बिहार में नीतीश कुमार की छवि मुस्लिम मतदाताओं में भी अच्छी खासी है। लेकिन उत्तर प्रदेश में राजनीति अलग है यहां मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद सपा है और दूसरा नंबर पर बहुजन समाज पार्टी का आता है तो मायावती को भाजपा से नजदीकी मुश्किल में डाल सकती है। लेकिन कहा जाता है कि राजनीति संभावनाओं का खेल है यहां वक्त के साथ समझौते होते रहते हैं और पहले हुए भी हैं। लेकिन इस चुनाव में बसपा को अपनी असली छमता का पता भी चल जाएगा क्योंकि दो गठबंधन से अलग रहकर चुनाव लड़ना बसपा के लिए आसान नहीं होगा। और जो आरोप उन्होंने गठबंधन की रणनीति पर लगाया है कि गठबंधन से उनको नुकसान होता है उसका भी खुलासा हो जाएगा।
 
दरअसल उत्तर प्रदेश की राजनीति में यदि बहुजन समाज पार्टी को देखा जाए तो इन्होंने हमेशा अपनी सोशल इंजीनियरिंग पर ज्यादा जोर दिया गया। दलित मुस्लिम और अति पिछड़े वर्ग तथा ब्राह्मण को साधने में मायावती टिकट का वितरण इस तरह करती हैं कि जो वोट बैंक उनके लिए कमजोर लगता है वह उसको भी पाने की क्षमता रखती हैं। उत्तर प्रदेश में सपा मुस्लिम की पहली पसंद होते हुए भी उतने मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतार पाती जितने बसपा उतार देती है। इसी तरह ब्राह्मण उम्मीदवारों को भी बसपा काफी तवज्जो देती है। बसपा के पास सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है उसका दलित वोट जो मायावती को छोड़कर कहीं नहीं जा सकता और यदि कुछ मुस्लिम कुछ ओबीसी वोट बसपा को और मिल जाए तो उसकी जीत सुनिश्चित हो जाती है। और बसपा इसी तरह की सोशल इंजीनियरिंग करने के लिए एक बार फिर से चुनावी रणनीति तैयार कर रही है। सतीश चन्द्र मिश्रा जो पिछले काफी समय से बसपा से दूर दिख रहे थे। वो भी अब बसपा की मीटिंग और प्रेस कांफ्रेंस में दिखाई देने लगे हैं। वह सतीश चन्द्र मिश्रा की ही रणनीति थी जब दलित वोट के साथ मुस्लिम और ब्राह्मण वोट बसपा की तरफ मोड़ कर मायावती उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई थीं।
 
राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है यदि 24 के चुनाव में किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिलता है तो उस स्थिति में मायावती की अहमियत और बढ़ जाएगी। मायावती की यह रणनीति ऐसा ही कुछ बयां कर रही है। दूसरी स्थिति यह है कि यदि वो विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनती तो उत्तर प्रदेश की आधी सीटों पर दावा करती जो कि अखिलेश यादव के लिए बहुत ही मुश्किल होता। इस तरह बसपा अब तीसरा विकल्प बन गई है जो चुनाव बाद किसी की भी मदद करने को तैयार है। उ.प्र. लोकसभा सीटों के लिहाज से देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां से 80 सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंचते हैं। इसलिए उ.प्र. के दो बड़े राजनैतिक दल सपा और बसपा का चुनावों में महत्व बढ़ जाता है। और कोई भी गठबंधन इनकी अनदेखी नहीं कर सकता। और आज समाज गठबंधन की राजनीति का है। देश के दोनों गठबंधन इस लिए किसी भी प्रांतीय दलों को अपनी अपनी ओर रिझाने की कोशिश में हैं। 

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